चीन की समृद्धि से नहीं चीनी साम्यवाद से है भारत को खतरा-गौतम चौधरी

विगत दिनों एक बार फिर चीन की पीपल्स आर्मी भारतीय सीमा पर दस्तक दी और 19 किलोमीटर अंदर तक आकर अपना टेंट डाल दिया। यह घटना न तो पहली है और न ही अप्रत्याशित है। चीनी फौज विगत कई दषकों से भारत के उत्तरी सीमा पर दबाव बनाए हुए है। यही नहीं वह कूटनीतिक मंचों पर भी भारतीय भूमि को अपना बताने की मुहिम चला रहा है। इन दिनों चीन भारत के पडोसियसों पर भी डोरा डाला है। कई पडोसी तो चीनी खेमे में चले गये और कई जाने की तैयारी कर रहे हैं। कुल मिलाकर देखें तो साम्यवादी अधिनायक चीन लोकतांत्रिक भारत को लगातार घेरने में लगा है, साथ ही वह अपने साम्राज्यवादी स्वरूप के विस्तार पर भी सक्रिय है, बावजूद इसके इन दिनों भारत में चीन के प्रति दृष्टिकोन में स्वाभाविक रूप से बदलाव आया है। इस बदलाव के पीछे का करण न केवल भारतीय कूटनीति का सकारात्मक होना है अपितु चीन की कूटनीति में भी परिवर्तन आया है। चीनी कूटनीति यह मानकर चलता है कि पश्चिमी जमात चीन के खिलाफ भारत का उपयोग कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर चीन यह भी मान कर चल रहा है कि भारत के साथ आमने सामने की लडाई किसी भी कीमत पर चीन के हित में नहीं होगा। भारत में चीन को लेकर राजनीतिक और कूटनीतिक क्षेत्र में तीन प्रकार के मत रहे हें। लम्बे समय तक शासन करने वाली अखिला भारतीय कांग्रेस का शुरू से चीन के प्रति कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं रहा है। दूसरी ओर भारत के सभी साम्यवादी दल चीन का खुलकर समर्थन करते रहे हैं। एक सम्यवादी दल का तो यहां तक मानना है कि सन 62 की लडाई भारत के खिलाफ नहीं थी, अपितु माओ की सेना भारत के मजदूरों को आजाद कराने आ रही थी। भारत में चीन के प्रति एक तीसरे प्रकार का दृष्टिकोण भी रहा है। चीन का मुखर विरोध लोहियावादी समाजवादी करते रहे हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचार परिवार के संगठनों ने चीन के खिलाफ मोर्चा सम्हाला है। चूकी भारतीय जनता पार्टी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव रहा है इसलिए भाजपा भी चीन का विरोध करती रही है। इन तमाम राजनीतिक और कूटनीतिक परिस्थितियों के बावजूद इन दिनों भारत में एक ऐसी जमात का विकास हुआ है जो चीनी नीतियों का धरल्ले से समर्थन कर रहा है। यही नहीं चीन के विकास को भारत के लिए आदर्श भी बताया जा रहा है। भारतीय मानस का चीन के प्रति बदलते दृष्टिकोण को चीन किस रूप में ले रहा है या फिर चीन के मॉडल को किस कोण से सही ठहराया जा रहा है उसपर व्यापक विमर्ष की जरूरत है। इससे पहले चीन के विकास को भी देखना चाहिए। यही नहीं चीन की राजनीति, वहां के विकास के स्वरूप, वहां का आर्थिक ढांचा, चीन की आधारभूत संरचना, लोकतांत्रिक स्वरूप, मानवाधिकार, समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता आदि का जबतक सही आकलन नहीं किया जाएगा तबतक चीनी मॉडल की स्वीकार्यता और चीन का समर्थन खोखला ही साबित होगा। रही बात चीन और भारत का संबंध तो इन दिनों चीन कई मोर्चों पर भारत का सहयोग भी कर रहा है, लेकिन सवाल यहां यह उठता है कि चीन का जो राजनीतिक स्वरूप वर्तमान में हमारे सामने है उसमें भारत की स्वीकार्यता कितनी है? फिर भारत की विदेष नीति पश्चम परस्त है और चीन की विदेश नीति चीनी हान राष्ट्रवाद और सेमेटिक साम्यवाद से प्रभावित है। ऐसे में भारत और चीन के संबंधों पर मिमांशा की गुंजाई बन रही है। जिसे सकारात्मक तरीके से देखने और समझने की जरूरत है।
इधर के दिनों में कई ऐसे मुद्दे सामने आए जिससे लगा कि चीन भारत के प्रति सकारात्मक हो रहा है। हालांकि यह सकारात्मकता चीन की दया पर आधारित नहीं है। चीन को अगर आगे बढना है तो उसे भारत जैसे पडोसियों से अपने संबंध सुधारने ही होगा। ऐसी अवधारना वाले चीन में भी एक बडी जमात का विकास हुआ है। चीन इस बात को अच्छी तरह जानता है। फिर एक समृद्ध चीन भारत के लिए किसी भी स्थिति में खतरनाक नहीं है। दूसरी बात यह है कि चीन यह भली भांति समझता है कि भारत अब सन 1962 वाला भारत नहीं रहा। भारत ने भी सामरिक और आर्थिक प्रगति कर ली है जो चीन की तुलना में कम नहीं है। चीन के साथ भारत की आमने सामने की लडाई हुई तो भारत को कम और चीन को ज्यादा घाटा होगा क्योंकि भारत की तुलना में चीन का वैश्विक मंच पर प्रभाव वेहद कम है। फिर पश्चिमी जमात चीन को घेरने के फिराक में है। भारत के साथ युद्ध होते पश्चिमी शक्ति सामोहिक रूप से चीन के खिलाफ मोर्चा खोल देगी और वैश्विक मंच पर चीन अलग थलग पड जाएगा। दुनिया में साम्यवादी देश इतने मजबूत नहीं रहे कि चीन का वे समर्थन कर सकें फिर रूस तो अपने घर में ही उलझा पडा है। ऐसे में चीन भारत के खिलाफ आमने सामने की लडाई किसी भी कीमत पर नहीं लडेगा। लडेगा तो केवल कूटनीतिक लडाई या फिर दोस्ति का हाथ बढाएगा, लेकिन इन दिनों जो सीमा पर तना तनी चल रही है वह केवल दिखावा है, ऐसा भी नहीं समझना चाहिए। चीन अगर भारत के प्रति सकारात्मक हो रहा है तो स्वागत के योज्ञ है और अगर चीन भारत के साथ युद्ध की तैयारी कर रहा है तो उसे भी स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि चीन के साथ लडाई में भारत को दूरगामी लाभ होगा। भारत से लडाई हुई तो इस बार चीन को तिब्बत ही नहीं मंगोलियायी भूमि को खाली करना होगा। भारत के साथ लडाई हुई तो चीन को वह भूमि भी वापस करना होगा जो वृहद तुर्किस्तान का हिस्सा रहा है। रही हमारे देष के चरमपंथियों की तो वे अच्छी तरह जानते हैं कि उनका हित भारत में ही है। चीन की सकारात्मक्ता स्वागत योज्ञ है। इसे बिना किसी प्रपंच के स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन सवाल यहां फिर खडा होता है कि इन तमाम बिन्दुओं के बाद भी चीन अपने पुराने पूर्वाग्रहों पर आरूढ है। वह आज भी संपूर्ण हिमालय को अपनी जमीन घोषित कर रखा है। पाकिस्तान को सामरिक और आर्थिक सहयोग कर रहा है। वह बांगलदेश, पाकिस्तान, म्यामा द्वीपों पर, श्रीलंका और मालदीब पर अपना सामरिक अड्डा बना रहा है। ये तमाम अड्डे और सामरिक ठिकानों का एक मात्र हेतु भारत को घेरना है। इस परिस्थिति में भारत के अंदर चीन के समर्थन का स्वर कितना सार्थक है, सोचना चाहिए।
निःसंदेह मजबूत और आर्थिक समृद्ध चीन भारत के लिए शुभ है लेकिन चीन जिस समृद्धि का लगातार प्रचार कर रहा है उसपर गहराई से जानने की जरूरत है। यही नहीं चीन की कूटनीतिक चाल और शातिर अंदाज को भी समझना जरूरी है। जो लोग भारत में रहकर चीनी अंदाज का समर्थन कर रहे हैं उन्हों यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान चीन केवल दिखावे के लिए साम्यवादी है। वह निहायत साम्राज्यवादी, हान राष्ट्रवादी और किसी के साथ भी दगा करने वाला राजनीतिक सेटपक वाला देश बनकर दुनिया के सामने उभरा है। चीन केवल अन्य देशो के साथ ही दगाबाजी नहीं कर रहा है अपितु वह खुद की जनता के साथ भी दगाबाजी कर रहा है। चीन के बडे शहरों में गांव से जाकर धरल्ले से मजदूरी करना मना है और इसे अपराध माना जाता है, लेकिन चीन के उद्योजक ज्यादातर इसी प्रकार के मजदूरों से काम लेते हैं और ऐसे मजदूरों को बैध मजदूरों की तुलना में 60 प्रतिषत कम मजदूरी दी जाती है। यह एक ऐसे देष का सच है जो लगातर से नारों मे कहता रहा है कि चीन में मजदूरा का शासन है। चीन के आर्थिक प्रगति का डंगा पश्चिम तक बोलता है। चीन दावा करता है कि वह दुनिया का सबसे प्रगतिषील आर्थिक विकास वाला देष है। चीन आंकडे भी देता है, लेकिन वास्तविकता कुछ और कहती है। चीन के 40 प्रतिषत जनबसाव क्षेत्र को पीने के लिए पानी नहीं है। मजदूरों की सरकार अपने आप को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर बताती है लेकिन दबी छुपी जो खबरें चीन से आती है वह यह है कि चीन में प्रतिवर्ष भूखमरी का शिकार होने वाले लोग लाखों की संख्या में हैं। चीन में 15 से अधिक राष्ट्रीयकृत बैंक कंगाली की स्थिति में है। चीनी सराकर उसे सहयोग कर रही है। चीन ने विकास दिखाने के लिए नये नये शहर बसाए, लाखों की संख्या में मकान बना रखे हैं, लेकिन उन मकानों में रहने के लिए लोग नहीं जाते क्योंकि वे मकान और शहर रेत का महल जैसा है। चीनी भवन निर्मान में सरियों का उपयोग नाम मात्र का होता है। घटिया से घटिया सिमेंट का उपयोग किया जाता है। चीनी साम्यवादी सरकार में जम कर भ्रष्टाचार है। साम्यवादी सरकार की दगावाजी यही खत्म नहीं हाती है। इन दिनों चीन में बडी तेजी से वेश्यावृति बढ रही है। आज से दस साल पहले चीन में 40 लाख वेशाएं थी आज यह संख्या करोडों में है। चीनी सरकार इन वृति को कानूनी जामा पहनाने के फिराक में है।
इन दिनों चीनी सरकार पर्यटन पर ज्यादा जोर मार रही है। चीन में खासकर दो प्रकार के पर्यटन को बढावा दिया जा रहा है। एक सेक्स पर्यटन और दूसरा चिकित्सा पर्यटन। चीनी सरकार योजनाबद्ध तरीके से तिब्बती, मंगोल, मुस्लिम और आदिवासी महिलाओं को जबरन वेश्या बना रही है। राजनीतिक संघर्ष करने वाले, सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों के बहु बेटियों को वेश्यालय भेज दिया जाता है और ऐसे कार्यकर्ताओं के शरीर से उनके अंग निकाल लिये जाते हैं। यही कारण है कि चीन में अंग प्रत्यारोपण बेहद सस्ता है। फिर वेश्याएं भी कम कीमत पर मिल जाती है। चीन सरकार को इससे दोहरा लाभ मिल रहा है। यही दुनिया के सामने चीन अपनी प्रगति की डंगे हांक रहा है।
ऐसे थोडे से चित्र चीन को समझरने के लिए काफी है बावजूद भरत और भारतीयों को चीन के प्रति सकररात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। दरअसल चीन की जनता किसी कीमत पर भारत के खिलाफ नहीं है। चीन की सबसे बडी समस्या चीन की देागली विचारधारा है। चीन में ड्रैगल को अपना आदर्श मानने वाले हान और सेमेटिक भौतिकवादी साम्यवाद प्रभावी भूमिका निभा रहा है। ऐसी परिस्थिति में भारत को चाहिए कि वह चीन को इस दोगली विचारधारा से निजात दिलाए। एक समृद्ध चीन भारत के लिए हितकर है। चीन की समृद्धि और संपन्नता तथा सामरिक ताकत किसी भी मायने में भारत का अहित नहीं कर सकता लेकिन बिजिंग में बैठे साम्यवादी हान षडयंत्रकारी किसी कीमत पर लोकतांत्रिक, आदर्शवादी और भारतीय सौम्य कूटनीति का समर्थन नहीं कर सकते हैं। भारतीय कूटनीति को चाहिए कि वह मंगोल और तिब्बती राष्ट्रवाद का समर्थन करे और चीनी दोगली कूटनीति को बिना किसी पश्चिमी हस्तक्षेव से पीछे हटने के लिए मजबूर करे।

Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत