आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार


Gautam Chaudhary

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने सवर्ण यानी सामान्य वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों, सरकारी एवं निजी शैक्षणिक संस्थाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाला विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित करा दी। निःसंदेह इस विधेयक को पारित करा कर प्रधानमंत्री मोदी ने दुःसाहश का परिचय दिया है। इस विधेयक का क्या होगा इसपर संशय बरकरार है लेकिन सरकार ने अपनी ओर से यह संकेत दे दिया है कि वह सवर्णों के हितों के लिए भी चिंतित है।

हालांकि नरेन्द्र मोदी सरकर का यह निर्णय अप्रत्याशित नहीं है। इसकी उम्मीद पहले से थी। क्योंकि जिस प्राकर पूरे देश में मोदी सरकार के प्रति मध्यम एवं निम्न-मध्यम आय वर्ग के मतदाताओं का मोह भंग हो रहा है, उससे सरकार के रणनीतिकार बेहद वेचैन दिख रहे हैं। इसकी प्रतिछाया भी दिख गयी। मसलन तीन हिन्दी भाषी राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सत्ता से बेदखल हो गयी। भाजपा इसके कारण बेहद दबाव महसूस कर रही है। भाजपा और सरकार इस दबाव से उबरने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाएंगे, इसका एहसास पहले से था। इसलिए इस निर्णय को प्रत्याशित बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है। इस अवसाद से उबरने के लिए मोदी सरकार इस प्रकार के कई निर्णय और ले सकती है। हांलोकि अब इस निर्णय के निफा-नुकसान पर भी चर्चा होने लगी है। जो सवर्ण इस निर्णय की घोषणा के साथ खुश दिख रहे थे, उनके चेहरे पर चमक धीरे-धीरे कम हो रही है। वे गंभीरता से विचार करने लगे हैं। वे सोचने लगे हैं कि आखिर इस 10 प्रतिशत आरक्षण से सचमुच उनका हित सध जाएगा?

प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है। मोदी सरकार ने साढे 49 प्रतिषत आरक्षण में से कोई कटौती नहीं की है। अलग से 10 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण दिया है। एक तो यह आरक्षण का स्वरूप अभी से विवादों में घिर गया है। दूसरा सामान्य वर्ग के लोगों में यह भी संदेश जा रहा है कि इस वर्ग के अभ्यार्थियों को तो ऐसे ही 50 प्रतिशत का लाभ मिल रहा था उसमें से अब 10 प्रतिशत की कटौती हो जाएगी और उसका लाभ प्रतिभावान छात्रों को न मिलकर सामान्य दिमाग वालों को मिलेगा। दूसरी ओर जो प्रतिभावान छात्र गरीब हैं उनके लिए केवल 10 प्रतिशत का ही विकल्प बच जाएगा। इसके अलावा सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों की परिभाषा में भी झोल है। हालांकि विधेयक के पास होते ही मामला कोर्ट में चला गया है। वहां क्या हागा कहा नहीं जा सकता लेकिन आरक्षण नीति में कई प्रकार की विसंगतियां साफ दिखने लगी है।

कुल मिलाकर दखें तो सरकार का यह निर्णय जल्दबाजी में लिया गया निर्णय है, जो साफ तौर पर चुनावी निर्णय दिख रहा है। इस मामले में सरकार की मंशा साफ होती तो केन्द्र सरकार, बिहार की नीतीश कुमार की सरकार की नीतियों पर अमल करती। आपको बता दें कि देश में पहला राज्य बिहार है, जिसने सवर्ण आयोग का गठन किया था। हालांकि उस आयोग की रिपोर्ट ठंढे बस्ते में डाल दी गयी लेकिन यह नीतीश कुमार की प्रगतिशील सोच का परिचार है। उस आयोग की रिपोर्ट में कई चैकाने वाले तथ्यों का जिक्र किया गया है। जनवरी 2011 में नीतीश सरकार ने हिन्दू और मुस्लिमों की सवर्ण जातियों के शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति के आकलन के लिए सवर्ण आयोग का गठन किया था। न्यायाधीश डी के त्रिवेदी को इसका अध्यक्ष, कृष्ण प्रसाद सिंह को उपाध्यक्ष और नरेंद्र प्रसाद सिंह, फरहत अब्बास एवं रिपुसुदन श्रीवास्तव को सदस्य बनाया गया था। आयोग ने बिहार के 38 में से 20 जिलों में ऊंची जातियों की शैक्षणिक व आर्थिक स्थितियों का सर्वेक्षण किया था। आयोग ने हिंदुओं में ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ जातियों तथा मुसलमानों की शेख, सैयद और पठान के शैक्षणिक व आर्थिक हालातों का जायजा लिया था। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि सवर्णों के आर्थिक हालात बेहद खराब हैं।

आयोग की अन्य सिफारिशों को लागू करने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई थी। 2011 में प्रदेश सरकार ने आयोग की रिपोर्ट के बाद घोषणा की थी कि सालाना डेढ़ लाख रुपये से कम आमदनी वाले सवर्ण जाति के परिवारों के जो बच्चे प्रथम श्रेणी में दसवीं की परीक्षा पास करेंगे उन्हें दस हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि दी जाएगी। कक्षा एक से लेकर 10वीं तक के बच्चों को छात्रवृत्ति देने की भी घोषणा भी की गयी थी।

आयोग की रिपोर्ट ने साफ किया था कि अगड़ी जातियों की बड़ी आबादी को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। हिन्दू व मुसलमानों की अगड़ी जातियों में काम करनेवाली कुल आबादी की 25 फीसदी जनसंख्या रोजगार से वंचित और आर्थिक तंगी की चपेट में हैं। हिंदुओं में सबसे अधिक बेरोजगारी भूमिहारों में है। इस जाति के औसतन 11.8 फीसदी लोगों के पास रोजगार नहीं हैं।

आंकड़ों के मुताबिक, सवर्ण जाति का 56.3 फीसदी हिस्सा तनख्वाह व मजदूरी पर निर्भर है। ग्रामीण इलाकों में हिंदू सवर्णों की 34 फीसदी जनसंख्या के पास कोई नियमित आमदनी का जरिया नहीं है, जबकि मुसलमान सवर्णों के 58 फीसदी लोग नियमित आमदनी से वंचित हैं।

ग्रामीण बिहार में गरीबी के कारण ऊंची जाति के 49 फीसदी हिंदू और 61 फीसदी मुस्लिम स्कूल व कॉलेज नहीं जा पाते। हिंदुओं में अगड़ी जातियों में हायर सेकेंडरी तक की शिक्षा ग्रहण करने वाली ग्रामीण आबादी महज 36 फीसदी है, जबकि मुसलमानों में यह सिर्फ 15 फीसदी है। आयोग की रिपोर्ट में साफ तौर पर लिखा गया था कि बिहार में चार सवर्ण जातियों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी भूमिहारों में है। आपको बता दें यह ऐसी जाति है जिसे सामंती और भूमिपति जाति की संज्ञा दी जाती रही है। कमोबेस पूरे देश के सवर्ण जातियों की यही स्थिति है।
यदि नरेन्द्र मोदी सरकार सवर्णों के कल्याण के लिए सचमुच चिंतित होती तो उसे सर्व प्रथम पिछड़ी जाति आयोग की तरह सवर्ण आयोग का गठन करना चाहिए। इस आयोग को संवैधानिक मान्यता दिलाकर आयोग को नौवी सूचि में डालना चाहिए था। यह आयोग पूर्ण रूप से काम करती और अपने ढंग से स्वतंत्र निर्णय लेती। साथ ही समय-समय पर सवर्णों के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों का जायजा लेकर केन्द्र सरकार को अवगत भी कराती। इसलिए का सवर्ण आरक्षण वाला फैसला पूरे तौर पर राजनीतिक फसला दिख रहा है।
वैसे जिस प्राकर से देश में किसानों के हालात खराब हो रहे हैं वैसे में खेती से जुड़ी जातियां हासिए पर ढकेली जा रही है। इन जातियों में से जिन्हें आरक्षण के दायरे में ला दिया गया है वे जातियां थोड़ी ठीक स्थिति में है लेकिन जनके पास आरक्षण नहीं है उनकी स्थिति खराब होती जा रहा है। जैसे-जाट, गुजर, पटेल, पाटिल, मराठे, भूमिहार, त्यागी, राजपूत आदि जातियां खेती पर आधारित अपना जीवन यापन करती थी लेकिन अब खेती की स्थिति खराब हो गयी है। इसलिए अब उनके सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है। इन जातियों को उबारने के लिए सरकार को खेती में व्यापक निवेश करने की जरूरत है लेकिन बड़े व्यापारियों के दबाव में सरकार खेती की लगातर उपेक्षा कर रही है। यह दो तरफा संकट पैदा कर रहा है। जिस प्राकर डाॅ. मनमोहीन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने मनरेगा जैसी लोक कल्याण कारी योजना चलाकर मजदूरों को आर्थिक संवल प्रदान किया उसी प्रकार नरेन्द्र मोदी सरकार को किसानों के हितों के लिए व्यापक योजना बनानी चाहिए। आरक्षण कोई समाधान नहीं है।

हमारे देश में जो शिक्षा व्यवस्था है वह भी हमें बेरोजगार बना रही है। हमारी सरकार को चाहिए कि वह मन से कृषि क्षेत्र पर ध्यान दे और बिना किसी राजनीति के लोगों में स्किल विकसित करने का प्रयास करे। इससे लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलेगा।

कायदे से देखें तो सरकार नौकरियां कम होती जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि केवल केन्द्र सरकार के सभी विभाग को मिलाकर 40 लाख पद खाली हैं। उन पदों में से कुछ पर ठेके पर कर्मचारी रखे जा रहे हैं। उसी प्रकार विभिन्न राज्य सरकारों में भी बड़े पैमाने पर पद रिक्त हैं। सरकारी कंपनियों को औन-पौन दामों में बेचा जा रहा है। जो कंपनियां सरकार को कमा कर दे रही है उसके शेयर भी बेचे जा रहे हैं। ऐसे में सरकार के पास प्रशासनिक नौकरियों के अलवा और कोई नौकरी बचने वाली नहीं है। आने वाले समय में सेना का भी आकार छोटा होगा और पारा अर्ध सैनिक बलों में भी रोजगार कम होते जाएंगे। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था बेहद अतार्किक है। हालांकि पूर्ण रूप से आरक्षण हटाना वर्तमान राजनीतिक ढंचे में संभव नहीं है लेकिन आज न कल इसे हटाना ही पड़ेगा। दूसरी बात रोजगार के लिए यदि आरक्षण दिया जा रहा है तो यह बहुत दिनों तक नहीं चलेगा। इसलिए इस मामले में सरकार को बिना किसी राजनीति के तसल्ली से रोजगार के मामले में व्यापक योजना बनानी चाहिए।

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