प्रगतिशील उलेमाओं ने भारतीय मुस्लिम महिलाओं में नए दौर की सोच पैदा की

कलीमुला खान हर दौर में मजहब समाज को एक-दूसरे से जोड़कर रखने का जरिया रहा है। दौर-ए-जदीद में कोई उतार-चढ़ाव आए फिर-भी मजहब अपना एक अलग ही मुकाम है लेकिन यह भी सच्चाई है कि मजहब के नाम पर उठने वाले और तहरीके चलाने वालों में बहुत से ऐसे थे जिन्होंने या तो अपने मफादात यानी फायदे के खातिर जान-बूझकर मजहबी तालिमात को मनमाने ढंग से पेश किया और बड़ तादाद में सादा दिल अवाम उनका शिकार हुई लेकिन एक कीमती पहलू यह भी है कि ऐसी सूरत-ए-हाल का मुकाबला करने के लिए बड़े-बड़े विद्वान और उलेमा सामने आए और उन्होंने मजहबी तालिमात की असली हकीकत पेश की और आज यह सच्चाई समाज, इंसान और इंसानियत की तरक्की का सबब बनी हुई है। यह सबकुछ दिगर मजाहिब के साथ-साथ इस्लाम के मानने वालों में भी हुआ क्योंकि चूकि इस्लाम में कभी भी दौर-ए-जदीद के किसी भ्ज्ञी सही तरीके को नहीं नकारा और जब इस बात को सही तरीके से उलेमाओं व दानीश्वरों ने पेश किया तो इसका फायदा भी मिला और कुरान की असली तालिम को खुद मुस्लिम ख्वातीन भी काफी हद तक समझ चुकी है। अब तो खुद मर्द भी अपनी बहन बेटियों को उंची तालिम दिलाने में मददगार साबित हो रहे हैं। ...