हमारे वर्तमान नेतृत्व में न तो सामूहिकता है न ही अनामिकता

गौतम चौधरी ‘‘निंदक नियरे राखिए ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।’’ आलोचना लोकतंत्र का श्रृंगार है। खासकर नेतृत्व को इसे केवल सकारात्मक ढंग से ही नहीं लेना चाहिए। इससे न केवल नेतृत्व को हानि होती है अपितु परेशानी में फंसता है। दुनिया का इतिहास यही कहता है। भारत में राजतंत्रात्मक व्यवस्था में भी आलोचना का अपना अलग महत्व रहा है। राजा रावण को उसके छोटे भाई और लंका के महामंत्री विभीषण ने कहा था, ’‘सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।’’ यानी जो सचिव, वैद्य और गुरू भय या किसी लालचवस क्रमशः अपने राजा, रोगी और शीष्य को कर्णप्रिय सलाह देता है तो उससे राज, शरीर एवं धर्म का जल्द से जल्द नाश हो जाता है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। हिटलर, मुसोलनी, जार निकोलस, लूई सोलहवां, रावण, कंश, जरासंध, दुर्योधन, मुहमद साह रंगीला, पृथ्वी राज चैहान आदि ऐसे राजा हुए हैं, जिन्होंने कर्णप्रिय सलाह के कारण अपना नाश तो कराया ही अपने राज और कौम का भी नाश करवा लिया। मगध पर नियंत्रण के बाद महाराजा चन्द्रगुप्त मौय सैलुकस की की बेट...