हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत


रजनी राणा चौधरी  

सच पूछिए तो वर्तमान भारतीय संस्कृति भारत में उत्पन्न मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन एवं ईरान में प्रचलित सूफीवाद का फ्यूजन है। हम जो भी आज सांस्कृतक रूप से देख रहे हैं बस उसी दो धार्मिक चिंतनों के ईर्द-गीर्द घूमता नजर आता है। हमारे देश की संस्कृति को कई संत-फकीरों ने प्रभावित किया है। संत तथा फकीर देश में मिश्रित सांस्कति व साप्रदायिक सदभावना फैलाने अहम भूमिका निभाई है। 

संत, फकीर, सूफी इत्यादि अपनी शिक्षाओं द्वारा देश के हर नुक्कड़ और कोने में हमारी मिश्रित संस्कृति तथा सहअस्तित्व के समीकरण को कायम रखने व इसे विभिन्न धर्मों को मानने वालों के दरम्यान मजबूत करने का कार्य कर रहे हैं। इससे उनमें परस्पर प्रेम, संम्मान आत्मसात करने वाले संबंध तथा सर्व शक्तिमान के एकत्व की भावना को प्रसारित किया जा सके। मध्यकालीन भारत में ऐसे दो संतों का नाम आता है, जिन्होंने पूर्वोत्तर में भारतीय संस्कृति को मजबूत करने का कम किया। दो नामबर व्यक्तित्व के स्वामी शंकर देव व अजान फकीर जी ने अपना पूरा जीवन असम में शांति व सांप्रदायिक सदभावना फैलाने में लगा दिया। इन दोनों ने ही बगैर धार्मिक भेद-भाव के ईश्वर तथा इंसान को जोड़ने पर जोड़ दिया। इसके लिए एक कशिश बलिदान तथा परस्पर निर्भरता की जरूरत पड़ती है। 

अब यह असमियों की संस्कृति व समाज का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। प्रार्थणा सभाओं के लिए नियत नामघर, जिनकी स्थापना शंकर देव तथा विभिन्न दरगाहों के सूफी व फकीरों ने की थी, के दरवाजे, हिन्दू व मुसलमनों दोनों के लिए खुले हैं। इसी प्रकार इन दोनों समुदायों के लोग सामूहिक तौर पर सरस्वती पूजा, दूर्गा पूजा, ईद, मोहर्रम तथा बीहू इत्यादि त्योहार, धार्मिक सीमाओं से उपर उठकर मनाते हैं। इस बात से यह साबित होता है कि मनुष्य ईश्वर की रचना है, जबकि धर्म मानव की देन है तथा मानवता सर्वोच्च धर्म है। 

जिस प्रकार मध्य कालीन भारत में संत और फकीरों ने हमारी संस्कृति को समृद्ध बनाया उसी प्रकार आधुनिक समय में भी हमारे कुछ संत और विद्वान समारी बहुलतावादी संस्कृति को समृद्ध करने में लगे हैं। हम आज दो सांस्कृतिक पुरोधाओं की चर्चा करने वाले हैं। एक हैं संस्कृत के विद्वान तथा चार वेदों के ज्ञाता हयातुल्ला तथा दूसरे हैं सहनाई वादक विस्मिल्लाह खान साहब। इन दोनों में मजहबी सहिष्णुता जबदस्त दिखती है। विस्मिल्ला साहब तो नहीं रहे लेकिन हयातुल्ला चतुर्वेदी साहब जिंदा हैं। 

उत्तर प्रदेश के जिला कोशंबी, स्थित गांव चिट्टा हरायपुर के निवासी हयातुल्ला, एमआर शेरवानी इंटर काॅलेज इलाहाबाद से सेवा निवृत हुए हैं। वे पांच वक्त के नमाजी हैं। हयातुल्ला साहब ना सिर्फ संस्कृत में महारथ हासिल की है बल्कि वे वेदों के भी ज्ञाता हैं। इसके कारण उन्हें चतुर्वेदी की उपाधि मिली है। उन्होंने संस्कृत भाषा में अनेकों पुस्तकें लिखी है तथा इसे सीखने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त में ट्यूशन भी पढ़ाते हैं। उनका यह मानना है कि भाषा लोगों को आपस में बांधने का एक ऐसा माध्यम है, जिसे किसी धार्मिक परिधि में बांधा नहीं जा सकता है। वे वेदों और पवित्र कुरान को समान रूप से सम्मान देते हैं। 

उसी प्राकार काशी, भोलेनाथ तथा गंगा को सर्मित, संगीत संम्राट उस्ताद विस्मिल्लाह खान साहब थे। उनका जन्म बिहार के दुमारों राजमहल से जुड़े संगीतकारों के परिवार में 21 मार्च 1916 को हुआ था। उन्होंने आगे चलकर सहनाई जैसे वाद्ययंत्र को दुनियाभर में ख्याति दिलाने में अभूतपूर्व कार्य किया। जन्म के समय उनका नाम कमरूद्दी रखा गया था लेकिन उनके दादा जी ने उनका नाम विस्मिल्लाह रख दिया। कुछ समय बाद वे अपने चाचा विलांयतू खान के साथ काशी चले गए, जहां वे विश्वनाथ मंदिर में सहनाई वादक के तौर पर जुड़ गए। 

उस्ताद ने अपने जीवन काल के दौरान, संगीत सभाओं में भाग लिया। 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने पर लालकिले पर तथा 26 जनवरी 1950 को भारत का गणतंत्र राष्ट्र बनने के महत्वपूर्ण अवसरों पर अपनी कला का प्रदर्शन किया। उन्होंने अनेकों फिल्मों में संगीत भी दिया तथा भारत रत्न जैसे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार के अलावा अनेकों बड़े-बड़े पुरस्कार जीते। 21 अगस्त 2006 को उनका निधन हो गया लेकिन वे गंगा और काशी विश्वनाथ के साथ जबरस्त तरीके से जुड़े थे। 

विस्मिल्लाह खान मुसलमान थे लेकिन उनके गुरू प्रख्यात हिन्दू संत प्रेम रावत थे। ऐसा उदाहरण मैं समझता हूं दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा। उन्होंने पांच पुत्रों के पिता होने के बावजूद एक हिन्दू बंगाली लड़की, सोमा घाष को गोद लिया। वे बहुत ही साधारण आदमी की तरह जीवन बिताया। करुणामयी और फकीरी सोच के इंसान विस्मिल्लाह खान साहब भारतीय साम्प्रदायिक सदभाव के प्रतीक के रूप में याद किए जाते रहेंगे। वे समिश्रित संस्कृति के प्रति वचनबद्ध थे। वे हृदय व आत्मा से अपने पवित्रतम धाम काशी से जुड़े हुए थे और विश्वनाथ मंदिर से मार्गदर्शन प्राप्त करते थे तथा मां गंगा से उन्हें प्रेरणा मिलती थी। एक बार उन्होंने एक अमेरिकी राजनीतिज्ञ द्वारा, सभी सरकारी सुख-सुविधाओं के साथ अमेरिका में आ बसने की पेशकश यह कहकर ठुकरा दी कि क्या वहां गंगा व भगवान शिव मिल सकते हैं? उस्ताद जैसे महान संगीतकार को भारतीय इतिहास में धार्मिक सीमाओं को लांघते हुए उनकी मनुष्यों के प्रति आंतरिक समर्पण की भावना के लिए सदा ही याद किया जाएगा। आधुनिक भारत में ऐसे कई विभूति हैं जिन्हें जानने और समझने की जरूरत है। यह हमारी ताकत है और हमारी सांस्कृतिक संमृद्धि का प्रतीक भी है। 

इसलिए हमारी संमृद्ध सांस्कृतिक धरोहरों पर हमारे संत फकीरों का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। हमें इस परंपरा को आगे बढ़ाना पड़ेगा तभी हम दुनिया के सामने प्रभावशाली तरीके से खड़े रह सकते हैं। 

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