घटने लगी है भाजपा की लोकप्रियता


गौतम चौधरी
छवि को बनाए रखने के लिए जल्द उठाने होंगे कदम
बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद भारतीय जनता पार्टी दो बड़े प्रदेशों, (उत्तर प्रदेश और गुजरात) के स्थानीय निकाय चुनाव में भी बेहद कमजोर प्रदर्शन कर पायी। हालांकि अपनी पीठ खुद थपथपाते हुए भाजपा अब यह कहती फिर रही है कि गुजरात में हुए छे महानगर पालिकाओं में से उसकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पायी लेकिन भाजपा यह बताने से कतरा रही है कि प्रदेश के पंचायतों में भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ बड़ी तेजी से घटा है। आंकड़ों पर ध्यान दें तो गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा का जनाधान बड़ी तेजी से गिरता दिख रहा है। याद रहे गुजरात भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी का गृह प्रांत ही नहीं कायदे से गुजरात भारतीय जनता पार्टी की प्रयोग भूमि भी है। अगर इस प्रांत में भाजपा की स्थिति कमजोर होती है तो नि:संदेह भाजपा को यह मान लेना चाहिए कि उसकी नीतियों और कार्यशैली में कही न कही कोई चूक है जिसके कारण वह अपने प्रयोग भूमि पर ही मात खाने की स्थिति में पहुंच गयी है। हालांकि यह स्थानीय निकाय का चुनाव है। ऐसे चुनावों में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं। अमूमन आम धारणा है कि स्थानीय निकाय चुनाव का प्रभाव न तो विधानसभा चुनाव पर पड़ता है और न ही यह संसदीय चुनाव पर कोई छाप छोड़ पाता है। इन सारी बातों पर विश्वास करना स्वाभाविक है क्योंकि ऐसे कई उदाहरण हमारे पास हैं जो इन तथ्यों को पुष्ट करता है लेकिन गुजरात के स्थानीय चुनाव को भाजपा हल्के में नहीं ले सकती है। मसलन जिन क्षेत्रों में भाजपा का आधार मजबूत रहा है उन्ही क्षेत्रों में भाजपा स्थानीय निकाय चुनाव हारी है। 

यही नहीं भाजपा उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में भी बढिया प्रदर्शन नहीं कर पायी है। हालांकि इस चुनाव में उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन भी अच्छा नहीं रहा है जबकि विगत लोकसभा चुनाव में इसी प्रदेश ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को 73 संसदीय सीट पर जिता दिया था। इस मामले को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को गहराई से जानने वाले पी. एन. द्विवेदी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश का स्थानीय निकाय चुनाव एक तो पार्टी सिंबॉल पर नहीं लड़ा जाता है, दूसरी बात यह है कि इस चुनाव को लेकर भाजपा बहुत संगठित तरीके से मैदान में नहीं उतरी थी और तीसरी बात उन्होंने यह बताया कि चूकी भाजपा के समर्थक आपस में ही लड़ गये, यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा समर्थक ज्यादातर स्थानों पर चुनाव हार गये। द्विवेदी का कहना है कि अगर भाजपा आसन्न विधानसभा चुनाव में भी बिहार वाली रणनीति अपनाई और स्थानीय लोगों को महत्व न देकर बाहरी लोगों को चुनाव प्रबंधन का कार्य सौंपी तो उत्तर प्रदेश में भी बिहार वाली स्थिति ही होगी। 

इधर गुजरात के बारे में प्रेक्षकों का अनुमान थोड़ा भिन्न है। एक तो भाजपा लम्बे समय से गुजरात में राज कर रही है। दूसरी बात नरेन्द्र मोदी के गुजरात छोड़ने के बाद जो खाली स्थान बना था उसे आनंदी बेन पटेल भर नहीं पा रही है। हालांकि गुजरात में आनंदी बेन पटेल के अलावा भी कई बड़े नेता हैं लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर उन नेताओं को मौका नहीं दिया गया। सांगठनिक और प्रशासनिक दृष्टि से आनंदी बेन बेहद कम योग्यता रखती है फिर भी उन्हें गुजरात की कमान सौंप दी गयी। ऐसा बताया जा रहा है कि इसके कारण गुजरात भाजपा के अंदर भारी रोष है और विगत दिनों गुजरात में जो पटेल आरक्षण आन्दोलन चलाया गया उसके पीछे भाजपा का आंतरिक कलह ही जिम्मेबार है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि गुजरात में पटेल समुदाय के लोग पारंपरिक रूप से भाजपा के पक्षधर रहे हैं। पटेल समुदाय की संख्या गुजरात के कुल जनसंख्या का लगभग 22 प्रतिशत है। पहले गुजरात में दरवार यानि राजपूतों का दबदवा था। बाद के कालखंड में पटेलों ने राजपूतों को हाशिये पर ढकेल दिया और खुद राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाने लगे। मोरारजी भाई देसाई के मुख्यमंत्रित्व काल में जब भूमि सुधार कानून बना तो इस कानून के कारण पटेलों को बहुत फायदा हुआ और पटेल जमीन के मालिक हो गये, जबकि पहले वे पट्टे पर जमीन लेकर जोतते थे यानि वे पट्टेदार होते थे यही कारण है कि पटेलों को पट्टेदार भी कहा जाता है। इस परिवर्तन के कारण पटेलों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो गयी। गुजरात में राजपूतों की संख्या 14 प्रतिशत के आस-पास है। राजपूत पारंपरिक रूप से सत्ता के साथ जुड़े रहे हैं। विगत कई वर्षो से राजपूत जाति के लोग कांग्रेस के साथ हैं। यदि ऐसा कहा जाये कि राजपूत कांग्रेस के साथ हैं और पटेल भाजपा के साथ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

विगत 25 सालों में गुजरात की सामाजिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन आ गया है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अब राजपूत और पटेल लगभग एक जैसे हो गये हैं। दूसरी ओर मोदी के शासन काल में जितना विकास गुजरात के व्यापारियों का हुआ है उतना विकास किसी का नहीं हुआ है। यह बात पटेल एवं राजपूत दोनों को पच नहीं रहा है। अब ये दोनों प्रभावशाली जातियां एक मंच पर आकर भाजपा के खिलाफ खड़ी होने लगी है। गुजरात में हालिया संपन्न स्थानीय निकाय चुनाव के परिणामों को देखकर ऐसा लगता है कि इस बार समाजिक रूप से बटे दो प्रभावशाली जातियों ने आपस में हाथ मिला दिया है। इसका संकेत मैंने पहले भी एक आलेख में दिया था। यदि आने वाले समय में पटेल और राजपूत एक होकर सामाजिक और राजनीतिक गठबंधन बना लेते हैं तो यह गुजरात की राजनीति के लिए एक नये युग की शुरूआत होगी। गुजरात में आजतक राजपूत और पटेल एक मंच पर कभी नहीं आए। कांग्रेस के नेता और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने गुजरात में कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए, ‘खाम’ यानि (अट) समीकरण बनाया था। यह समीकरण क्षत्रीय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं मुस्लिमों का था। इसके आधार पर गुजरात में सोलंकी अजये माने जाते थे। इस समीकरण के जवाब में भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों ने पटेलों को अपने साथ लिया और भाजपा पटेल, वैष्य एवं ब्राह्मणों का समीकरण बनाई। जब गुजरात की कमान नरेन्द्र भाई के हाथ में आया तो उन्होंने आदिवासी एवं अनुसूचित जाति को अपने साथ जोड़ लिया। भाजपा का यह समीकरण कांग्रेस, खासकर माधव सिंह सोलंकी के ‘खाम’ समीकरण पर भारी पड़ा और गुजरात में आजतक भाजपा कांग्रेस के लिए अभेद्य बनी हुई है। लेकिन अब भाजपा का समीकरण दरकने लगा है। भाजपा के पारंपरिक मतदाता, पटेल अब अपने हितों के लिए अन्य राजनीतिक विकल्प की तलाश करने लगे हैं। राजपूत पहले से कांग्रेस के साथ है। चाहे जो कह लें लेकिन गुजरात के 09 प्रतिशत मुस्लमानों का भाजपा के साथ आना अभी भी संभव नहीं दिख रहा है। गुजरात में जिस रणनीति पर कांग्रेस काम कर रही है अगर वह इसी रणनीति पर चलती रही तो अगले विधानसभा चुनाव में गुजरात का बिहार के रास्ते जाना तय है। 

संपन्न स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस को अपार समर्थन मिला है। गुजरात में कुल 182 विधानसभा का क्षेत्र है, जिसमें से 116 विधानसभा क्षेत्रों के पंचायत पर कांग्रेस समर्थकों ने बाजी मारी है। इस बार 31 जिला परिषदें में से कांग्रेस 22 पर विजयी रही। फिलहाल कांग्रेस के पास 60 विधानसभा की सीटें है, जबकि भाजपा का 116 विधानसभा क्षेत्र पर कब्जा है। याद रहे कि अभी-अभी लगभग दो साल पहले संपन्न लोकसभा के आम चुनाव में गुजरात के सभी 26 संसदीय सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी लेकिन स्थानीय निकाय चुनाव में 17 लोसभा क्षेत्र में भाजपा समर्थक उम्मीदवार स्थानीय निकाय का चुनाव हार गये हैं। 

यही नहीं मध्य प्रदेश के उप चुनाव में भी भाजपा को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा है। ऐसे में भाजपा वाले चाहे जो कह लें लेकिन कायदे से देखें तो विगत दो सालों में न केवल भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता घटी है अपितु भाजपा को अजेय बहुमत से सत्ता दिलाने वाले नरेन्द्र मोदी की भी लोकप्रियता में कमी आयी है। इसका उदाहरण बिहार का विधानसभा चुनाव है। इसके बाद स्थानीय निकाय चुनाव में यदि केवल उत्तर प्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन नकारात्मक होता तो उसे स्थानीय मुद्दा मान लिया जाता लेकिन गुजरात में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है। 

भाजपा की लोकप्रियता में आयी कमी को हर कोई अपने अपने कसौटी पर कस रहा है। कुछ का कहना है कि असहिष्णुता ने पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाया है। कुछ लोगों का कहना है कि सरकार की क्रूर पूंजीवादी सोच ने भाजपा की छवि को बट्टा लगाया है और कुछ चिंतकों का यह कहना है कि भाजपा अपने वादों और सिद्धांतों से भटक गयी है। यही कारण है कि भाजपा की छवि अब लोगों को नकारात्मक दिखने लगा है। ये जो अवधारणा बनी है उसमें से कौन सा सही है और कौन गलत है, यह बता पाना संभव नहीं है लेकिन इसमें कही कोई संदेह नहीं है कि भाजपा की लोकप्रियता में कमी आयी है। बीमारी कहां है और उसका समाधान क्या होगा, इसपर भाजपा को अभी से सोचना होगा। यदि इस मामले को भाजपा हल्के में ली तो भाहपा को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी।

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