सवालों के घेरे में है दो ध्रुवीय हो रहे विष्व में एक की तरफदारी
Gautam Chaudhary
इन दिनों लगातार प्रचार यह किया जा रहा है कि भारत के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका का जो हाल के दिनों में साजो-सामान आदान-प्रदान सहमति करार (एलईएमओए) हुआ है वह अपरिहार्य था और उसके अलावा भारत के पास और कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। यह भी प्रचारित किया रहा है कि चीन व पाकिस्तान की दोस्ती और उस दास्ती में रूस का तीसरा साझेदार बनकर उभरना, भारत के सामरिक हितों पर चोट पहुंचा रहा था। ऐसे में भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए एकमात्र रास्ता संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ का सैन्य समझौता ही बचता था और उस एक मात्र रास्ते को नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक सराकर ने अपनाया, जो सही समय पर लिया गया सही रणनीतिक फैसला है। इस फैसले को लेकर भारत के तमाम समाचार माध्यमों में माहौल भी बनाये जा रहे हैं। अंग्रेजी से लेकर तमाम भारतीय भाषाओं में आलेख लिखे जा रहे हैं। कुछ समर्थन में तो विरोध में, लेकिन उन आलेखों को बारीकी से पढने पर एक ही बात ध्यान में आती है कि यह तमाम उपक्रम भारत-अमेरिका सैन्य रणनीतिक समझौते को स्वीकार्यता प्रदान करवाने के अलावा और कुछ नहीं है।
यह समझैता भारत के लिए कितना हितकर है यह मामला तो है ही लेकिन यह समझौता खुद अमेरिका के लिए कितना गंभीर है उसे समझने की जरूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस समझौते के कांलांतर में गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़ सकते हैं। प्रचारित यह किया जा रहा है कि इस समझौते के बाद हम नाटो देषों से ज्यादा रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका के नजदीक हो गये हैं जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए पाकिस्तान उतना ही अहम है जितना आज से 10 साल पहले था। आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। अभी-अभी हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने बलूचिस्तान पर बयान दिया और कहा कि वहां की स्वतंत्रता की लड़ाई में भारत बलूचियों का सहयोग करेगा। दूसरे दिन ही अमेरिका हवाले से खबर आ गयी कि बलूचिस्तान पाकिस्तान का आंतरिक मामला है और हम उसमें किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान और चीन हमारे लिए दुष्मन राष्ट्र है। बावजूद उसके आज भी अमेरिका पाकिस्तान को सहायता पर सहायता दिए जा रहा है। अब यह कैसे भरोसा किया जाए कि विपरीत परिस्थिति में अमेरिका भारत का सहयोग करेगा।
दूसरी ओर तुर्की, सीरिया, मिश्र, इरान, इराक, इटली, फ्रांस, जर्मनी आदि देषों के रषियन खेमे में चले जाने के बाद से अमेरिका बुरी तरह घबड़ाया हुआ है। फिलिपिंस जैसे छोटे देषों में भी अमेरिका का प्रभाव कम होने लगा है। इस बीच दक्षिण चीन सागर का पंगा अलग से खड़ा हो गया है। दूसरा मोर्चा उत्तर कोरिया ने खोल दिया तो तीसरा मोर्चा रूस खेले हुए है। रूस का प्रभाव धीरे-धीरे ही सही बढने लगा है। एषिया में रूस और चीन की दोस्ती के कारण अमेरिकी प्रभाव कम होने लगा है। अमेरिका के दो प्रभावषाली दोस्त इजराइल और सउदी अरब दोनों अब रूस के सामने घुटने टेकने को मजबूर होने लगे हैं। यदि वे दोनों रूस के सामने घुटने ना टेकें तो आने वाले समय में इनकी अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर होगा और ये दोनों राष्ट्र व्यापारिक दृष्ट्रि से इतने संवेदनषील हैं कि अपने आर्थिक हितों की शर्तों पे अमेरिकी दोस्ती को बहुत दिनों तक कायम नहीं रख सकते हैं। इसलिए उन दोनों राष्ट्रों ने रूस के प्रति लचीला रूख अख्तियार करना प्रारंभ कर दिया है।
इस प्रकार की वैष्विक परिस्थिति में भारत अमेरिका के साथ रणनीतिक सैन्य समझौता करता है तो यह कितना खतरनाक साबित होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। रही बात चीन, पाकिस्तान और रूस के त्रिकोणीय संबंधों का, तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार अपने पहले दिन से ही अमेरिकी-परस्थ दिखने लगी थी। हथियारों के मामले में खरीदारी करना और बात है लेकिन अमेरिकी हितों के लिए विक्र्स जैसे आर्थिक-सामरिक-रणनीकि संगठनों को तीलांजलि देने की कोषिष करना स्वाभाविक रूप से हमारे पारंपरिक मित्रों को परेषान करेगा। यही कारण है कि रूस ने तीन से चार दषक बाद पाकिस्तान के साथ न केवल हथियार बेचने का समझौता किया अपितु सैन्य समझौता भी करने को मजबूर हुआ।
जब भारत को अमेरिका की जरूरत थी तब अमेरिका और उसके तमाम दोस्त, इजराइल को छोड़कर भारत के खिलाफ मोर्चा खेले रखा लेकिन अब दुनिया बिल्कुल बदल चुकी है। अमेरिका ताष के पत्तों की तरह ढहने लगा है। उसे पता है कि ऐसी परिस्थिति से उसे केवल और केवल भारत ही निकाल सकता है तब जाकर वह भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। लेकिन हमें अमेरिकी गलबहिया त्यागकर विष्व परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनानी चाहिए थी। लेकिन हमरे रणनीतिक योद्धा इस मोर्चो पर भी परास्त हुए और एक बार फिर से हम चैराहे पर आकर खड़े हो गये हैं। हालांकि जो लोग आज सत्ता में हैं उनपर भरोसा न करने का कोई तुक नहीं है लेकिन जो परिस्थितियां सामने है उसमें भारत को अपने पुरानी रणनीति पर कायम रहने की जरूरत है। अमेरिका के साथ दोस्ती तो बेहद जरूरी है लेकिन पारंपरिक मित्र राष्ट्रों की दोस्ती की शर्तों पर अमेरिकी दोस्ती को आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री बेहद समझदार हैं। उनके पास जो टीम है वह भी समझदार लोगों की है लेकिन दोध्रुवीय हो रहे विष्व में एक वैष्विक ताकत की पक्षकारी, सामरिक रणनीतिकारों की सोच पर सवाल जरूर खड़ा करती है।
इन दिनों लगातार प्रचार यह किया जा रहा है कि भारत के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका का जो हाल के दिनों में साजो-सामान आदान-प्रदान सहमति करार (एलईएमओए) हुआ है वह अपरिहार्य था और उसके अलावा भारत के पास और कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। यह भी प्रचारित किया रहा है कि चीन व पाकिस्तान की दोस्ती और उस दास्ती में रूस का तीसरा साझेदार बनकर उभरना, भारत के सामरिक हितों पर चोट पहुंचा रहा था। ऐसे में भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए एकमात्र रास्ता संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ का सैन्य समझौता ही बचता था और उस एक मात्र रास्ते को नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक सराकर ने अपनाया, जो सही समय पर लिया गया सही रणनीतिक फैसला है। इस फैसले को लेकर भारत के तमाम समाचार माध्यमों में माहौल भी बनाये जा रहे हैं। अंग्रेजी से लेकर तमाम भारतीय भाषाओं में आलेख लिखे जा रहे हैं। कुछ समर्थन में तो विरोध में, लेकिन उन आलेखों को बारीकी से पढने पर एक ही बात ध्यान में आती है कि यह तमाम उपक्रम भारत-अमेरिका सैन्य रणनीतिक समझौते को स्वीकार्यता प्रदान करवाने के अलावा और कुछ नहीं है।
यह समझैता भारत के लिए कितना हितकर है यह मामला तो है ही लेकिन यह समझौता खुद अमेरिका के लिए कितना गंभीर है उसे समझने की जरूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस समझौते के कांलांतर में गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़ सकते हैं। प्रचारित यह किया जा रहा है कि इस समझौते के बाद हम नाटो देषों से ज्यादा रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका के नजदीक हो गये हैं जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए पाकिस्तान उतना ही अहम है जितना आज से 10 साल पहले था। आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। अभी-अभी हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने बलूचिस्तान पर बयान दिया और कहा कि वहां की स्वतंत्रता की लड़ाई में भारत बलूचियों का सहयोग करेगा। दूसरे दिन ही अमेरिका हवाले से खबर आ गयी कि बलूचिस्तान पाकिस्तान का आंतरिक मामला है और हम उसमें किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान और चीन हमारे लिए दुष्मन राष्ट्र है। बावजूद उसके आज भी अमेरिका पाकिस्तान को सहायता पर सहायता दिए जा रहा है। अब यह कैसे भरोसा किया जाए कि विपरीत परिस्थिति में अमेरिका भारत का सहयोग करेगा।
दूसरी ओर तुर्की, सीरिया, मिश्र, इरान, इराक, इटली, फ्रांस, जर्मनी आदि देषों के रषियन खेमे में चले जाने के बाद से अमेरिका बुरी तरह घबड़ाया हुआ है। फिलिपिंस जैसे छोटे देषों में भी अमेरिका का प्रभाव कम होने लगा है। इस बीच दक्षिण चीन सागर का पंगा अलग से खड़ा हो गया है। दूसरा मोर्चा उत्तर कोरिया ने खोल दिया तो तीसरा मोर्चा रूस खेले हुए है। रूस का प्रभाव धीरे-धीरे ही सही बढने लगा है। एषिया में रूस और चीन की दोस्ती के कारण अमेरिकी प्रभाव कम होने लगा है। अमेरिका के दो प्रभावषाली दोस्त इजराइल और सउदी अरब दोनों अब रूस के सामने घुटने टेकने को मजबूर होने लगे हैं। यदि वे दोनों रूस के सामने घुटने ना टेकें तो आने वाले समय में इनकी अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर होगा और ये दोनों राष्ट्र व्यापारिक दृष्ट्रि से इतने संवेदनषील हैं कि अपने आर्थिक हितों की शर्तों पे अमेरिकी दोस्ती को बहुत दिनों तक कायम नहीं रख सकते हैं। इसलिए उन दोनों राष्ट्रों ने रूस के प्रति लचीला रूख अख्तियार करना प्रारंभ कर दिया है।
इस प्रकार की वैष्विक परिस्थिति में भारत अमेरिका के साथ रणनीतिक सैन्य समझौता करता है तो यह कितना खतरनाक साबित होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। रही बात चीन, पाकिस्तान और रूस के त्रिकोणीय संबंधों का, तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार अपने पहले दिन से ही अमेरिकी-परस्थ दिखने लगी थी। हथियारों के मामले में खरीदारी करना और बात है लेकिन अमेरिकी हितों के लिए विक्र्स जैसे आर्थिक-सामरिक-रणनीकि संगठनों को तीलांजलि देने की कोषिष करना स्वाभाविक रूप से हमारे पारंपरिक मित्रों को परेषान करेगा। यही कारण है कि रूस ने तीन से चार दषक बाद पाकिस्तान के साथ न केवल हथियार बेचने का समझौता किया अपितु सैन्य समझौता भी करने को मजबूर हुआ।
जब भारत को अमेरिका की जरूरत थी तब अमेरिका और उसके तमाम दोस्त, इजराइल को छोड़कर भारत के खिलाफ मोर्चा खेले रखा लेकिन अब दुनिया बिल्कुल बदल चुकी है। अमेरिका ताष के पत्तों की तरह ढहने लगा है। उसे पता है कि ऐसी परिस्थिति से उसे केवल और केवल भारत ही निकाल सकता है तब जाकर वह भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। लेकिन हमें अमेरिकी गलबहिया त्यागकर विष्व परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनानी चाहिए थी। लेकिन हमरे रणनीतिक योद्धा इस मोर्चो पर भी परास्त हुए और एक बार फिर से हम चैराहे पर आकर खड़े हो गये हैं। हालांकि जो लोग आज सत्ता में हैं उनपर भरोसा न करने का कोई तुक नहीं है लेकिन जो परिस्थितियां सामने है उसमें भारत को अपने पुरानी रणनीति पर कायम रहने की जरूरत है। अमेरिका के साथ दोस्ती तो बेहद जरूरी है लेकिन पारंपरिक मित्र राष्ट्रों की दोस्ती की शर्तों पर अमेरिकी दोस्ती को आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री बेहद समझदार हैं। उनके पास जो टीम है वह भी समझदार लोगों की है लेकिन दोध्रुवीय हो रहे विष्व में एक वैष्विक ताकत की पक्षकारी, सामरिक रणनीतिकारों की सोच पर सवाल जरूर खड़ा करती है।
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