धार्मिक साम्राज्य की तुलना में बहुधार्मिक लोकतांत्रिक राष्ट्र जनता के प्रति ज्यादा जवाबदेह



कलीमुल्ला खान 

इन दिनों पाकिस्तान में एक नया इस्लामिक धार्मिक आन्दोलन चल रहा है। इस आन्दोलन को चलाने वाले तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के नाम से पूरे पाकिस्तान में नई इस्लामिक आन्दोलन खड़ा करने की बात कर रहे हैं। वैसे पाकिस्तान को दुनिया भर में इस्लामिक राष्ट्र के रूप में पहचान मिली हुई है लेकिन पाकिस्तान के एक मौलवी, खादिम हुसैन रिजवी साहब ने इस आन्दोलन को प्रारंभ किया। रिजवी साहब का मानना है कि पाकिस्तान केवल कहने के लिए इस्लामिक राष्ट्र है, यहां इस्लाम के सही वसूल कायम नहीं हो पाए हैं और उनकी पार्टी की जब सरकार आएगी तो पाकिस्तान को सचमुच का इस्लामिक राष्ट्र बनाया जाएगा। वैसे रिजवी साहब की विगत दिनों रहस्यमय तरीके से मौत हो गयी। मौलाना रिजवी साहब की मौत में पाकिस्तानी गुफिया एजेंसी आईएसआई की भूमिका बतायी जा रही है। रिजवी साहब की तहर ही पाकिस्तान के कई मौलवी समय समय पर अपने तरीके से इस्लाम को परिभाषित करते हैं और उसके आधार पर देश के प्रशासनिक ढ़ांचे को ढ़ालने की बात करते हैं। अफगानिस्तान में भी इसी प्रकार का एक आन्दोलन प्रारंभ हुआ, उसे तालिबान के नाम से जाना जाता है। तालिबानी लड़ाके जिसके खिलाफ लड़ रहे थे या लड़ रहे हैं, वे सब मुसलमान हैं लेकिन इस्लमिक शुद्धता के लिए उनकी जंग चल रही है। आईएसआईएस के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं है। इस संगठन के सरगना बगदादी की क्रुरता की कहानी पूरी दुनिया जानती है। गोया बगदादी के गुर्गें ने जिसके कल्त किए वे सभी इस्लाम में विश्वास करने वाले मोमीन ही थे। ओसामा-बिन-लादेन हो या कर्नल गद्दाफी, सद्दाम हो या अदायतुल्ला खमैनी या फिर नए खिलाफल आन्दोलन को हवा देने वाले तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान, हर नेता अपने तरीके से धर्म की परिभाषा गढ़े और उसके आधार पर इस्लामिक राष्ट्र की बात की। यह कोई इस्लाम में ही नहीं है। हमारे भारत में भी इन दिनों कुछ हिन्दू चरमपंथी इसी सिद्धांत के आधार पर हिन्दू राष्ट्र की वकालत करने लगे हैं। यूरम में भी इस प्रकार के राष्ट्र खड़े हुए और उसका पतन भी बहुत निर्मम तरीके से हुआ।  

धर्म और सत्ता की ताकत अच्छे से अच्छे दिमाग को खराब कर देता है। इतिहास में इसके लिए कई उदाहरण है। मुसलमानों के परिप्रेक्ष्य में, अब्बासिड्स, उमायड्स, ओटोमन आदि शासन में वृद्धि के साथ साथ मुसलमानों के धार्मिक व नैतिक मूल्यों की गिरावट का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसके तुलना में गैर-मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में मुसलमान एक मुस्लिम शासक देश की तुलना में अधिक शांत एवं सुखमय जीवन का आनंद उठा रहे हैं। कहा जाता है कि पिछली गलतियों से सीख कर गलतियों को ठीक किया जा सकता है। ओटोमन साम्राज्य का अध्ययन इस ओर इशारा करता है। 

जब यूरोप 1700 और 1800 के बीच औद्योगीकरण की ओर बढ़ रहा था तब उस्मानिया की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही थी और कृषि आधारित रही। आॅटोमंस साक्षरता के मामले में अपने यूरोपीय प्रतियोगियों से बहुत पीछे चले गए। आंकड़े बताते हैं कि 1914 तक केवल 5 से 10 प्रतिशत निवासी ही साक्षर हो पाए थे। साम्राज्य में इंजीनियरों, क्लर्कों, डॉक्टरों और अन्य पेशेवरों की कमी थी। साम्राज्यवाद और सामंतशाही की व्यवस्था के कारण सल्तनत में कम योग्य, अक्षम और कमजोर को साम्राज्य की देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गयी, जिसके कारण भ्रष्टाचार चरम पर चला गया साथ ही सत्ता का रुख पक्षपातपूर्ण हो गया। यह रवैया ओटोमन का ट्रेडमार्क बन गया था। भ्रष्टाचार उस हद तक फैल गयी थी कि अधिकारी अपने कार्यालय को खरीद लेते थे फिर अपने पैसे वसूलने के लिए जनता पर अधिक कर लगा देता थे। 

एक इस्लामी साम्राज्य होने के नाते, उस्मानिया खिलाफत अपने अस्तित्व को बचाने में अक्षम साबित हुई और बाद में आतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने खिलाफत को खत्म कर आधुनिक तुर्की की आधारशिला रखी। इस परिवर्तन ने तुर्की को बदल दिया और आधुनिक दुनिया में फिर से तुर्की की तुति बोलने लगी। यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि खलीफा उस्मानिया जो एक विशुद्ध इस्लामिक शासन था वह पुनर्जागरण के कारण हुए नए परिवर्तनों को अपनाने में असमर्थ था। खिलाफत में निहित पिछड़ापन उस्मानिया साम्राज्य के लिए अभिशाप साबित हुआ तथा उसके पतन का कारण भी बना। 

मुसलमानों को उस्मानिया खलीफा के पतन से यह सीखना चाहिए कि धार्मिक कानून द्वारा शासित एक राज्य कभी भी सफल नहीं हो सकता क्योंकि विशुद्ध रूप से धार्मिक कानून परिवर्तन को स्वीकार नहीं करता है, जैसे उस्मानिया के खिलाफत ने औद्योगीकरण और यहां तक कि आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा को भी नजरअंदाज किया। उस्मानिया राज्य इस्लामिक कानून द्वारा शासित होने के बावजूद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार सहित कई बुराइयों से घिर गया था। सत्ता और धर्म के ताकत ने शासकों को अजेय बना दिया था जो अंततः साम्राज्य के पतन का कारण बना। इसलिए, गलतियों से सीखते हुए, मुसलमानों को खिलाफत प्रचार में नहीं फंसना चाहिए और लोकतांत्रिक मूल्यों में अपने विश्वास को मजबूत करना चाहिए।

यूरोप के धार्मिक रोमन साम्राज्य का भी यही हस्र हुआ। यूरोप के रोम नगर में केन्द्रित यह एक विशाल साम्राज्य था। इस साम्राज्य का विस्तार पूरे दक्षिणी यूरोप के अलावे उत्तरी अफ्रीका और अनातोलिया के क्षेत्र तक था। फारसी साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था जो फरात नदी के पूर्व में स्थित था। इस साम्राज्य के शासकों ने ईसाई धर्म को अपना राजधर्म घोषित कर दिया। यही से इसका पतन प्रारंभ हो गया। ईसाइयत के कारण यह साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर होता चला गया। यह विश्व के विशाल साम्राज्यों में से एक था। पांचवी सदी के अन्त तक इस साम्राज्य का पतन होना प्रारंभ हो गया। सन 1453 में उस्मानों (ओटोमन तुर्क) ने इस पर आक्रमण कर इसे पराभूत कर दिया। याद रहे जब तुर्कों ने क़ुस्तुंतुनिया पर हमला बोला तो उसके साथ केवल मुसलमान ही नहीं अपितु ईसाई और यहूदी भी साथ थे। यही कारण था कि ओटोमन उस युद्ध को जीत पाए। इसलिए धर्म के आधार पर जिन साम्राज्यों की आधारशिला रखी गयी वह पतन के गर्त में गया और उसका अंत भी बहुत भयानक हुआ। साथ ही साम्राज्य में रहने वाले लोगों को भी भयंकर यातनाओं का सामना करना पड़ा। इसलिए हर परिस्थिति में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए सजग रहना ही अच्छा है। वर्तमान भारतीय संविधान सबके हितों की बात करता है। ऐसे में हर भारतीय को संविधान की रक्षा का शपथ लेना चाहिए। साथ ही धर्म के आधार पर राष्ट्र का समर्थन किसी कीमत पर नहीं करना चाहिए। 

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