अमन पसंद लोगों का मजहब है इस्लाम, इसे बदनामी से बचाना है तो खालिस धार्मिक बने मुसलमान



गौतम चौधरी  

आतंकवाद एक जटिल विषय है। इसकी ठीक-ठीक परिभाषा आसान नहीं है। अमूमन लोगों के बीच आतंक पैदा करने वाले चिंतन को आतंकवाद कहते हैं। संभवतः इसकी विउत्पत्ति क्षद्म युद्ध से हुआ होगा। भारतीय चिंतन में क्षद्म युद्ध को कूट युद्ध भी कहा जाता है। यानी अपने प्रतिद्वंद्वी को परास्त करने के लिए उनके उपर छुप कर हमला करना। इससे दुश्मनों के बीच आतंक फैल जाता है और उसका आत्मबल कमजोर पड़ जाता है। फिर दुश्मन पर आसानी से विजय प्राप्त किया जा सकता है। आतंकवाद से ही मिलता-जुलता शब्द उग्रवाद है। 

आम तौर पर आतंकवाद और उग्रवाद में अंतर कर पाना आसान नहीं है लेकिन दोनों दो प्रकार की युद्ध कला है। यदि आप कहें कि उग्रवाद की ही अंतिम परिणति आतंकवाद है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

आधुनिक समय में बड़े पैमाने पर आतंकवाद या उग्रवाद का दौर साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ देखने को मिलता है। थोड़ा पीछे जाने पर पता चलता है कि साम्राज्यवादी देश जब अपनी सत्ता मजबूत कर रहे थे तो उन्होंने स्थानीय लोगों पर अमानवीय अत्याचार किए। इस अत्याचार के खिलाफ एक वैश्विक माहौल बना और उस माहौल को हवा देने में तत्कालीन सोवियत संघ ने अहम भूमिका निभाई। चूकि सन् 1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस पर पूर्ण रूप से साम्यवादी चिंतन का नियंत्रण हो गया। 

अब जारशाही वाला रूस नहीं रह गया था। वह यूनाइटेड सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक हो गया था। ब्लादमीर लेनिन के नेतृत्व में जब सोवियत यूनियन की पहली समाजवादी सरकार बनी थी तो उस सरकार के बजट में दुनिया में समाजवादी आन्दोलन को बढ़ावा देने के लिए अलग से बजट की व्यवस्था की गयी थी। यही नहीं सोवियत यूनियन की समाजवादी सरकार की विदेश नीति का हिस्सा दुनिया में साम्यवाद को बढ़ावा देना था। 

इसके कारण दुनिया भर में एक नए प्रकार की गोलबंदी प्रारंभ हुई। इस बीच तत्कालिन प्रभावशाली राष्ट्रों के बीच दो महायुद्ध भी हुए। इन दोनों युद्धों के कारण दुनिया के प्रभावशाली राष्ट्र कमजोर हुए और उन्होंने जिन-जिन देशों पर कब्जा जमा रखा था उसे उन्हें छोड़ना पड़ा। समाजवादी आन्दोलन को बढ़ावा देने के लिए सोवियत रूस ने दुनिया के कई देशों में आतंकवाद और उग्रवाद को बढ़ावा दिया। इसके कारण कई देशों में सरकारें बदली और कई देशों में साम्यवादी सरकारों का गठन हुआ। यह सिलसिला तबतक चलता रहा जबतक सोवियत रूस जीवित रहा। निःसंदेह इस नीति के कारण रूस का दुनिया में दबदवा बढ़ा जो आजतक कायम है। 

इसके कई फायदे हुए तो कई नुकशान भी हुए। इधर रूसी रणनीति का प्रभाव बढ़ते हुए देख दुनिया के साम्राज्यवादी देशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हाथ मिलाया और समाजवादी चिंतन के खिलाफ एक नए प्रकार की गोलबंदी प्रारंभ की। इस गुट ने सोवियत के गढ़ मुस्लिम देशों में कट्टरवादिता को बढ़ावा देने की रणनीति बनाई। इस रणनीति ने दुनिया के अंदर इस्लामिक आतंकवाद नीब रखी। यह रणनीति सऊदी अरब को केन्द्र मानकर बनयी गयी थी। बाद में सऊदी अरब खुद को इस्लामिक दुनिया का नेता मानने लग। इस अंतरविरोध के कारण पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्ति के नेतृत्वकर्ता अमेरिका के साथ ही साथ अन्य पश्चिमी देशों के खिलाफ भी एक माहौल बना। हालांकि इस माहौल की जड़ें गहरी थी, जो अब धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखाने लगा है। 

जिस हथियार से अमेरिका ने सोवियत यूनियन को उखाड़ फेंका अब वही हथियार अमेरिका एवं पश्चिमी देशों के लिए खतरा पैदा करने लगा है। अब वही देश जो कल तक इस्लाम को अपना हितैशी बता रहे थे आज इस्लाम को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। इस्लाम के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए पश्चिमी चिंतकों ने इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ा और उसका खूब जोर-शोर से प्रचार किया है, जबकि इसमें रत्तीभर की सत्यता नहीं है। इस मजहब को अल बगदादी, ओसामा बिन लादेन या फिर मुल्ला उमर आदि की नजरों से नहीं देखा जाना चाहिए। आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है। यह विशुद्ध अध्यात्मिक चिंतन है। यह मानवीय चिंतन है और अपने मानने वालों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। 
आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है। 

वर्तमान दौर में मुसलमानों को आतंकवाद के खिलाफ सख्ती से पेश आना चाहिए। इस्लामी दिशा-निर्देशों और हजरत मोहम्मद साहब की तालिमों को शक्ति से मानना चाहिए। पैगंबर-ए-इस्लाम, मोहम्मद साहब के अनुसार आतंकवाद पूरी मानवता के लिए एक अपराध है। आतंकवादी मजहबी निर्देशों के प्रति ईमानदार और आज्ञाकारी नहीं हो सकते हैं। वे इस्लामी तालीमों के सार को सही ढ़ग से न तो खुद समझने की चेष्ट करते हैं और न ही समझने में नाकाम हैं। इसलिए वे ऐसे मजहब को बदनाम करने पर तुले हैं, जो अमन सहिष्णुता के लिए प्रतिबद्ध है। हजरत साहब ने कहा है कि जो मनुष्य आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होता है वह मुसलमान नहीं हो सकता बल्कि वह सही रास्ते से भटका हुआ एक मनुष्य मात्र है। ये लोग अपने निहित स्वार्थ के अनुसार इस्लाम को परिभाषित करते हैं। 

अपने अपराधों को न्यायोचित ठहराते हैं और दूसरों को यह कहते हुए काफिर करार देते हैं कि वह इस्लाम का अनुसरण नहीं करते। इस्लाम इंतहा पसंदगी के खिलाफ है, इसलिए यह प्रत्येक सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी है कि वह आतंकवादी और कट्टरवादी विचारधाराओं से बचे व दूसरों मजहबों के अनुयायियों के प्रति सहिष्णु बने। सुरा अल बकरा के अनुसार एक आदमी की जिम्मेदारी अल्लाह के प्रति है और जो भी अल्लाह के बताए गए रास्ते पर चलने को तैयार है उसका इस्लाम में स्वागत है। 

हर मनुष्य को अपने मजहब को अपने अंतर्मन से चुनने की आजादी है, जो वह बिना किसी मजबूरी लालच या दबाव में कर सकता है। प्रत्येक मुसलमान की यह जिम्मेदारी है कि वह इस्लामी दिशा-निर्देशों का पालन करे और अपने भाइयों को सही रास्ते पर चलने के लिए मार्गदर्शन करे, ताकि उसे अल्लाह की नेमतें इस दुनिया में और इस दुनिया के बाद भी मिल सके। 

इस्लाम बेहद नेक दिल इंसानों का मजहब है। इसे चंद लोग अपने स्वार्थ के लिए बदनाम कर रहे हैं। अधिकतर मुसलमान अमन और शांति चाहता है। दहशतगर्द किसी कीमत पर मुसलमान नहीं हो सकते हैं। वर्तमान दौर की दुनिया में मुसलमानों की संख्या बहुत ज्यादा है। यदि मुसलमानों को सभी दृष्टि से समृद्ध बनाना है तो मुसलमानों को अपने ईमान और धर्म को साथ लेकर चलना होगा। स्वार्थी तत्वों के बहकावे में या फिर पश्चिमी देशों के उकसावे में मुसलमानों को नहीं आना चाहिए। ऐसा हुआ तो फिर इस्लाम बदनाम होता रहेगा और इससे मुसलमानों की ताकत दुनिया में कम होती चली जाएगी। इस दिशा में सभी मुसलमानों को तसल्ली से सोचना चाहिए। 

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