नीतीश के राजनीतिक कौशल और प्रचार-वार से भाजपा नेताओं के छूटे पसीने

गौतम चौधरी
जीते तो बिहार का सत्ता-सुख, हारे तो मोदी-विरोधी ध्रुव के कप्तान
बिहार के चौथे चरण का चुनाव संपन्न हो गया। अब सबसे अंतिम चरण, यानि 05 नवम्बर के चुनाव की तैयारी होने लगी है। कुल मिलकार देखें तो थोड़ी स्थिति भी स्पष्ट होती दिख रही है। चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, दोनों ने बिहार चुनाव में बड़ा मेहनत किया है। अब स्थानीय भाजपायी कितना मेहनत किये यह तो पता नहीं लेकिन बिहार विधानसभा के इस चुनाव में केन्द्रीय मंत्रिमंडल के लगभग सभी सदस्यों ने अपनी ताकत लगाई है। बिहार के लोगों की मानें तो बिहार में पूरे चुनाव प्रचार के दौरान आधा केन्द्रीय मंत्रिमंडल बिहार में ही डटा रहा। सूचना के अनुसार भाजपा, इस चुनाव के लिए गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ एवं उत्तर प्रदेश के सैंकड़ों कार्यकत्र्ता और नेताओं को लगा रखी है। इसके अलावा कुछ पेशेवर लोगों को भी चुनाव प्रचार के लिए लगाया गया है। भाजपा के लिए इस चुनाव की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई एक दिन में तीन-तीन सभाओं को संबोधित कर रहे हैं। इधर जो दूसरा पक्ष चुनाव मैदान में है वह भी किसी मामले में कमजोर नहीं दिख रहा है। 

इस चुनाव में प्रचार के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, यह साबित करने में सफर रहे हैं कि बिहार के लिए वे अपरिहार्य नहीं तो आवश्यक जरूर हैं। इस चुनाव के दौरान जाति और संप्रदाय के शोर बहुत सुने गये लेकिन किसी कोने में ही सही विकास और बिहारी स्वाभिमान का मुद्दा भी बिहारी मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि अगर किसी नेता की छवि साफ-सुथरी हो और उसने विकास को अपना राजनीतिक हथियार बना लिया हो तो उसको हरा पाना बड़ा कठिन होता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, चुनाव हारें या जीतें लेकिन उन्होंने यह साबित कर दिया है कि उनके पास अदम्य ताकत ही नहीं, बेहतर प्रबंधन एवं चाणक्य वाला राजनीतिक कौशल है। उन्होंने अपनी कमजोरियों को अवसरों में बदल दिया है। प्रतिद्वन्द्वी, नीतीश कुमार के इसी राजनीतिक कौशल के कारण परेशान और कई मामले में पस्त दिख रहे हैं। प्रतिद्वन्द्वी भाजपा नीत राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के नेता यहीं कहते फिर रहे थे कि नीतीश कुमार वाला महागठबंधन अपने अंतरविरोधों के कारण ही धाराशायी हो जाएगा लेकिन चार चरणों के चुनाव में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिला, उलट कई विधानसभा सीटों पर तो भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाता भी नीतीश कुमार की ओर अपना झुकाव सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है। मुङो जहां तक जानकारी मिली है उसमें भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाता मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, दरभंगा आदि कई स्थानों पर राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यू. एवं कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवारों को वोट किये हैं। संभवत: इन स्थानों पर लोकतांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार जीत जाएं लेकिन भाजपा के मतदाताओं में विभाजन यहां साफ दिखता है और ऐसा केवल और केवल नीतीश कुमार के राजनीतिक कौशल के कारण संभव हो पाया है।

बीते कल एक मीडिया कंपनी के प्रधान कार्यकारी अधिकारी से मेरी बात हो रही थी। मेरी दृष्टि में वे प्रबंधन और प्रचार के मामले में बेहद समझदार व्यक्ति हैं। बाकायदा उन्होंने  इस विद्या का अध्यन भी किया है और समय-समय पर वे इस ज्ञान को बढाने के लिए नयी तकनीक का भी उपयोग करते हैं। नीतीश कुमार के मामले में उनकी अपनी व्याख्या है। हालांकि वे नीतीश कुमार की कुछ नीतिरयों से इतफाक नहीं रखते लेकिन उनका कहना है कि नीतीश कुमार वेहतर प्रचार प्रबंधन को अपनाकर बिहार में भाजपा के खिलाफ पहाड़ जैसी चुनौती खड़ी कर दी है। उन्होंने बताया कि बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की रणनीति भाजपा की रणनीति से बेहतर साबित हो रही है। इस चुनाव में वे लालू प्रसाद यादव के साथ सतही मान्यताओं को लेकर गठबंधन में शामिल नहीं हुए हैं, अपितु इस गठबंधन को लेकर वे तसल्ली से मंथन किये होंगे, तब जाकर उन्होंने लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन किया होगा। उनके अनुसार नीतीश कोक-पेप्सी प्रचार-वार के तर्ज पर भाजपा के साथ प्रचार की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने भाजपा को लालू प्रसाद यादव के साथ उलझा दिया है जबकि वे खुद छूटकर केवल और केवल अपना प्रचार कर रहे हैं। 

नीतीश कुमार कभी लालू प्रसाद यादव का बचाव करते नहीं दिखते हैं, जबकि वे खुद के मामले में बेहद संवेदनशील और ताकत के साथ भाजपा को जवाब देते दिखते हैं। इस कारण नीतीश कुमार की छवि का एक विशाल पक्ष देश के सामने आया है, जो कालांतर में नीतीश कुमार को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित कर सकता है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी इस पूरे चुनाव अभियान में अपनी रणनीति बदलती रही दिखती है। सबसे पहली बात तो भाजपा ने बिहार चुनाव में अपना कोई नेता सामने नहीं किया। दूसरा भाजपा के नेता आक्रामकता की रणनीति पर अपने प्रचार को केन्द्रित किया है, जबकि नतीश कुमार ने अपने प्रचार अभियान को केवल बिहार के विकास और बिहारी स्वाभिमान पर केन्द्रित कर दिया है। इसका नीतीश कुमार को लाभ मिलता दिख रहा है। नीतीश इस चुनाव के बाद एक गंभीर और समझदार नेता के रूप में उभरकर सामने आने वाले हैं जबकि नरेन्द्र मोदी की छवि आक्रामक नेता के रूप में लोगों के सामने आ रही है। यह छवि अंततोगत्वा नीतीश कुमार को फायदा पहुंचाने वाला होगा जबकि नरेन्द्र भाई की जो छवि बन रही है उससे उनको थोड़ा नुकसान हो सकता है। प्रचार के गणित पर यदि फोकस करें तो अब यह लगने लगा है कि भाजपा के बेहद ताकतवर लोग नीतीश कुमार के सामने नहीं टिक रहे हैं और नीतीश, भाजपा के सबसे प्रभावशाली नेता को सीधे चुनौती देते दिख रहे हैं। नि:संदेह यह स्थिति मीडिया के एक खास वर्ग द्वारा बनाया गया है लेकिन इसका सीधा लाभ नीतीश कुमार को मिलता दिख रहा है। 

इस चुनाव यदि नीतीश कुमार जीत जाते हैं तो वे बिहार के साथ ही साथ देश के एक बड़े क्षेत्र के नेता के रूप में उभरकर सामने आएंगे। ऐसे अब भाजपा के नेता जिस रणनीति पर काम कर रहे हैं वह यह है कि यदि थोड़ी कम सीट मिली तो वे निर्दलीय विधायकों को साथ लेकर सरकार बनाएंगे क्योंकि कई विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा के बागी उम्मीदवार भाजपा को ही चुनौती दे रहे हैं। संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि इसमें से कई चुनाव जीतने की स्थिति में हैं। यदि पांच या दस सीटों से भाजपा पिछड़ती है तो अपने बागियों को साथ लेकर भाजपा सरकार बनाने की रणनीति बनाएगी लेकिन इसके बाद भी नीतीश कुमार की ताकत कम होने वाली नहीं है। वे दस सालों तक बिहार के मुख्यमंत्री रह लिये। जीते तो बिहार की कमान वे फिर से थाम लेंगे हारे तो मोदी विरोधी ध्रुव के नेतृत्व में उनकी अहमियत को मीडिया के एक खास वर्ग के द्वारा स्थापित कर दिया जाएगा जिसके बदौतल नीतीश अपनी राजनीति के लिए लम्बे समय तक अपरिहार्य बने रहेंगे।

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