नेपाल में आत्माघाती रणनीति अपना रहा है भारत-गौतम चौधरी

इन दिनों नेपाल की राजनीति बडी तेजी से बदल रही है। आषंका के अनुरूप नेपाली माओवादी आपस में विभाजित हो गये हैं। इधर डॉ0 बाबुराम मट्टराई ने बिना किसी सम्वैधानिक अधिकार के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जमे हुए है, जबकि उन्होंने खुद लोकसभा को भंग कर फिर से चुनाव की घोषणा की है। इस संदर्भ में डॉ0 भट्टराई ने न तो अपनी पार्टी को विष्वास में लिया और न ही प्रतिपक्षी दलों को साथ लिया। प्रधानमंत्री भट्टराई इस पूरे सम्वैधानिक निर्णय में देष के सर्वोच्च सम्वैधानिक प्रमुख राष्ट्पति को विष्वास में नहीं लिया है। नेपाल के लिए यह परिस्थिति गंभीर संकट का संकेत दे रहा है। यहां जो विषय सबसे ज्यादा रहस्यमय और चौकाने वाला है वह इस पूरे मामले पर भारत की चुप्पी है। लगातार नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने वाला भारत आखिर डॉ0 भट्टराई के इस गैर सम्वैधानिक और तानाषाही रवैये से चुप क्यों है, यह समझ से परे है। इस परिस्थिति में एक खबर यह भी आ रही है कि चीन के राजदूत नेपाल के इस राजनीतिक संकट के बीच विगत दिनों एक महीने की छुटटी पर अपने देष चले गये थे। इन तमाम परिस्थितियों का मुआयना करने से यही लगता है कि प्रधानमंत्री डॉ0 बाबूराम भट्टराई नई दिल्ली की शह पर निरंकुष हो नेपाल को एक बडे संकट की ओर ढकेल रहे हैं।
भट्टराई अगर नेपाल में बिना किसी स्वदेषी समर्थन पर नेपाल के प्रधानमंत्री पद पर बने हुए हैं तो, इसका सीधा संकेत यह है कि भट्टराई को नई दिल्ली का समर्थन प्राप्त है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी बडा रोचक हैं। नेपाल में भारत के साथ ही साथ चीन भी सक्रिय है। अब चीन नेपाल में केवल माओवादियों के भरोसे नहीं है। चीनी कूटनीति ने अब दक्षिण एषिया के लिए अप्रत्याषित ढंग से अपनी रणनीति में परिवर्तन किया है। इन दिनों चीन नेपाल में माओवादियों के एक समूह को समर्थन देने के अलावा अन्य प्रतिपक्षी दलों में भी अपनी पकड मजबूत की है। खबर तो यह भी है कि वर्तमान राजनीतिक संकट का फायदा उठाकर चीन नेपाल के प्रतिपक्षी पार्टियों को गोलबंद भी कर रहा है। यही नहीं चीन की कूटनीति अब पहाड से नीचे उतर कर मैदान में भी अपना पैर जमाने लगा हैं। चीनी एजेंट मधेषी क्षेत्र में माओवादियों को फिर से सक्रिय कर रहा हैं। यह क्षेत्र नेपाल के राजषाही से त्रस्त रहा है। यही नहीं वर्तमान नेपाली पहाडी राजनीति का भी इस क्षेत्र में भारी विरोध है। नेपाली सत्ता में अधिकार और राज पुर्नगठन के मामले पर भी मधेष में भारी आक्रोष हैं। थरहट ओैर मधेष नेपाल में अपने को ठगा हुआ महसूस करता हैं। इस आक्रोष को चीन न केवल नेपाल में अपितु भारत कें खिलाफ भी हथियार के रूप में उपयोग करने के फिराक में है। चीनी कूटनीति इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेष के खिलाफ देषभर में उपेक्षा, इन क्षेत्रों के लोगों में असंतोष पैदा कर रहा है। यह इलाका अपने भविष्य को लेकर, अपने हितों को लेकर अप्रत्याषित तरीके से संवेदनषील हो रहा है। इन दिनों इस क्षैत्र में दिल्ली के शासन के प्रति भी अविष्वास भी बढा है। ऐसे में चीन मधेष में अपना पैर जमा बिहार और उत्तर प्रदेष के एक बडे भाग को भारत के खिलाफ भडका सकता है। इस रणनीति के लिए चीन कितना तैयार है यह तो पता नहीं लेकिन मधेष और थरहट क्षेत्र का आक्रोष नेपाल मे एक नये ंविद्रोह का फसल तैयार करने लगा है।
नेपाल के राजनीतिक संकट, सामाजिक और आर्थिक स्थिति एवं उहापोह के बीच भारत सरकार की रणनीति को देखने से ऐसा लगता है कि नेपाल के लिए भारत की रणनीति पष्चिमी देषों से प्रेरित है और पष्चिमी देष की रणनीति ईसाई मिषनरियों की आख्या पर आधरित है। मिषनरी नेपाल ही नहींे सम्पूर्ण हिमालय को ईसाई बनाना चाहते हैं। पष्चिम के देष ईसाई मिषनरियों की आख्या को ध्यान में रखकर केवल पहाडियों को टारगेट कर अपनी रणनीति बना रहे हैं। यही कारण है कि भारत की रणनीति में अब मधेष कोई महत्व नहीं रखता है। यही नही जिस प्रकार पष्चिमी देष मिषनरियो ंके दबाव में केवल भट्टराई पर अपना दाव लगा रहा हैं, उसी प्रकार भारत भी केवल भट्टराई के भरोसे नेपाल की कूटनीतिक हांक रहा है और बाजी जीत लेने की गलतफहमी पाल र,खा है। वास्तविकता तो यह है कि भारत की रणनीति नेपाल में एक बार फिर कमजोर साबित हो रही है। वही चीन अपने दाव में सफल होता दिख रहा है। चीन ही नहीं पष्चिम के देष अपने अपने लक्ष्य में सफल हो रहे हैं, लेकिन भारत एक महत्वपूर्ण पडोसी को जान बूझ कर अपना दुष्मन बनाने की पूरी तैयारी में है। कुल मिलाकर देखें तो इस पूरे मामले में चीन की रणनीति सबसे मजबूत है। वह केवल नेपाल को लक्ष्य कर नहीं भारत के आंतरिक क्षेत्र को लक्ष्य कर अपनी रणनीति में सफल होता जा रहा है, जिसे समय पर समझने की जरूरत है। अब इस पूरे प्रकरण में दिल्ली को सोचना चाहिए कि आखिर नेपाल की राजनीति को वह चीन समर्थक होने से कैसे रोक सकता है। नेपाल में भारत जिस प्रकार केवल डॉ0 भट्टराई के भरोसे है उससे भारत को लाभ नहीं हानि होने की पूरी संभावना है। नेपाली कांग्रेस भारत के पारम्परिक सहयोगी रहे है। नेपाल में मधेषियों को भारत का समर्थक माना जाता रहा है। ऐसे में भारत को अपने पुराने और परंपरिक सहयोगियों को भुलना नहीं चाहिए। अगर भारत अपने पुराने सहयोगियों को भुल जाता है तो इसमें उन सहयोगियों को अन्य विकल्प खाजने के लिए एक बहाना मिल जायेगा और तब भारत नेपाल में चीन से ही नहीं पष्चिम के देषों से भी कमजोर पड जायेगा। हां, भारत को यह भी याद रखना चाहिए कि जबतक नेपाल में भारत की प्रतिष्ठा है तभी तक पष्चिम के देष नेपाल में भारत का हस्तक्षेप बरदास्त करेंगे जब नेपाल ईसाई बाहुल्य देष बन जाएगा तब नेपाल में पष्चिम के देष भारत को टिकने तक नहीं देंगे।
इधर नेपाल का यह वर्तमान राजनीतिक संकट नेपाल के लिए और खुद भट्टराई के लिए भी शुभ नहीं है। जिस प्रकार माओवादियों का किरण समर्थक समूह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग होकर सषस्त्र लडाई के लिए तैयार होने लगा है और अन्य राजनीतिक दल चीन की ओर देखने लगे हैं उससे इस आषंका को बल मिलने लगा है कि नेपाल एक बार फिर से अषांति की ओर बढ रहा है। याद रहे नेपाल में राजषाही के जड आज भी कमजोर नहीं हुए हैं। समय समय पर राजषाही जोर मारता है। ऐसे में पष्चिम के दबाव पर देष में सम्वैधानिक राजषाही भी संभव है। नेपाल एक विकट परिस्थिति में है। नेपाल का राजनीतिक संकट नेपाल को चौराहे पर लाकर खडा कर दिया है। यहां नेपाल का इतिहास लिख जाने वाला है। अगर डॉ0 भट्टराई समझदार होंगे और विष्व राजनीति एवं दुनिया के इतिहास भूगोल को समझ रहे होंगे तो नेपाल को वे बचा लेंगे, अन्यथा नेपाल के पतन के लिए बाबूराम को कभी इतिहास माफ नहीं करेगा। बाबूराम का भारत के प्रति झुकाव सराहनीय है और स्वागत के योग्य भी है लेकिन इस झुकाव के कारण नेपाल और भारत को हानि हो इससे तो बढिया है कि नेपाल में एक स्थाई व्यवस्था कायम हो। यह तभी संभव है जब नेपाल को ईसाई और चीनी दबाव से मुक्त किया जाये क्योंकि आज ये दोनों साम्राज्यवादी साढ नेपाल में छुट्टा घुम रहे हैं। नेपाल में इन दोनों की जरूरत तो है लेकिन इन दोनों साम्राज्यवादी ताकतों को नेपाली कूटनीति पहले नाथे फिर अपने ढंग से उपयोग करे। ऐसा नहीं होने पर नेपाल को बचा पाना कठिन है। यह कैसे संभव होगा यह तो नेपाली कूटनीति को तय करना है।

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