भारतीय भाषाओं की लडाई में हिन्दी की भूमिका

गौतम चैधरी
विगत दिनों केन्द्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा जारी एक अधिसूचना को लेकर समाचार माध्यमों में बावेला खडा करने का प्रयास किया गया। अधिसूचना हिन्दी भाषा को लेकर था। खबर चली कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने सभी विभागों और राज्य सरकारों को सूचित किया है कि वे अधिक से अधिक काम-काज हिन्दी में करें। यही नहीं सरकार के द्वारा जारी अधिसूचना के बारे में यह भी बताया और दिखाया गया कि विभागों एवं राज्यों के आधिकारिक इंटरनेट साइट, सामाजिक नेटवर्किंग पृष्ठों पर अधिक से अधिक हिन्दी एवं देवनागरी का उपयोग किया जाये। यह समाचार विभन्न समाचार वाहिनियों पर वाॅयरल होने लगा। कुछ सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी इसे गति देने का प्रयास किया गया लेकिन पूरे घटना-क्रम की व्याख्या का कुल लब्बोलुआब कुछ अलग किस्म की सच्चाई वयां करता प्रतीत होता दिखा। कुछ समाचार माध्यमों में खबर यह भी चली कि संभवतः भारतीय जनता पार्टी के बहुमत की सरकार ने अपने हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान वाले सिद्धांत पर काम करते हुए इस प्रकार की अधिसूचना प्रेषित कराई है। इस खबर की सच्चाई के बारे में एक अखबर के संपादकीय अग्रलेख में लेखक पडताल करता दिखा। गोया गृह मंत्रालय की जिस अधिसूचना पर बावेला खडा किये जाने का प्रयास किया गया, वह मंत्रालय के कार्यपद्धति का हिस्सा निकला। इसे रूटीन-वर्क भी कहा जाता है। मंत्रालय ऐसी अधिसूचना प्रत्येक साल सभी विभगों को भेजती है साथ ही हिन्दी भाषी राज्यों को भी इस अधिसूचना की प्रति प्रेषित की जाती है। तो कुल मिलकार हिन्दी विवाद की खबर की अंतरकथा, बस समाचार को किसी खास प्रयोजन से वाॅयरल बनाने की लग रही होगी, ऐसा प्रतीत होता है।

यदि हम खबर की मिमांशा करें तो एक बात खोज करने की है कि आखिर इस खबर से किसे लाभ मिलने वाला होगा। हालांकि इस खबर के कारण न तो पूर्वोत्तर के किसी राज्यों में कोई लफरा हुआ और न ही दक्षिण के किसी राज्य में हिन्दी का विरोध देखने को मिला। पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों में तो किसी ने खबर की नोटिस तक नहीं ली। हां इस हिन्दी वाली खबर के मामले पर किसी जमाने में तमिल पृथकतावादियों के प्रति नरम रूख रखने वाले तमिल नेता करूणानिधि और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मोहम्मद अबदुल्ला ने जरूर विरोध दर्ज कराया लेकिन इस बार के विवादित प्रचार को देश में कही से कोई तबज्जो नहीं मिला और कतिपय भाषा के मामले में संवेदनशील हाने वाले राज्य अमूमन शांत रहे। इससे यह साबित हो रहा है कि अब पूरे देश को यह लगतने लगा है कि भारतीय भाषा को बचाना है तो हिन्दी की अपरिहार्यता स्वीकारनी ही पडेगी। इस बावेला ने यह भी साबित कर दिया है कि भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए न केवल अंग्रेजी के साथ दो-चार करना होगा अपितु भाषाई लडाई में हिन्दी को हथियार भी बनाना पडेगा।

देश में अधिकतर बुद्धिजीवियों की अवधारना रही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरे देश में हिन्दी लागू करवाना चाहती है। संघ को करीब से जानने वाले लोग इस अवधारणा को नहीं मानते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचार परिवार के दो संगठनों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जो तृभाषा सिद्धांत को मानता है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का मानना है कि स्थानीय स्तर पर मातृभाषा को बढावा दिया जाये। देश में संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी को महत्व दिया जाये और जहां काम न चले वहां अंग्रेजी का उपयोग किया जाये। यानि दुनिया में संपर्क के लिए अंग्रेजी की जानकारी होना जरूरी है। इसलिए तीन भाषओं का ज्ञान देश के सभी लोगों को होना चाहिए। इस तृभाषा सिद्धांत पर कुछ काम भी हुआ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचार परिवार का ही एक संगठन विद्या भारती है। विद्या भारती के विद्यालयों में तीन भाषाओं पर जोर होता है। वहां से निकले छात्रों को अपनी मातृभाषी के अलावा हिन्दी और अंग्रेजी का वेहद बढिया ज्ञान होता है। भारतीय भाषाओं की चर्चा के बीच में भारतीय भाषाओं के लिए काम करने वाले समाचार एजेंशी हिन्दुस्थान समाचार की चर्चा स्वाभाविक है। स्वातंत्रोतर भारत में बैरिस्टर शिवराम शंकर आप्टे, उपाख्य दादासाहेब आप्टे जी ने एक नया प्रयोग किया और भारतीय भाषओं की संवाद समिति स्थापित की। उस संवाद समिति का नाम उन्होंने हिदुस्थान समाचार बहुभाषी संवाद समिति रखा। हालांकि इस संवाद समिति का काम सन् 1948 में ही प्रारंभ कर दिया गया था लेकिन हिन्दुस्थान समाचार बहुराज्यीय सहकारी समिति का पंजीकरण सन् 1957 में हुआ और संभवतः पहली बार देश ही नहीं दुनिया में किसी समाचार एजेंशी का संचालन सहकारी क्षेत्र के द्वारा प्रारंभ किया गया। यह संवाद समिति भारतीय भाषाओं के साथ ही साथ अंग्रेजी में भी समाचार संग्रह और प्रेषण का कार्य प्रारंभ किया। हिन्दुस्थान समाचार ने देश में पहली बार क्षेत्रीय भाषाओं को आपस में संवाद का एक मंच प्रदान किया। हिन्दी बडे क्षेत्र में बोली जाती थी इसलिए देवनागरी लिपि के लिए पहली बार हिन्दुस्थान समाचार ने देवनागरी लिपि का दूरमुद्रण विकसित कर समाचार-पत्रों को सीधे समाचार और आलेख भेजना प्रारंभ किया। तृभाषा का सिद्धांत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है या नहीं यह सरतीया तौर पर नहीं कहा जा सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचार परिवार के दो संगठनों को प्रत्यक्ष ढंग से तृभाषा के सिद्धांत पर काम करते देखा जा सकता है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ पर दोष मढना कि आरएसएस देश के प्रत्येक राज्यों पर हिन्दी थोपने की योजना में है यह सर्वथा गलत है।

रही बात गृह मंत्रालय के अधिसूचना की तो वह उनका रूटीन कार्य है। मंत्रालय प्रत्येक साल इस प्रकार की सूचना अपने संबंधित विभागों को भेजता है। उसपर कितना अमल होता है यह हम अपने दैनन्दिन के कार्यों में देखते हैं। बैंक हो या फिर न्यायालय, हिन्दी भाषी राज्यों में भी यदि आपने हिन्दी में कुछ लिख दिया और कोई सूचना मांग दी तो बखेडा खडा हो जाता है। कई जगह खुद मैंने बैंकों में हिन्दी खिलने के कारण अपना काम बिगाड चुका हूं। विगत दिनों चंडीगढ और पंजाब में निजी दूरभाष एवं इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराने वाली कनेक्ट नामक कंपनी को मैंने हिन्दी में सूचना उपलब्ध कराने के लिए कहा पर उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। चंडीगढ में लगभग 60 प्रतिशत लोग हिन्दी में काम करने को इच्छुक हैं लेकिन कनेक्ट अपनी सूचना और बिल अंग्रेजी या फिर पंजाबी में भेजता है। चंडीगढ के विद्यालयों की भाषा अंग्रेजी है और चंडीगढ के लोगों की भाषा हिन्दी। चंडीगढ में पंजाबी मानों समाप्त सा हो गया है। यदि यहां हिन्दी मजबूत होती तो पंजाबी भी कमजोर नहीं पडती।

जहां तक भारत में बोली जाने वाली भाषाओं का सवाल है तो विगत दिनों बीबीसी का भारतीय भाषाओं पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट आया। रिपोर्ट में चैकाने वाले आंकडे आए हैं। रिपोर्ट बताता है कि स्वातंत्रोंतर भारत में लगभग 20 प्रतिशत भाषाएं मर चुकी है। एक अन्य आकडे में बताया गया है कि सन् 1961 के भाषा सर्वेक्षण में 1652 भाषएं थी जो सन् 2013 में घटकर मात्र 1100 रह गयी है। यानि पांच दशकों में देश में बोली जाने वाली 552 भाषाएं अब समाप्त हो गयी है। दूसरा आंकडा और चैकाने वाला है। यह आंकडा कहता है कि देश में बडी क्षेत्रीय भाषाओं को छोडकर अन्य भाषाएं दम तोड रही है। ऐसे में देखा जाये तो भारत में क्षेत्रीय भाषाएं अच्छी स्थिति में नहीं है। इसके पीछे का करण देश के अभिजात्य समूह की अंग्रजी के प्रति व्यापक मोह को माना जाना चाहिए। न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है, देश के प्रशासन की भाषा अंग्रेजी है, देश के काॅरपोरेट समूहों की भाषा अंग्रजी है। इस देश का शतप्रतिशत नागरिक हिन्दी या अपनी मातृभाषा को समझता है लेकिन सार्वजनिक सूचनाएं, सरकारी या फिर गैर सकारी साईनबोर्ड अंग्रेजी में लिखे और लगाये जाते है। इसके पीछे की मानसिकता साफ है कि कुछ लोग हिन्दी या फिर भारतीय भाषाओं को शासन, प्रशासन और न्यायालय की भाषा बनने ही नहीं देना चाहते। इसके पीछे की मानसिकता देश की बहुसंख्यक जनता को ठगना ही है।

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