लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करना सीखे केन्द्र सरकार

गौतम चौधरी
यह हरीश की जीत नहीं भाजपा की पराजय है
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 06 मई को दिए गए आदेश के अनुसार 10 मई को उत्तराखंड विधानसभा में शक्ति परीक्षण हुआ, जिसकी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख कल पेश हुआ और उसमें न्याय की सर्वोच्च पंचायत ने साफ शब्दों में कह दिया कि हरीश रावत सरकार के पास पूर्ण बहुमत है, वे सरकार चलाने के लिए योज्ञ हैं। जानकारी के अनुसार कांग्रेस को तीन निर्दलीय और उत्तराखंड क्रांति दल के एक विधायक का समर्थन मिला। सुना है कि हरीश रावत ने बहुमत परीक्षण के बाद देवी-देवताओं को धन्यवाद दिया। यह रावत की आस्तिकता को परिलक्षित करता है। रावत को 33 विधायकों का समर्थन मिला जबकि भारतीय जनता पार्टी को मात्र 28 विधायकों का समर्थन मिल पाया। यह आंकड़ा बहुमत के लिए जरूरी संख्या 31 से दो अधिक है। नौ बागी विधायकों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही वोटिंग से वंचित कर दिया था। इस लिहाज से विधानसभा में कुल 61 विधायक ही बच गये थे। ऐन मौके पर बहुजन समाज पार्टी ने भी पलटी मार दी और मंगलवार की सुवह बसपा प्रमुख मायावती ने साफ शब्दों में कह दिया कि उनकी पार्टी के विधायक कांग्रेस का समर्थकन करेंगे। हां कांग्रेस पार्टी की विधायक रेखा आर्य ने कांग्रेस को जरूर हतोत्साहित किया और भाजपा के पक्ष में चली गयी।
दरअसल भाजपा ने हरीश रावत को हल्के में लिया था। भाजपा को यह समझना चाहिए था कि जिस व्यक्ति ने पंडित नारायणदत्त तिवारी जैसे कद्दावर नेता को पानी पिला दिया वह भला राजनीति का साधारण खिलाड़ी कैसे हो सकता है, सो भाजपा ने रावत को समझने में भूल कर दी। उसे यह पता ही नहीं चल पया कि रावत की जितनी पकड़ कांग्रेस में है उससे कही ज्यादा पकड़ भाजपा में है। सोचने समझने वाले चाहे जो सोचें समङों लेकिन सच तो यह है कि हरीश रावत की जीत में कही न कही भारतीय जनता पार्टी का आंतरिक कलह भी काम कर रहा था। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व की ओर से जिस नेता को उत्तराखंड में प्रोजेक्ट करने की योजना बनाई गयी थी उसके कारण स्थानीय भाजपा नेता बेहद ख़फा थे। हरीश रावत की जीत के पीछे उन नेताओं की भूमिका भी अहम बताई जा रही है। उत्तराखंड में ही नहीं हाल के दिनों में केन्द्रीय नेतृत्व में जो अंतरविरोध उत्पन्न हुए हैं उसके कारण भाजपा का संकट अभी और बढने वाला है। इसलिए वर्तमान भाजपा नेतृत्व को सामूहिक निर्णय परंपरा पर फिर से लौटना चाहिए।
उत्तराखंड के हालिया राजनीतिक संकट के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालने से यह साफ दिखने लगता है कि भाजपा यहां की राजनीति को ठीक ढंग से सम्भाल नहीं संभाल पायी। इस पूरे मामले में न्यायालय की भूमिका की सराहना होनी चाहिए। उत्तराखंड हाईकोर्ट में जस्टिस ध्यानी की बेंच ने 29 मार्च के आदेश से विधानसभा में 31 मार्च को विधायकों के बहुमत परीक्षण का निर्देश दिया था, जिसे केंद्र सरकार की अपील पर चीफ जस्टिस की बेंच ने 30 मार्च के आदेश से स्थगित कर दिया। चीफ जस्टिस जोसफ ने मामले की सुनवाई करते हुए 21 अप्रैल के आदेश से केंद्र सरकार के विरुद्ध सख्त टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपति शासन की अधिसूचना को निरस्त कर दिया और 29 अप्रैल को विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए निर्देश दिया। केंद्र सरकार की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को स्थगित कर दिया। बीते 06 मई को न्यायालय के आदेश के आलोक में उत्तराखंड में बहुमत सिद्ध करने की प्रक्रिया संपन्न हुई और अंततोगत्वा हरीश रावत ने अपने राजनीतिक कौशल का परिचय देते हुए यह साबित कर दिया कि केन्द्र में चाहे नरेन्द्र मोदी और भाजपा की तूति बोलती होगी लेकिन उत्तराखंड में तो फिलहाल हरीश ही अपरिहार्य हैं।
विधानसभा में शक्ति परीक्षण के बाद से ही उत्तराखंड में राजनीतिक ड्रामे का पटाक्षेप हो गया सा लगने लगा था। कांग्रेस के विधायकों के दावे और बीजेपी विधायकों के मायूस चेहरो से साफ साबित हो गया था कि हरीश रावत विजयी हुए हैं। दिल्ली में कांग्रेस के वरिष्ठ सूत्र बता रहे हैं कि अब राज्य में सरकार गठन के समय पार्टी साफ-सुथरी छवि वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल करेगी। कुछ महीने सरकार चलाई जाएगी और जैसा की हाल में हरीश रावत ने 12 घंटे के मुख्यमंत्रित्व काल में लोकलुभावन घोषणाएं की और लोगों का दिल जीता वैसा ही फिर एक बार किया जाएगा और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की पूरी कोशिश की जाएगी। जैसे ही माहौल कांग्रेस के पक्ष में बनी वैसे ही हरीश रावत खुद राज्य में विधानसभा भंग करने की राज्यपाल से सिफारिश करेंगे और पार्टी चुनाव में चली जाएगी। पार्टी के वरिष्ठ सूत्र बता रहे हैं कि पार्टी विधानसभा भंग करने की सिफारिश इसलिए भी करना चाहेगी, क्योंकि हरीश रावत विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगाने वाली स्टिंग का दंश ङोल रहे हैं। विधानसभा के भंग होते ही स्टिंग मामले से इन्हें बचाने का रास्ता भी निकल आएगा। पार्टी के सूत्रों की मानें तो जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मंगलवार को हुए शक्तिपरीक्षण में पीडीएफ और बीएसपी के विधायकों ने साथ दिया है उससे पार्टी काफी खुश और उत्साहित भी है। पार्टी के वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि अगले चुनाव में इन पार्टियों का साथ बना रहे। इस राजनीतिक संकट के कारण हरीश अपने आंतरिक विरोधियों से भी छुटकारा पा गये हैं। हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा के खेमों से उन्हें मुक्ति मिल गई है। अब उत्तराखंड में हरीश रावत कांग्रेस के एक मात्र बड़े नेता बचे हैं और आलाकमान इस बात को अच्छी तरह समझता है कि उत्तराखंड में अब हरीश एक बड़ी ताकत के रूप में उभरकर सामने आए हैं जिसका सामना करने की क्षमता भाजपा के अन्य किसी स्थानीय नेताओं में नहीं है। हरीश के निकटतस्थ सूत्रों की मानें तो वे प्रदेश में बिहार की तरह अपने नेतृत्व में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन तैयारी करने की योजना में हैं। पार्टी सूत्रों का कहना है कि जब तक इस विधानसभा के तहत सरकार में रहेंगे तो जांच के बहाने केंद्र सरकार सीबीआई के जरिए परेशान करती रहेगी। उन्हें बार-बार बुलाया जाता रहेगा और पार्टी की छवि को सीधा नुकसान होगा। जल्द चुनाव के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि अगर कांग्रेस के 09 बागी विधायक बीजेपी में जाते हैं तो बीजेपी को टिकट देने में दिक्कत का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि ऐसे में बीजेपी को असंतुष्टों का सामना करना पड़ेगा।
कुल मिलकार देखें तो एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की रणनीति नंगी हो गयी है। पूरे देश में यह संदेश गया कि भाजपा लोकतंत्रत्मक संस्थाओं को कमजोर करना चाहती है। याद रहे जब भाजपा विपक्ष में थी तो कांग्रेस पर लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ काम करने का आरोप लगाती थी। अब भाजपा के बारे में भी यही धारणा बनने लगी है। यह अच्छी बात नहीं है। इसलिए अब भाजपा को लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करना चाहिए। दूसरा भाजपा हरीश रावत को जितना हल्के में ले रही थी हरीश उससे कही भारी निकले और भाजपा के बड़े-बड़े रणनीतिकारों को धूल चटा कर रख दिया। अब भाजपा को थोड़ा सोच-समझकर काम करने की जरूरत है। यही नहीं भाजपा को छोटे-मोटे व्यापारिक हितों से उपर उठना होगा। अन्यथा भाजपा को इसी प्रकार की फजीहत ङोलनी पड़ेगी। उत्तराखंड में यदि भाजपा को फिर से सत्ता में लौटना है तो संकीर्णता को छोड़ संपूर्ण उत्तराखंड की चिंता करनी होगी, जहां मैदान भी होगा, कुमाऊ भी होगा, गढ़वाल भी होगा और जाैनसार भी होगा। अभी तक उत्तराखंड भाजपा केवल गढ़वाल में ही अटकी हुई है।

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