चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली इत्यादि प्रांतों के मशहूर शायद, श्री शम्स तबरेजी, यहां पर होने वाली हर महफिल की जान हैं और कोई भी शा-ए-गजल उनकी निजामत के बगैर पूरी नहीं हो सकती। वे हरियाणा सरकार से फारिग होने के बाद उर्दू अदब की सेवा पूरी शिद्दत के साथ कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने अपने द्वारा लिखी हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के उपर एक नज्म मुझे भेजी जो आपकी नजर कर रहा हूं। हिन्दुस्तान के हम सब प्यारे, हिन्दुस्तान हमाराा है। एक नहीं सौ बार, हमारा दुश्मन हमसे हारा है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, इस माटी के फूल, जिसने भी नफरत फैलाई, उसने चाटी धूल। यहां पे नानक, यहां पे चिश्ती, यहीं पे हैं श्री राम, यहीं पे मिल जाएंगे, सारे धर्मों के सब धाम। हम हैं गंगा-जमुनी, हम हैं सारे प्रकार, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, सबके सब असरदार। यहां मराठे, कश्मीरी, गुजराती एक समान, यहां पे बंगाली, द्रविड़ सब रखते अपना मान। इसीलिए इसको स्वर्ग से सुंदर कहते सब, दुआ है भारत की धरती को जिंदा रखे रब। - शम्स तबरेजी
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हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत
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रजनी राणा चौधरी सच पूछिए तो वर्तमान भारतीय संस्कृति भारत में उत्पन्न मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन एवं ईरान में प्रचलित सूफीवाद का फ्यूजन है। हम जो भी आज सांस्कृतक रूप से देख रहे हैं बस उसी दो धार्मिक चिंतनों के ईर्द-गीर्द घूमता नजर आता है। हमारे देश की संस्कृति को कई संत-फकीरों ने प्रभावित किया है। संत तथा फकीर देश में मिश्रित सांस्कति व साप्रदायिक सदभावना फैलाने अहम भूमिका निभाई है। संत, फकीर, सूफी इत्यादि अपनी शिक्षाओं द्वारा देश के हर नुक्कड़ और कोने में हमारी मिश्रित संस्कृति तथा सहअस्तित्व के समीकरण को कायम रखने व इसे विभिन्न धर्मों को मानने वालों के दरम्यान मजबूत करने का कार्य कर रहे हैं। इससे उनमें परस्पर प्रेम, संम्मान आत्मसात करने वाले संबंध तथा सर्व शक्तिमान के एकत्व की भावना को प्रसारित किया जा सके। मध्यकालीन भारत में ऐसे दो संतों का नाम आता है, जिन्होंने पूर्वोत्तर में भारतीय संस्कृति को मजबूत करने का कम किया। दो नामबर व्यक्तित्व के स्वामी शंकर देव व अजान फकीर जी ने अपना पूरा जीवन असम में शांति व सांप्रदायिक सदभावना फैलाने में लगा दिया। इन दोनों ने ही बगैर धार्म
आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार
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Gautam Chaudhary नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने सवर्ण यानी सामान्य वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों, सरकारी एवं निजी शैक्षणिक संस्थाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाला विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित करा दी। निःसंदेह इस विधेयक को पारित करा कर प्रधानमंत्री मोदी ने दुःसाहश का परिचय दिया है। इस विधेयक का क्या होगा इसपर संशय बरकरार है लेकिन सरकार ने अपनी ओर से यह संकेत दे दिया है कि वह सवर्णों के हितों के लिए भी चिंतित है। हालांकि नरेन्द्र मोदी सरकर का यह निर्णय अप्रत्याशित नहीं है। इसकी उम्मीद पहले से थी। क्योंकि जिस प्राकर पूरे देश में मोदी सरकार के प्रति मध्यम एवं निम्न-मध्यम आय वर्ग के मतदाताओं का मोह भंग हो रहा है, उससे सरकार के रणनीतिकार बेहद वेचैन दिख रहे हैं। इसकी प्रतिछाया भी दिख गयी। मसलन तीन हिन्दी भाषी राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सत्ता से बेदखल हो गयी। भाजपा इसके कारण बेहद दबाव महसूस कर रही है। भाजपा और सरकार इस दबाव से उबरने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाएंगे, इसका एहसास पहले से था। इसलिए इस निर्णय को प्रत्याशित बिल्कुल नहीं कहा जा सकता