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Showing posts from June, 2024

पसमांदा आन्दोलन भारतीय मुसलमानों के अधिकारों का संरक्षक

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हसन जमालपुरी   आज के भारत में, पसमांदा आंदोलन हाशिए पर पड़े मुस्लिम समुदायों के अधिकारों और मान्यता की वकालत करने वाली एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा है। इस्लाम की समानता की शिक्षाओं के बावजूद, भारतीय मुसलमानों के बीच जाति-आधारित भेदभाव विगत लंबे समय से कायम है। यह पसमांदा मुसलमानों के सामने आने वाली कठोर वास्तविकताओं को उजागर करता है। यह लेख जाति-आधारित भेदभाव को गहरा करने के मद्देनजर पसमांदा आंदोलन की बढ़ती प्रासंगिकता की पड़ताल करता है और हाल के उदाहरणों पर प्रकाश डालता है, जो इस कारण की तात्कालिकता को रेखांकित करते हैं।  फ़ारसी से व्युत्पन्न पसमांदा शब्द का अर्थ है, वे जो पीछे रह गए हैं। यह सामूहिक रूप से दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमानों को संदर्भित करता है, जो मुस्लिम समुदाय के भीतर प्रणालीगत भेदभाव का शिकार हो रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से, भारतीय मुसलमानों को पदानुक्रमिक श्रेणियों में विभाजित किया गया है, अशरफ (कुलीन या उच्च जाति के मुसलमान), अजलाफ (पिछड़े मुसलमान) और अरज़ल (दलित मुसलमान)। पसमांदा आंदोलन अजलाफ और अरज़ल मुसलमानों को ऊपर उठाने का एक सामाजिक आन्दोलन है।  भारतीय मुसलमानों

उम्माह की अवधारणा को राजनीतिक रूप देना राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के खिलाफ

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हसन जमालपुरी   वैश्विक उम्माह की अवधारणा, मुसलमानों का विश्वव्यापी समुदाय जो अपने विश्वास के कारण एकजुट है, निःसंदेह मानवता के एक आदर्श तो जरूर है। हालांकि, आधुनिक युग में, राष्ट्र-राज्यों और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के प्रभुत्व ने, इस दृष्टिकोण के सामने चुनौती प्रस्तुत की है, बावजूद इसके यह आज भी दुनिया की मानवता के लिए उदाहरण है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य प्रणाली, जो 17वीं शताब्दी में वेस्टफेलिया की संधि के साथ उभरी, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय पहचान के सिद्धांतों पर जोर देती है। ये सिद्धांत अक्सर एक अंतरराष्ट्रीय धार्मिक समुदाय के विचार के साथ संघर्ष करता दिखता है। प्रत्येक राष्ट्र-राज्य के अपने कानून, रीति-रिवाज और हित होते हैं, जो धार्मिक एकजुटता को पीछे ढ़केलता दिखता है। राष्ट्रवाद और देशभक्ति वैश्विक धार्मिक समुदाय के बजाय राज्य के प्रति अपनेपन और वफादारी की भावना को बढ़ावा देती है। कई लोगों के लिए, उनके राष्ट्र और उसकी संस्कृति से जुड़ी पहचान व्यापक धार्मिक पहचान से अधिक महत्वपूर्ण होती है। हालांकि, इस्लाम इस मामले को लेकर अंतरविरोध में रहा है।  यदि हम के मुस्लिम देशों की ही

एएमयू की कुलपति के रूप में डॉ खातून की नियुक्ति के मायने

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डॉ. अनुभा खान  जैसे ही भारत के चुनाव आयोग ने 2024 के संसदीय आम चुनाव की घोषणा की संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर कई पश्चिमी देशों ने यहां के अल्पसंख्यकों की असुरक्षा को लेकर मनगढ़ंत आरोप लगाए। हालांकि नकारात्मक बाहरी शक्तियों का प्रभाव देश के आंतरिक भाग पर नहीं पड़ा लेकिन कोशिश लगातार जारी है। इस बीच अल्पसंख्यकों को लेकर भारत में कई प्रगति देखने को मिली है। उसमें से एक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में डॉ. नईमा खातून की नियुक्ति भी है। यह नियुक्ति भारतीय शिक्षा जगत में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इस नियुक्ति के साथ, डॉ. खातून विश्वविद्यालय के इतिहास में यह प्रतिष्ठित पद संभालने वाली पहली महिला बन गई हैं। यह उपलब्धि डॉ. खातून की शैक्षणिक उपलब्धियों और नेतृत्व गुणों का प्रमाण है और शैक्षणिक नेतृत्व में लैंगिक समानता प्राप्त करने की दिशा में एक प्रगतिशील कदम का भी द्योतक है।  पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान क्षेत्र में शीर्ष नेतृत्व की स्थिति में एक महिला के रूप में, डॉ. खातून की नियुक्ति उन युवा महिलाओं के लिए प्रेरणा है जो अकादमिक करियर बनाने की इच्छा रखती हैं। यह पूरे अकादमि

तो क्या इस बार के संसदीय आम चुनाव को US लॉबी ने प्रभावित किया?

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गौतम चौधरी   अभी हाल ही में संपन्न संसदीय आम चुनाव का परिणाम आते ही प्रतिपक्ष, खास कर कांग्रेस नरेन्द्र मोदी पर हमलावर हो गयी। राहुल व प्रियंका सहित कई नेताओं ने नरेन्द्र मोदी को नैतिकता का पाठ पढ़ाया और यहां तक कह दिया कि उनको भारत की जनता ने नकार दिया है, इसलिए तुरंत प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए। हालांकि नरेन्द्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा इस बार भी उतनी सीट ले आयी, जितनी कांग्रेस को बीते तीन चुनाव जोड़ कर भी नहीं आयी है। इस बात का जिक्र खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में किया है। बावजूद इसके 2024 के संसदीय आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन निःसंदेह बढ़िया रहा है।  इस बार कांग्रेस को 2019 की तुलना में दोगुना के करीब सीटें आयी है। यह कांग्रेस का सराहनीय प्रदर्शन है, जबकि भाजपा की सीटें घटी है और 2019 की तुलना में भाजपा को 63 सीटों का नुकसान हुआ है। यदि प्रतिशत में बात करें तो 2019 की तुलना में इस बार भाजपा को 6 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र का है। इसके पीछे के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इस हार को लेकर विदेशी