मनातू के मउआर को आप जानते हैं क्या?

गौतम चौधरी 

पहाड़, जंगल, गांव और समुद्री द्वीपों पर कुछ कहानियां यूं भटकती आत्मा की तरह घुमती रहती है। उन कहानियों में से कुछ भूत-प्रेत, डयन-चुड़ैल की कहानियां होती है, तो कुछ राजा-रानियों व जमीनदारों के रहस्य की कहानियां होती है। कुछ अधुरी प्रेम कहानियां भी होती है। उन कहानियों में झेपक और मिथक आदि की परंपरा अनादिकाल से चलती आ रही है। ये कहानियां नानी-दादी की जुवान से नई पीढी को हस्तांतरित होती है, या फिर गांव के किस्सागो उसे बड़े भावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करते हैं। ये कहानियां समाज में लंबे समय तक अपना स्वरूप बदल-बदल कर जिंदा रहती है। कभी-कभी उन कहानियों के पात्र सजीव हो उठते हैं और लोगों के सामने आ जाता है। वह पल बड़ा रोचक होता है और रोमांचक भी होता है। उन पात्रों को देखना, उसे समझने की कोशिश करना अपने आप में अद्भुद होता है। कभी-कभी उन पात्रों के साथ कहानियां न्याय नहीं करती है क्योंकि उस पात्रों के उपर चिपका दिया गया अलंकार उसे वास्तविक स्वरूप में आने ही नहीं देता है। इस प्रकार के अलंकरण, कहानीकारों के पूर्वाग्रह का नतीजा होता है। मसलन कहानी गढ़ने वाले अपनी प्रतिभा और व्यक्तित्व को समाज पर थोपने के लिए भी ऐसा करते हैं और निरीह पशु को आदमखोर बना देते हैं। 

खैर आज मैं कहानियों के इतिहास-भूगोल की मिमांशा के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ हूं। दरअसल, उन्हीं कहानियों में से किसी एक पात्र की वास्तविकता के मूल्यांकण को लेकर आपके सामने आया हूं।  विगत दिनों इतिहास के बटवृक्ष पर उलटे लटके रहस्यमय चमगादर की खोज में एक घने जंगल को खंगाल रहा था कि बोतल बंद जिन्न की तह कुछ खदबदाया। मेरे एक खास मित्र का फोन आया, उन्होंने बताया कि यदि आप कुछ खास देखना चाहते हैं तो मरे घर आ जाइए। मैं वहां पहुंच गया। यहां मुझे भटकती आत्मा की तरह रहस्यमयी कहानी का एक जिंदा पात्र मिल गया। कमाल हो गया! मनातू के मउआर! जनाव जगजीतेश्वर नारायण सिंह! कौन नहीं जानता इन्हें। एक जमाना था जब लोग मनातू के मउआर के नाम से ही कई रहस्यों की कहानियां खुद बुन लिया करते थे। उन दिनों अखबार, पत्र-पत्रिकाओं का दौर था और साम्यवाद के नए पौध जगह-जगह लगाए जा रहे थे। बिहार का खेत-खलिहान अन्न नहीं बारूद उगल रहा था। नक्सलबाड़ी की तपिस बिहार में कभी जंगल संथाल के नाम से जीवंत हो जाता था तो कभी विनोद मिश्रा के नाम से। कभी विनियन शर्मा की कहानियां चर्चा में आती थी तो भी आरा वाले मास्टर साहब के मिथक सामने आते थे। ये तमाम नक्सलवाड़ी के उपन्यास के पात्र थे और इनकी कहानियां समाज को उद्वेलित कर रही थी। उन्हीं दिनों की यह कहानी है। बाबू जगजीतेश्वर नारायण सिंह माने मनातू के मउआर, यानी मनातू के मालिक। 

यहां अब थोड़ा इतिहास को भी समझ लेना चाहिए। मउआर साहब के इतिहास को जानने के लिए थोड़ा भारत के राजनीतिक इतिहास का जिक्र करना जरूरी होगा। चुनांचे, जब मुगल भारत में आए तो उन्होंने अपने तरीके का एक साम्राज्य बनाया। बेशक वह आॅटोमन साम्राज्य का सांस्कृतिक विस्तार था लेकिन आलमगीर औरंगजेब तक आते-आते सल्तनत की ताकत दुनिया में स्थापित हो चुकी थी। वह खालिस हिन्दुस्तानी साम्राज्य बनकर उभरा था। जब भारत में फिरंगियों का पदार्पण हुआ तो वे अपने तरीके से हिन्दुस्तान को डिजाइन करने गले। मुगलों के विश्वस्थों पर दबाव बनाने लगे। कुछ को खरीद लिया और कुछ को ध्वस्त कर दिया। कुछ लड़ते-लड़ते खत्म हो गए और कुछ अंग्रेजों के लूट में साथ हो गए। मनातू के मउआर पारंपरिक रूप से मेदनीनगर के राजा आदरणीय मेदनी राय के खैरख्वाह थे। मुगलों के कहने पर मउआरों को 120 गांव की जमिंदारी दी गयी थी। यहां से मनातू मउआरों की कहानी प्रारंभ होती है। मउआर जगजीतेश्वर नारायण सिंह बताते हैं कि हमलोग चेरो राजवंश की सैन्य टुकड़ियों के मनसबदार थे। उन्होंने ही हमें जमिनदारी दी थी। हमारे पास 28 मील की परीधि का जंगल था, जिसके हम एक मात्र जमीनदार थे। सबकुछ ठीक था लेकिन भीषम बाबू ने हमें परेशान करने की कोशिश की। हालांकि मैं परेशान नहीं हुआ। जिन लोगों ने हमारे खिलाफ षड्यंत्र किया वे आज अच्छी स्थिति में नहीं हैं। एक का जवान बेटा मर गया और कई लोग अभी भी परेशानी में हैं। 

सात बेटे के पिता मउआर साहब की आयु अब 96 वर्ष की हो गयी है। छरहरी काया, गौड़ वर्ण धवल धोती में लिपटे हुए, उनी कुर्ता पर से उनी बंडी और उसके उपर से उनी चादर ओढ़े हुए मेज पर रखी हवाई गन को निहारते मउआर साहब मुझे मिले थे। उनके ठीक सामने उनका नाती अर्चित आनंद बैठे थे। आजकल मउआर साहब थोड़ा उंचा सुनते हैं। अर्चित जी ने कहा कि गौतम चौधरी जी पत्रकार हैं और आपही से मिलने आए हैं। हंसने गले और कहा, ‘‘आइए बैठए’’। मैंने मनातू मउआर के बारे में बहुत बढ़ा-सुना था। इनके उपर एक उपन्यास भी किसी ने लिखा है। उपन्यास में खलनायक की तरह इन्हें प्रस्तुत किया गया है। बिहारी पृष्ठभूमि के एक बड़े पत्रकार ने भी काफी कुछ लिखा। एक छोटी फिल्म भी बनी थी लेकिन रिलीज नहीं हो पायी। मउआर साहब पर 499 केस किए गए लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जाकर सारे केस धरासाई हो गए। इन्हीं कुछ बिन्दुओं को लेकर हमारी चर्चा प्रारंभ हुई। प्रश्न मेरे पास बहुत थे लेकिन समय की कमी थी। उन्होंने सारे प्रश्नों का जवाब दिया और कहने लगे। मैने जो किया उसका प्रतिफल मुझे प्राप्त हुआ। अब तो उन लोगों को भोगना है जिन्होंने मेरे खिलाफ षड्यंत्र किया। 

आज इतना ही अब कुछ खास बातें अगले एपिसोड में...............................!

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