दवाओं की गुणवत्ता और मूल्य पर नियंत्रण से आएगी स्वास्थ्य क्षेत्र की क्रांति


गौतम चौधरी
स्वास्थ्य और शिक्षा, दो ऐसे क्षेत्र हैं जो किसी भी समाज की समृद्धि का मापदंड तय कर देता है। अर्थशास्त्र की दृष्टि से संपूर्ण विकास का मापदंड विकास दर के आधर पर तय किया जाता है। अर्थशास्त्री प्रतिव्यक्ति आय और प्रतिव्यक्ति व्यय को विकास की अवधारणा के साथ जोड़कर देखते हैं। इस अवधारणा में स्वास्थ्य और शिक्षा प्रभावशाली भूमिका तय करने वाला क्षेत्र है। भारत में स्वदेशी जीवन संरचना के अंदर व्यापार की अवधारणा दुनिया के अन्य संस्कृति और सभ्यता से थोड़ी भिन्न रही है। गोया हमारे देश में कृर्षि, पशुपालन, हस्तशिल्प, उद्योग और विनियम की संरचना समाज की उपयोगिता और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित रहा है। लेकिन अन्य सभ्यताओं के प्रभाव ने भारत की स्वदेशी अवधारणा को कायांतरित करने के लिए बाध्य किया और अब दुनिया के अन्य भागों की तरह ही भारत में भी जीवन संरचना पर व्यापर और उसको नियंत्रित करने वाली पूंजी का दबाव साफ दिखने लगा है। ऐसी परिस्थिति में पुरातन स्वास्थ्य संरचना की अवधारणा कतई आकार नहीं ले सकता। इसके लिए इस सवा अरब के देश में हमारी सरकार को जन स्वास्थ्य जैसे विकल्प पर व्यापक काम करने की जरूरत है। 
स्वास्थ्य पर जब कभी भी चर्चा होती है तो उसमें बीमारी और उसके समन के लिए दवाओं पर चर्चा करना स्वभाविक है। दवा और बीमार को जोड़ने में चिकित्सकों की भूमिका अपरिहार्य है। इसीलिए चिकित्सकों को धरती के भगवान की संज्ञा दी गयी है। प्राचीन भारतीय समाजिक संरचना में चिकित्सा के लिए आमजन को शुल्क देने की जरूरत नहीं होती थी। साथ ही यह व्यवस्था उच्च सामाजिक मूल्यों पर आधारित समाज के द्वारा नियंत्रित होता था। स्थानीय जड़ी-बूटियों से इलाज किये जाते थे और संपूर्ण चिकित्सकीय प्रयोग व्यक्ति पर आधिारित था। 
समय बदला, समाज बदला, व्यवस्थाएं बदली तो संरचनाएं भी बदलती चली गयी। अब दुनियाभर में स्वास्थ्य जगत चंद पूंजी परस्थों के द्वारा नियंत्रित होने लगा है। फार्मा लॉबी इतनी मजबूत हो गयी है कि कई देशों की सरकरों को नियंत्रित करने लगी है। इसका दबाव भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर भी साफ दिख रहा है। ऐसे में कोई कंपनी सस्ती दवा लेकर बाजार में आती है तो उसपर शक भी किया जाना चाहिए और सराहना भी। आंकड़े बताते हैं कि प्रति वर्ष भारत का फार्मा व्यापार सवा लाख करोड़ रुपये का है। जानकारों की नजर में यह व्यापार 11 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। इस व्यापार में और अधिक वुम की संभावना है। इसलिए इस सेक्टर को व्यपारी कमाऊ सेक्टर के रूप में देखते हैं। इधर जब से केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार आई है तब से स्वास्थ्य बजट में कटौती किया जाने लगा है। प्रेक्षकों का मानना है कि यह कटौती भी फार्मा लॉबी के दबाव के कारण ही किया जा रहा है। सरकार के द्वारा लाख कोशिश के बाद भी जेनरिक दवाओं की उपलब्धता बेहद सीमित है। इसमें भी फार्मा लॉबी के हस्तक्षेप को चिन्हित किया जाने लगा है। 
इतना तो तय है कि इतने बड़े काम को केवल सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसके लिए पेशेवर और बाजार के जानकारों को अपने समाज के हितों को लेकर सामने आना होगा। इसी उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर दवा की कुछ कंपनियां अपने सस्ते उत्पाद के साथ बाजार में आई है। उसमें से डॉबेस्ट की पहल बेहद सराहनीय है। विगत दिनों सीआईआई, चंडीगढ़ में आयोजित डॉबेस्ट के उत्पाद प्रमोशन कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। मंच से जिस प्रकार की बातें हो रही थी उसपर भरोसा नहीं हुआ तो कंपनी के प्रधान कार्यकारी अधिकारी अश्वनी भल्ला से सीधा संपर्क करके पूछ लिया-क्या सचमुच आपकी कंपनी बाजार भाव की तुलना में 80 प्रतिशत तक के कम दाम पर सामान्य उपयोगी दवाएं बाजार में उपलब्ध करा रही है। फार्मा प्रबंधन के जानकार भल्ला ने बेबाक शब्दों में कहा-हां, हमारी कंपनी 100 के करीब प्रोडक्ट बाजार भाव से 80 प्रतिशित कम दाम में दवा उपलब्ध करा रही है। उन्होंने यह भी बताया कि आगामी तीन वर्ष में हम 500 प्रोडक्ट बाजार में लेकर आ रहे हैं। वह भी अन्य की तुलना में 80 प्रतिशत कम मूल्य पर उपलब्ध होगा। मैंने जैसे ही दवा की गुणवत्ता पर प्रश्न खड़ा किया उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन आदि तमाम संस्थओं का प्रमाण-पत्र दिखाने लगे और कहा कि डॉबेस्ट कंपनी की कोई भी दवा को, कोई भी व्यक्ति, कहीं भी जांच करा सकता है। भल्ला के द्वारा उत्पन्न की गयी परिस्थिति में एक सवाल और मेरे मन को आन्दोलित कर रहा था। और वह मैंने पूछ ही लिया-भल्ला साहब अन्य कंपनियां इतनी महंगी दवा क्यों बेचती है। उनहोंने साफ-साफ कहा कि अन्य दवा कंपनियां डॉक्टर, मेडिकल रिप्रजेंटेटिव और महंगे विज्ञापन के कारण महंगी दवा बेचने के लिए बाध्य है लेकिन मैंने केवल और केवल जनहित को ध्यान में रखा है। मुङो आशा है इस मामले में सरकार भी मेरी कंपनी को सहयोग करेगी। समाज और सरकार दोनों ओर से अच्छे संकेत मिल रहे हैं। हमलोगों ने न तो डॉक्टर ऑब्लाइज कर रहे हैं और न ही महंगे विज्ञापन पर भरोसा कर रहे हैं। इसीलिए हमारी कंपनी की दवा सस्ती होती है। उन्होंने कहा-हमलोगों ने अपनी व्यापार रणनीति में थोड़ा परिवर्तन किया है। यह भारत की पुरातन व्यापार नीति से मेल खाती है। इसमें हम अपने उत्पाद की गुणवत्ता और मूल्य के नियंत्रण पर विशेष ध्यान देते हैं। यदि यह नीति हमारी सार्थक साबित हुई तो दुनिया के फार्मा व्यापार में परिवर्तन असंदिग्ध है। यह हमने एमडीएच जैसे मसाला कंपनी से सीखी है। 
मैं व्यक्तिगत रूप से संकालू हूं और जबतक पूर्ण तसल्ली न हो जाए तबतक चैन नहीं लेता। फटाक से विश्वास करना भी मेरी नियति के खिलाफ है। इसलिए इस कंपनी पर मैं नजर रख रहा हूं। यदि सचमुच में इस कंपनी ने अपने कहे पर अमल किया तो भारतीय चिकित्सा जगत में क्रांति को कोई रोक नहीं सकता है। तब हर कंपनियों को डॉबेस्ट वाली बाजार नीति अपनानी होगी। क्योंकि उत्पादन प्रक्रिया में उतना व्यय नहीं होता जितने दाम पर  दवा या मेडिकल वस्तु बाजार में उपलब्ध कराया जाता है। दवा की महंगाई के लिए चिकित्सक जिम्मेबार होते हैं। डॉबेस्ट की सोच भारतीय चिकित्सा संरचना में मील का पत्थर साबित हो सकता है लेकिन यह अपने सोच और सिद्धांत के साथ बाजार में टिक गया तो, अन्यथा व्यापारी कहते तो बड़ी-बड़ी बातें हैं लेकिन करने के लिए बस शोषण के अलावा उनके पास कुछ भी नहीं होता। क्योंकि पूंजी के केन्द्रीकरण का आधार ही शोषण और धोखा है। मैं आशा कर सकता हूं कि डॉबेस्ट इससे इतर रॉवर्ट ओवन के समाजवादी सिद्धांतों को अपनाकर समाज के हित की चिंता करगी। 

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