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मुस्लिम महिलाओं को सरकार की विभिन्न योजनाओं तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है स्वयं सहायता समूह

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डॉ. रश्मि खान शाहनवाज  महिलाओं की आर्थिक स्थिति स्थापित करने और उनके समग्र सशक्तिकरण में योगदान देने के लिए कौशल विकसित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, स्वयं सहायता समूह यानी एसएचजी अक्सर कानूनी अधिकार और सरकारी मान्यता के आधार पर स्कूलों में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों, स्वास्थ्य जागरूकता अभियानों और कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, जिससे महिलाओं को महत्वपूर्ण ज्ञान व तकनीक तक पहुँच में सुविधा होती है। शिक्षा क्षेत्र में एसएचजी का उल्लेखनीय प्रभाव देखा गया है। जैसे-जैसे मुस्लिम महिलाओं की आर्थिक स्थिति अधिक स्थिर होती जाती है, वे अपने बच्चों की शिक्षा में निवेश करते हैं, जिससे न केवल समाज और कौम का भला होता है अपितु देश भी विकास की ओर आपे-आप अग्रसर हो जाता है। यह योजना खासकर लड़कियों के लिए बेहद उपयोगी साबित हो रही है। अब मुस्लिम महिलाओं में भी लड़कियों को पढ़ाने की दिशा में जागरूकता बढ़ी है। इसका असर स्वास्थ्य और स्वतंत्रता, परिवार नियोजन और मातृ देखभाल जैसे विषयों पर व्यापक दिख रहा है। अब तक जो वर्ग हाशिए पर था वह एकाएक मुख्यधारा का आधार बनता जा रहा है।  एसएचजी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान मुस्

एक बार फिर USCIRF की बेबुनियात आलोचना का शिकार हुआ भारत

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  डॉ. हसन जमालपुरी भारत एक बार फिर, यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (यूएससीआईआरएफ) की बेबुनियाद आलोचना का शिकार हुआ। इस बार, आयोग का दावा है कि भारत धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के लिए एक खतरनाक जगह बनता जा रहा है। यहां सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय मुसलमानों ने ऐसा कहा, या फिर भारत की कोई मुस्लिम संस्था ने इस बात का दावा किया है? यूएससीआईआरएफ यह आरोप किस आधार पर लगाया है यह रहस्य बना हुआ है। भारत में रहने वाले और ज़मीनी हकीकत को जानने समझने वाले अच्छी तरह वाकफ हैं कि भारत अल्पसंख्यकों के मामले में बेहद संजीदा राष्ट्र है। यूएससीआईआरएफ हमारे देश की भयावह तस्वीर पेश करने पर आमादा हैं। सच तो यह है कि ये रिपोर्टें सिर्फ़ अनावश्यक शोर मचाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। हो सकता है यह मामला हमारे राष्ट्र विरोधी ताकतों की करतूत भी हो। इस मामले से हमें सतर्क रहना चाहिए और समाज के युवकों को इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। समुदाय को ऊपर उठाने के लिए काम करने के बजाय, ये तथाकथित ‘वॉचडॉग’ ऐसी कहानियां गढते और फैलाते हैं जो हमें प्रकारांतर में हानि पहुंचाता है। जब अंत

वक्फ़ को कुशल प्रबंधन की जरूरत, लेकिन स्वायत्ता पर आंच नहीं आनी चाहिए

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कलीमुल्ला खान  आजकल वक्फ को लेकर चर्चाएं चल रही है। न केवल इस्लाम के मामने वाले इस विषय को लेकर संजीदा हैं अपितु इस मामले को लेकर केन्द्र और प्रदेश की सरकारें भी थोड़ी गंभीर दिखने लगी है। आखिर वक्फ एकाएक चर्चाओं के केन्द्र में कैसे चला आया? इसका एक सीधा-सा उत्तर यह है कि इस संस्था के पास संपत्ति की कोई कमी नहीं है लेकिन जिस काम के लिए इसे बनाया गया था उस दिशा में यह काम करना छोड़ बांकी का सारा काम कर रहा है।  वक्फ, धर्मार्थ बंदोबस्ती की एक इस्लामी संस्था है, जो अल्लाह की सेवा और जनता के लाभ के लिए संपत्ति या संपदा समर्पित करने के विचार पर आधारित है। एक बार वक्फ घोषित होने के बाद ये संपत्तियां धर्मार्थ कार्यों के लिए सौंप दी जाती हैं और इन्हें रद्द, बेचा या बदला नहीं जा सकता है। इन संपत्तियों से प्राप्त आय का उद्देश्य सभी समुदायों की जरूरतों को पूरा करने वाली मस्जिदों, मदरसों, अनाथालयों, अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों जैसी आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं को निधि देना है। हालांकि, भारत में वक्फ संपत्तियों का दुरुपयोग और कम उपयोग लंबे समय से चिंता का विषय रहा है, जिसमें भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और अत

राज्य और धर्म के बीच की जटिलता को संतुलित करने में अभूतपूर्व भूमिका निभा रहा है भारत

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डॉ. अनुभा खान  भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। भारत की एक विशेषता यह भी है कि यहां विभिन्न प्रकार की संस्कृति निवास करती है और भिन्न-भिन्न धार्मिक चिंतनों के कई मत-संप्रदाय विकसित हुए हैं। यही नहीं दुनिया के कुछ ऐसे मत-संप्रदाय के मानने वाले भी भारत में निवास करते हैं जिनका अन्य कहीं वजूद नहीं है और अन्य क्षेत्रों में बड़े सेमेटिक समूहों के हिंसा का शिकार भी होते रहे हैं। यहां ऐसा इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि भारत के लोकतोंत्रिक व्यवस्था में धर्म और राज्य के बीच अनूठा संबंध है। यह संबंध कई मायनों में जटिल भी है। कई पश्चिमी देशों के विपरीत, जो अपनी सख्त परिभाषा के अनुसार धर्मनिरपेक्षता का पालन करते हैं, वहां की तुलना में भारत का धर्मनिरपेक्षता के प्रति दृष्टिकोण बिल्कुल अलग है। जो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को दर्शाता है। भारत में एक विविध धार्मिक परिदृश्य है, इसका संविधान स्पष्ट रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को अनिवार्य करता है, जो धर्म और सरकार के स्पष्ट पृथक्करण को दर्शाता है। लेख का उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता के प्रति भारत के अनूठे दृष्टिकोण की पेश करना

नए न्याय संहिताओं में सबका हित, मुसलमानों को देश के तंत्र में विश्वास बनाए रखने की जरूरत

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  हसन जमालपुरी अभी हाल ही में देश की कानून संहिताओं में व्यापक बदलाव किया गया। सरकार ने भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए) सहित नए आपराधिक कानूनों को पूरे देश में लागू कर दिया। अब इन्ही तीनों सहिताओं के आधार पर आपराधिक प्राथमिकियां दर्ज की जाएगी साथ हमें इन्हीं संहिताओं के दायरे में न्याय भी प्राप्त होगा। मसलन, कानून की व्याख्याएं भी इन्हीं सहिताओं के दायरे में की जाएगी। हमारी सरकार ने दावा किया है कि ये कानून देश की कानूनी प्रणाली को आधुनिक बनाने के व्यापक प्रयास का हिस्सा हैं, जो क्रमशः औपनिवेशिक युग के भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम की जगह लेंगे। इन सुधारों को कुछ लोगों द्वारा आवश्यक और लंबे समय से लंबित बताया जा रहा है, लेकिन इनसे महत्वपूर्ण बहस भी छिड़ गई है, खासकर भारत के मुस्लिम समुदाय पर उनके प्रभाव को लेकर। नए कानूनों के सबसे चर्चित पहलुओं में से एक है मॉब लिंचिंग के प्रति उनका दृष्टिकोण, एक ऐसा मुद्दा जिसने भारत में मुसलमानों को असंगत रूप से प्रभावित किया है। भारतीय न्यास संहित

भारतीय कानून प्रणाली में नए बदलाव की सकारात्मकता को समझिए

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हसन जमालपुरी  भारतीय कानून प्रणाली में सुधार का संघर्ष निरंतर चल रहा है, जिसका मुख्य उद्देश्य समाज के सभी वर्गों को न्याय पहुंचाना और कानूनी प्रक्रियाओं में सुधार करना है। हाल ही में भारतीय संविधान में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए गए हैं, जिन्होंने कानूनी प्रक्रियाओं में बदलाव लाने के साथ-साथ न्यायिक प्रणाली की दृष्टिकोण को भी समायोजित किया है। बीते एक जुलाई से बदले गए सारे कानून प्रभावी हो गए हैं। अब उन्हीं कानून के द्वारा हमें न्याय दिलाया जाएगा। या हम उन्हीं कानून के द्वारा न्यायालय में अपने लिए न्याय मांग सकते हैं। इसलिए इन कानूनों को जानना बेहद जरूरी है। सथ ही इसकी सकारात्मका पर भी गौर किया जाना चाहिए।  भारतीय कानून में किए गए कुछ महत्वपूर्ण संशोधनों ने न्यायिक प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए हैं। ये संशोधन न केवल कानूनी प्रक्रियाओं को तेजी से और सुलभता से व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं, बल्कि न्याय पहुंचाने में भी सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते दिखते हैं।  सबसे पहले, संशोधन ने अपराधिक मामलों के न्याय दिलाने में समय सीमा को निर्धारित करने के प्रयास किए हैं। अब 35 धाराओं में ऐसी सम

पसमांदा आन्दोलन भारतीय मुसलमानों के अधिकारों का संरक्षक

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हसन जमालपुरी   आज के भारत में, पसमांदा आंदोलन हाशिए पर पड़े मुस्लिम समुदायों के अधिकारों और मान्यता की वकालत करने वाली एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा है। इस्लाम की समानता की शिक्षाओं के बावजूद, भारतीय मुसलमानों के बीच जाति-आधारित भेदभाव विगत लंबे समय से कायम है। यह पसमांदा मुसलमानों के सामने आने वाली कठोर वास्तविकताओं को उजागर करता है। यह लेख जाति-आधारित भेदभाव को गहरा करने के मद्देनजर पसमांदा आंदोलन की बढ़ती प्रासंगिकता की पड़ताल करता है और हाल के उदाहरणों पर प्रकाश डालता है, जो इस कारण की तात्कालिकता को रेखांकित करते हैं।  फ़ारसी से व्युत्पन्न पसमांदा शब्द का अर्थ है, वे जो पीछे रह गए हैं। यह सामूहिक रूप से दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमानों को संदर्भित करता है, जो मुस्लिम समुदाय के भीतर प्रणालीगत भेदभाव का शिकार हो रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से, भारतीय मुसलमानों को पदानुक्रमिक श्रेणियों में विभाजित किया गया है, अशरफ (कुलीन या उच्च जाति के मुसलमान), अजलाफ (पिछड़े मुसलमान) और अरज़ल (दलित मुसलमान)। पसमांदा आंदोलन अजलाफ और अरज़ल मुसलमानों को ऊपर उठाने का एक सामाजिक आन्दोलन है।  भारतीय मुसलमानों