प्रगतिशील उलेमाओं ने भारतीय मुस्लिम महिलाओं में नए दौर की सोच पैदा की


कलीमुला खान 

हर दौर में मजहब समाज को एक-दूसरे से जोड़कर रखने का जरिया रहा है। दौर-ए-जदीद में कोई उतार-चढ़ाव आए फिर-भी मजहब अपना एक अलग ही मुकाम है लेकिन यह भी सच्चाई है कि मजहब के नाम पर उठने वाले और तहरीके चलाने वालों में बहुत से ऐसे थे जिन्होंने या तो अपने मफादात यानी फायदे के खातिर जान-बूझकर मजहबी तालिमात को मनमाने ढंग से पेश किया और बड़ तादाद में सादा दिल अवाम उनका शिकार हुई लेकिन एक कीमती पहलू यह भी है कि ऐसी सूरत-ए-हाल का मुकाबला करने के लिए बड़े-बड़े विद्वान और उलेमा सामने आए और उन्होंने मजहबी तालिमात की असली हकीकत पेश की और आज यह सच्चाई समाज, इंसान और इंसानियत की तरक्की का सबब बनी हुई है।

यह सबकुछ दिगर मजाहिब के साथ-साथ इस्लाम के मानने वालों में भी हुआ क्योंकि चूकि इस्लाम में कभी भी दौर-ए-जदीद के किसी भ्ज्ञी सही तरीके को नहीं नकारा और जब इस बात को सही तरीके से उलेमाओं व दानीश्वरों ने पेश किया तो इसका फायदा भी मिला और कुरान की असली तालिम को खुद मुस्लिम ख्वातीन भी काफी हद तक समझ चुकी है। अब तो खुद मर्द भी अपनी बहन बेटियों को उंची तालिम दिलाने में मददगार साबित हो रहे हैं।

पर न जाने क्यों इस्लाम के बारे में एक ऐसी सोंच उभर कर सामने आयी कि इस्लाम का दौर-ए-जदीद से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है। जबकि इस्लाम का असली मकसद ही अल्लाह की इबादत करते हुए तालिम व कामयाबी हासिल करना है। कुरान ने तो औरत और मर्द को बराबर के हक दिए हैं। औरत को भी वह हक है जो उसको वह इज्जत की जिंदगी देती है। साथ आला तालीम के उभारती है। कुरान की सुर-ए-निसा खास तौर से ऐसी आयतें हैं जो ख्वातीन के हक हमदर्दी और अच्छे सलूक की पैरवी करती है। खुद अल्लाह के रसूल की कई हदीसें मौजूद हैं जो ख्वातीन की हिमायत में और मोहम्मद साहब की कही हुई बातें पूरा मुस्लिम समाज मानता है।

खुद मोहम्मद साहब ने अपनी जिंदगी में ख्वातीनों के साथ जो सुलूक किया है। वह अपने आप में एक मिसाल है। क्या मुस्लिम समाज यह नहीं जानता कि मोहम्मद साहब की पहली बीवी कितनी बड़ी ताजीर थी यानी व्यापारी थी। आपकी एक बीवी हजरत आयशा बड़ी विद्वान थी।

पर यह भी सही है कि काफी वक्त तक मुस्लिम ख्वातीन अपने हुक पाने में नाकाम भी थीं, मगर अब यह बहस छिड़ चुकी है, दौर-ए-जदीद में क्या इस्लाम औरतों को उनकी आजादी घर से बाहर निकल कर काम करने की छूट देगा और कुरान ने उनको जो हक दिया है, क्या वह उनको पाने की हकदार है। इस बहस में शामिल ज्यादातर उलेमाओं का रवैया व नजरिया काबिल-ए-तारीफ ना रहा और इसकी एक बड़ी वजह खुद इस्लाम के उलेमाओं का रवैया रहा है। इस मामले में कुरान व इस्लाम की सही तसरीह ही नहीं करते।

कुछ लोगों ने दौर-ए-जदीद को इस्लाम के खिलाफ समझा लेकिन वह उलेमा भी सामने आए जो दौर-ए-जदीद को इस्लाम के खिलाफ नहीं समझते और वह इस बात की तह तक पहुंचे कि दौर-ए-जदीद इस्लाम के खिलाफ नहीं है। उलेमा की ऐसी किताबें सामने आयी जिनसे पढ़े-लिखे लोगों मे यह समझ पैदा हुई कि दौर-ए-जदीद की बुराइयां ही सब कुछ नहीं है बल्कि दौर जदीद दौर हकीकत में नए वसाईल नई तकनीक और नए मैकैनिजम के जरिए इंसानों की ंिजंदगी में सहुलियतें पैदा करता है। साथ ही मादरे में छुपी हुई बेपनाह कुवातों का इव्वतों को इस्तेमाल करने की तरीके नए दौर के इंसानों ने सीखे, तब तो हर घर में रौशनी आयी। इंसानों को कच्ची सड़कों से निजात मिली। बीमारियों पर काबू पाने के लिए चिकित्सा विज्ञान में इतनी तरक्की हुई, जिसका तस्सबुर नहीं किया जा सकता था। नई सबारियां हजारों किलोमीटर दूर रहने वाले इंसानों से राब्ता कायम करने के नए तरीके यह सब दौर-ए-जदीद की देन है।

मगर एक अफसोसनाक बात यह है कि लंबे अरसे तक दौर-ए-जदीद को अंग्रेजों की नफरत से जोड़ दिया गया और आजाद जिंदगी और मर्द व औरत की हद से बड़ी हुई मखलूख जिंदगी को दौर-ए-जदीद का हिस्सा समझ कर उसे समझाने की कोशिश भी नहीं की। मगर जैसे-जैसे असरी तालीम को हासिल करने वाले बढ़ते चले गए और असरी तालीम के तमाम फायदे हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए। यह एक फितरी मामला था कि बच्चों को जदीद स्कूल और काॅलेजों में तालिम दिलाने वालों की तादाद बढ़ती चली गयी। फिर वह वक्त भी आया जब पूरी एतिहात के साथ वालदेन ने अपनी बेटियों को भी जदीदी तालीम के लिए स्कूल और काॅलेजों में तालीम हासिल करने को जिंदगी की तरक्की का एक जरिया समझा। पहले माॅडन का लब्ज बोलने से ही बहसत होती थी जबकि उसका मतलब सिर्फ नई और जदीद चीजें थी। अब सब भूलकर हम आसानी से स्कूल काॅलेज और यूनिवर्सिटी की तालीम ले लेते हैं और किसी के दिमाग में भी नहीं आता कि इस प्रगतिशील तालीम की शुरुआत उन  लोगों ने की थी जो कभी हमारे दुश्मन थे।

हमें यह भी जहन में रखना चाहिए कि बड़ी तादाद मुसलमानों में अब भी ऐसी है जो जदीद तालीम से दूर है, जिसके लिए कई समाजी ताजीमें ऐसी हैं जो इस कोशिश में लगी हुई हैं कि मुस्लिम ख्वातीन के दिमाग से जदीद तालीम को गुमराही समझने का नुकसान खत्म हो और यह कोशिशें इतनी आगे बढ़ गयी हैं कि दीनी मदारिस के उलेमा भी खुद अपने स्कूल काॅलेज चला रहे हैं, जिसकी एक बड़ी मिसाल माॅलाम गुलाम अहमद दस्तानवी साहब की है, मशहूर आलिम हैं मगर वह स्कूल व काॅलेज भी चला रहे हैं। जहां लड़कियों के कयाम के लिए बच्छा हाॅस्टल भी फरहाम है। उम्मीद है कि जल्द ही वह वक्त आएगा जब लड़कों के साथ-साथ लड़कियां भी रिसर्च के दौर में दाखिल होंगी, जिसमें हमारी बेटियां बहुत पीछें हैं।

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