आत्ममुग्धता को छोड़ आत्ममंथन करे संगठन और पार्टी

कार्यशैली और सैद्धांतिक विचलन के कारण बिहार में हारी भाजपा
गौतम चौधरी
बिहार विधानसभा का परिणाम जैसा अनुमान लगाया गया था वैसा ही आया है। इस परिणाम में एक बात जरूर नयी है कि लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल अपना खोया जनाधार एक बार फिर से प्राप्त कर लिया है। यदि सतही तौर पर कहा जाये तो बिहार का यह चुनाव नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी के बीच की लड़ाई था लेकिन गहराई से देखा जाये तो यह लड़ाई क्रूड़ पूंजीवाद और समाजवादी पूंजीवाद के बीच लड़ी जा रही थी। नि:संदेह इस चुनाव में बिहार की जनता ने क्रूड़ पूंजीवाद को नकार दिया और समाजवादी पूंजीवाद को अपना लिया है। हालांकि चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोक दी थी लेकिन चुनाव परिणाम उसके विपरीत आया। इसके कारणों की समीक्षा भाजपा के अंदर भी हो रही होगी लेकिन मेरी समझ में जो बातें आ रही हैं वह भाजपा का ईवेंट और मीडिया मैनेजमेंट वाली रणनीति इस बार काम नहीं आयी और परिणाम भाजपा के लिए अप्रत्याशित हो गया। 

मैंने पहले भी लिखा था कि भाजपा लगातार अपनी रणनीति बदल रही है और जो योद्धा रणभूमि में घोड़ा बदलता है, उस योद्धा को बढिया योद्धा नहीं माना जाता है। मैं व्यक्तिगत रूप से भाजपा की तैयारी को देखने पटना गया था। उन दिनों भाजपा की तैयारी चल रही थी। भाजपा के बिहार प्रदेश सह संगठनमंत्री शिवनारायण प्रसाद पूरे बिहार में अपने कार्यकत्र्ताओं की बैठकें लेकर अपनी पार्टी की जीत सूनिश्चत कराने में लगे हुए थे। जगह-जगह जाकर उन तैयारियों को भी मैंने देखा लेकिन उन दिनों की तैयारी में ही भाजपा की हार साफ दिखाई दे रही थी। भाजपा के नेता एवं कार्यकत्र्ता यही कहते सुने जा रहे थे कि लालू एवं नीतीश कुमार में दोस्ती संभव ही नहीं है। ये दोनों दो ध्रुव हैं और एक साथ चलना इनकी नियति में नहीं है। लेकिन जब लालू और नीतीश कुमार में गठबंधन हो गया तो भाजपा के नेता यही कहते सुने गये कि दोनों पार्टियों का आपसी अंतर्विरोध भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को जीत दिलाएगा। यानि कहने का मतलब यह है कि भाजपा के नेता अपनी ओर नहीं देख रहे थे। वे अपनी पार्टी की छवि या संगठन की चिंता नहीं कर रहे थे, उन्हें तो बस नीतीश और लालू प्रसाद यादव की कमजोरी दिख रही थी। यह युद्ध रणनीति के बेहद खिलाफ है। इस कमजोरी को वे दोनों भी समझ रहे थे। वाकई नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की बीच दोस्ती असंभव थी, जिसे कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के प्रयास ने संभव बनाया। बाद का काम दोनों नेताओं ने खुद किया। वे भाजपा की तरह बड़ी-बड़ी रैलियों में अपनी ताकत खर्च करने के बदले केवल और केवल अपने मतदाताओं को समेटने में लगे रहे। पहले चरण में दोनों ने अपने मतदाताओं से संपर्क किया और दूसरे चरण में उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि दोनों पार्टियों के मतदाताओं का कल्याण गठबंधन की जीत में ही है। लालू के मतदाता यादव और मुस्लमान माने जाते हैं, जबकि नीतीश के मतदाताओं में सभी जातियों की संख्या है। वैसे नीतीश जी का आधार जातिगत वोट कुर्मी, कुशवाहा, अत्यन्त पिछड़ी जाति एवं पिछड़ी जाति के मुस्लमानों को माना जाता है। नीतीश जी का जनाधार कुछ उच्च वर्ग में भी है, जिन्हें नीतीश कुमार और उनके पार्टी के लोगों ने यह समझाने में सफल रहे कि यदि वे लालू के साथ नहीं गये तो उनका अस्तित्व खत्म हो जायेगा। चुनाव में दोनों दलों ने अपने अपने आधार वोट दोनों दलों के उम्मीदवारों को स्थानांतरित कराने में सफल रहे, जबकि भाजपा इसी मुगालते में रही कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच का अंतरद्वन्द्व महागठबंधन को हार दिलाएगा और वही राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की ताकत होगी। इस सोच ने भाजपा को और भाजपा के सहयोगियों को अपनी कमजोरियों की ओर देखने का मौका ही नहीं दिया। भाजपा यह नहीं देख पायी कि वह मात्र डेढ सालों में कितनी कमजोर और खोखली हो गयी है। इस चुनाव में भाजपा केवल और केवल अपने प्रतिपक्षियों को देखती रही और उसके उपर आक्रामक प्रहार करती रही लेकिन उसने पूरे चुनाव, न तो अपने संगठन की ओर ध्यान दिया और न ही सरकार की छवि के बारे में जनता के सामने कोई आदर्श प्रस्तुत कर पायी। 

दूसरी जो भाजपा की रणनीति की सबसे बड़ी खामी मुङो नजर आ रही है वह है भाजपा के कार्यकत्र्ताओं एवं नेतओं के बीच का अंतरविरोध। पार्टी के कई नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से नाराज थे तो कई नेता नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली से भी खफ़ा थे। यही नहीं कुछ स्थानीय नेताओं को सुशील कुमार मोदी के प्रति भी नाराजगी थी। इसका प्रमाण भी लोगों को देखने को मिला। प्रथम चरण में पटना साहिब के सांसद एवं सिने कलाकर भाजपा नेता शत्रुघA सिन्हा ने पार्टी के खिलाफ बयानबाजी प्रारंभ की तो दूसरे चरण में पूर्व गृह सचिव, भाजपा नेता एवं सांसद राजकुमार सिंह ने पार्टी के नेताओं पर टिकट बेच लेने का आरोप लगाया। पूरी चुनावी लड़ाई के बीच भाजपा खेमें से छिट-फुट कुछ न कुछ बयान आते रहे जो पार्टी को बेहद नुकसान पहुंचायी। 

भाजपा की हार का तीसरा बड़ा कारण स्थानीय एवं अपने पुराने कार्यकत्र्ताओं की अनदेखी है। बिहार विधानसभा चुनाव प्रबंधन के लिए भाजपा ने गुजरात से बुलाकर सी. आर. पाटिल को बिहार में बैठा दिया। फिर राजस्थान से उठाकर भूपेन्द्र यादव को ले गये। उत्तराखंड से उठाकर धनसिंह रावत को बिठाया गया एवं सबके समन्वय का काम सौंपा गया कर्नाटक के रहने वाले अनंत कुमार को। पूरे चुनाव में यही लोग हावी रहे। इस चुनाव के लिए पटना में चार वाररूम बनाये गये थे। वहां बेहद पेशेवर लोगों को रखा गया था। अब भाजपा को यह कौन समझाए कि ये बाहरी लोग मतदाताओं को निकालने में कामयाब नहीं होते हैं। दिल्ली का चुनाव इसी गलती के कारण भाजपा हारी थी और वही गलती बिहार में दुहराया गया। परिणाम सबसे सामने है। इस चुनाव परिणाम से यह अनुमान लगा लेना कि बिहार में भाजपा का जनाधार नहीं है, यह सत्य नहीं है। बिहार में भाजपा का जनाधार अन्य किसी भी पार्टी की तुलना में इन दिनों सबसे बड़ा है। यदि जातिगत समीकरणों को देखा जाये तो विभक्त लालू-नीतीश से ज्यादा भाजपा के वोटर हैं। इन वोटरों को घर से निकालना और उनका वोट करवाना इसकी जिम्मेवारी भाजपा के सहयोगी संगठन लेते रहे हैं लेकिन इस बार कारण चाहे जो हो बड़े रहस्यमय तरीके से तीन चरणों के चुनाव तक ये लोग कहीं दिखे तक नहीं। चौथे और पांचवें चरण में स्थानीय संगठन एवं भाजपा सहयोगी संगठनों के लोग थोड़ी चिंता करते दिखे। तबतक देर हो चुकी थी एवं प्रतिद्वन्द्वी काफी प्रभावशाली हो चुके थे। 

इस चुनाव पर यदि भाजपा मंथन करती है तो भाजपा को इस बात पर चर्चा जरूर करना चाहिए कि केवल पैसे से चुनाव नहीं जीते जाते हैं। कोई भी व्यापारी पैसा संगठन की ताकत के उपर लगाता है। संगठन की ताकत निष्ठावान कार्यकत्र्ताओं से बनती है। यदि निष्ठावान कार्यकत्र्ता पार्टी से मुख मोड़ लें तो आने वाले समय में भाजपा को कोई चंदा भी नहीं दे पाएगा, जिसका भाजपा ने इस चुनाव में बुरी तरह प्रदर्शन किया है और जिससे आम लोगों में यह धारणा बनी है कि भाजपा क्रूड़ पूंजीवाद का समर्थन करती है। भाजपा को इस छवि को बदलना होगा। भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानववाद को अपनाकर यहां तक पहुंची है। उसमें क्रूड़ पूंजीवाद का कही स्थान नहीं है। राजसत्ता लोकहितकारी होनी चाहिए। यदि किसी पार्टी की छवि यह बन जाये कि वह लोकहित के बदले चंद कॉरपोरेटों के हितों के लिए काम कर रही है तो यह उस पार्टी के लिए घातक है। इससे उस पार्टी का पतन तय है, साथ ही उस पार्टी से जुड़े लाखों कार्यकत्र्ताओं का मनोबल टूटता जो अंततोगत्वा राष्ट्र के हित में नहीं होता है। भाजपा का वर्तमान नेतृत्व उसी राह पर है। उसे अपने निष्ठावान कार्यकत्र्ताओं पर कम और कॉरपोरेट समूहों पर ज्यादा विश्वास हो गया है। यह पार्टी को गर्त की ओर ले जाएगा। अभी भी समय है, भाजपा अपने आप को बचा सकती है, नहीं तो भविष्य में जब इतिहास लिखा जाएगा तो इस पतन के लिए भाजपा के वर्तमान नेतृत्व को ही दोषी ठहराया जाएगा और उस इतिहास में नरेन्द्र मोदी को भी बख्शा नहीं जाएग क्योंकि अंततोगत्वा इस पूरी रणनीति के प्रणोता नरेन्द्र भाई मोदी ही तो हैं!

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