इशरत मुठभेड की अंतरकथा - गौतम चौधरी

हाल के दिनों में इशरत जहां भुठभेड का मामला खासे चर्चा में है। हालांकि यह मामला पहले से भी चर्चा में रहा है, लेकिन इस बार की चर्चा कुछ अलग तरह का है। इस मामले को लेकर चर्चा के केन्द्र में भारत की दो महत्वपूर्ण गुप्तचर संस्थाएं हैं। एक ओर भारत की इंटेलिजेंश ब्यूरो कह रही है कि इषरत और उसके साथ मारे गये तमाम नैजवान आतंकवादी थे और वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भारतीय संसद में तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को मारने की योजना से अहमदाबाद में डेरा डाले हुए थे, तो दूसरी ओर केन्द्रीय जांच ब्यूरो का कहना है कि इशरत जहां नामक युवती निहायत शरीफ किस्म की थी, जिसे केवल इस लिए गुजरात पुलिस ने मार दिया कि उन्हें यह साबित करना था कि मोदी की जान को खतरा है। यह दिखाकर मोदी को अति महत्व का सुरक्षा कवच मुहइया कराना गुजरत पुलिस का लक्ष्य था। प्रथमदृष्ट्या मामले को जितना सलर ढंग से देखा जा रहा है, या फिर प्रस्तुत किया जा रहा है, उतना है नहीं क्योंकि मामला भारत के दो गुप्तचर संस्थाओं के बीच उलझ रहा है। इसलिए मामले की हालिया प्रगति गंभीर है, जिसपर मिमांशा की जबरदस्त गुंजाइस है।
इस मामले पर विगत दिनों समाचार माध्यमों में आयी खबरों से ज्ञात होता है कि आई0बी0 के जिस अधिकारी ने गुजरात के तत्कालीन डीआईजी डी0जी0 बंजारा के साथ दूरभाष पर कुल 37 से अधिक कौल किये और बातें की उसकी सीडी गुजरात कैडर के एक आईपीएस अधिकारी ने केन्द्रीय जांच ब्यूरो को दे दी है। वह अधिकारी आईबी के उक्त अधिकारी के खिलाफ सरकारी गवाह बनने के लिए भी हा कर दी है। खबर की विष्वसनीयता पर सवाल खडा करना जायज नहीं है, लेकिन इस खबर के कइ पहलू हैं। एक तो जिस पुलिस अधिकारी ने सीडी केन्द्रीय जांच ब्यूरो को दी है वह कितना विष्वसनीय है, यह जांचना भी केन्द्रीय जांच ब्यूरो का काम है। कोई पुलिस अधिकारी बिना किसी कानूनी हक के एक सम्बेदनशील सीडी को अपने पास कैसे रख सकता है? अगर उसने ऐसा किया है तो वह खुद एक अविश्वसनीय पुलिस अधिकारी है। ऐसे अविश्वसनीय अधिकारी पर भरोसा कर जांच की दिषा को तय करना, न तो न्यायोचित है और न ही नीति सम्मत। विगत दिनों केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने जो हलफनामा मामननीय गुजरात उच्च न्यायालय में दाखिल किया हैै, उसमें यह कहा गया है कि इषरत को छोड बाकी तीन नौजवान आतंकी थे। उस हलफनामें में यह नहीं कहा गया है कि वे तीनों किसको मारने आये थे। सवाल बडा गंभीर है, अगर वे आतंकी थे तो इसका प्रमाण भी देना होगा। अगर प्रमाण जांच एजेंशी के पास नहीं है, तो यह साबित करना बडा कठिन होगा कि इशरत को छोड बाकी के लोग आतंकी थे। फिलहाल केन्द्रीय जांच ब्यूरो के हलफनामें से यह साबित हो गया है कि मारे गये चार में से तीन आतंकी थे। इससे पहले अहमदाबाद महानगर न्यायालय के माननीय न्यायाधीश ने तो मारे गये किसी को आतंकी मानने से मना कर दिया था। अब कम से कम यह तो तय हो गया कि इशरत के साथ जो लोग थे वे आतंकी थे। केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा दाखिल हलफनामें में कुल मिलाकर जोर इस बात पर दिया गया है कि वह मुठभेड नकली था और इशरत जहां आतंकवादी नहीं थी। अभी तक की प्रगति में केन्द्रीय जांच ब्यूरो अपनी ओर से कुछ भी प्रस्तुत नहीं कर पायी है। वह जो हलफनामा तैयार कर न्यायालय में प्रस्तुत की है, वह गुजरात पुलिस की आख्या के आधार पर गढी गयी है। ऐसा लगता है कि इस मामले में तैयार की गयी गुजरात पुलिस की रिपोर्ट में कुछ कमी है, जिसका फायदा केन्द्रीय जांच ब्यूरो उठा रही है। उस कमी की मिमांशा अगर पूरी तरह की गयी, जिसकी संभावना कम है, तो कई मामले उभरकर सामने आएंगे और देश का पुलिस तंत्र पूरा बेनकाब हो जाएगा। यही नहीं कुछ कीचड केन्द्रीय जांच ब्यूरो की कमीज पर भी पडना तय है।
मारे गये चार आतंकियों में से इशरत जहां के व्यक्तित्व और व्यवहार पर सदा से उगलियां उठती रही है। उसे लश्कर के आतंकियों ने अपना योद्धा बताया था। चलो यह मान भी लिया कि सीबीआई की बात सही है और इशरत आतंकवादी नहीं है, तो फिर इशरत को पुलिस कहां से पकडकर लाई, वह पहले से उन तीन आतंकवादियों को जानती थी या नहीं, अगर जानती थी तो उन तीनों के साथ इशरत के क्या संबंध थे, नहीं जानती थी तो इशरत को पुलिस ने उन तीनों के साथ कैसे जोड दिया? केन्द्रीय जांच ब्यूरो के हलफनामें में इस बात पर भी जबरदस्त व्यायाम किया गया है। जांच ब्योरो का कहना है कि इशरत और उसके तीन कथित साथियों को आईबी0 के लोगों ने गिरफ्तार किया था। कुछ दिनों तक उसे अपने अभिरक्षण में रखा, फिर इशरत को छोड दिया, लेकिन आईबी0 को यह पक्का सबूत मिल गया था कि पकडे गये तीन नौजवान आतंकवादी ही हैं। आईबी0 ने तीनों को मार देने की योजना बनाई, लेकिन आईबी0 को यह लगने लगा कि इस राज को इशरत जानती है और बाद में वह मामले की गवाह बन सकती है इसलिए इशरत को आईबी0 के चार अधिकारियों ने फिर से बुलाया और पहले के पकडे गये तीन नौजवानों के साथ इशरत को गुजरात पुलिस के हवाले कर दिया। फिर गुजरात पुलिस ने उसे कही मारकर मुठभेड दिखा दी। हालांकि केन्द्रीय जांच ब्यूरो के इस हलफनामें के बाद अभी कई अनुपूरक हलफनामा माननीय न्यायालय को दिया जाना बाकी है, लेकिन इस कथा में जो झोल है उसको भी समझना जरूरी है। पहली बात केन्द्रीय जांच ब्यूरो कह रही है कि इशरत सहित चारो आतंकियों को आईबी0 ने गिरफ्तार किया और उसे कही दिखाया नहीं। इससे यह साबित होता है कि भारतीय पुलिस व्यवस्था में किसी को भी पकड लेना और उसे गैर कानूनी तरीके से अपने अभिरक्षण में रखना एक सामान्य सी बात है। दूसरी बात कि भारत की गुप्तचर संस्थाओं के पास जो पुलिस शक्ति है वह राज्य सरकार के द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। आईबी0 अगर उन चारों को पकडकर लाई तो किसी न किसी राज्य पुलिस के सहयोग से ही लाई होगी। अब केन्द्रीय जांच ब्यूरो को यह बताना बांकी है कि गुजरात के अलावा वह कौन सी पुलिस है जो इस मामले में आईबी0 और गुजरात पुलिस का सहयोग कर रही थी? केन्द्रीय जांच ब्यूरो को यह भी बताना पडेगा कि इशरत का उन तीन आतंकवादियों के साथ क्या संबंध थे? इशरत के परिवार की आर्थिक स्थिति पर एक शोध की जरूरत है। वे कौन लोग हैं जो इशरत को आर्थिक रूप से सहयोग कर रहे थे? इशरत की मौत के बाद भी उसके परिवार को कहा से आर्थिक मदद मिल रही है? यह मामला बडा उलझा है और इसपर जांच की जबरदस्त गुंजाइश है, जिसका जवाब केन्द्रीय जांच ब्यूरो को आज नहीं तो कल देना पडेगा। दूसरी ओर दो आतंकियों की लाश को कोई लेने तक नहीं आया। जांच एजेंशी के पास इस बात का पुख्ता सबूत है कि दोनों आतंकी पाकिस्तानी थे और भारत में तोड-फोड की नियत से प्लान्ट किये गये थे। एक पिल्लई नामक शख्श था। उसके व्यवहार से यह ज्ञात होता है कि वह किसी मुस्लिम लडकी के चक्कर में इस्लाम स्वीकार कर लिया था और आतंकियों के गिरोह में शामिल हो गया था। गंभीर सवाल यह है कि जिस लडकी के साथ उसने निकाह पढी थी, उसके परिवार और उसकी परिवारिक पृष्ठभूमि को भी अभी तक किसी जांच संस्था ने सार्वजनिक नहीं किया है। इशरत जहां मुठभेड मामले को लेकर मुकुल सिंहा नामक एक अधिवक्ता जो लगातार कई वर्षों से अहमदाबार में सक्रिय है, उसकी पृष्ठभूमि पर भी कई सवाल खडे किये जा रहे हैं। कुछ लोगों का मत है कि अधिवक्ता मुकुल के संपूर्ण व्यक्तित्व और उसके इर्द-गीर्द के पृष्ठभूमि की जांच होनी चाहिए। मुकुल किसी जमाने में चरम साम्यवाद के समर्थक हुआ करते थे। उन्होंने जाहां पहले नौकरी की वहां वे मजदूर संगठन चलाया करते थे।  इस पूरे प्रकरण में एक ईसाई पादरी की भी गंभीर भूमिका रही है। अहमदाबाद और गुजरात के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उस पादरी पर खुद ईसाई धर्म गुरूओं ने जबरदस्त और नकारात्मक आरोप लगाये हैं। गुजरात के दो कांग्रेसी नेता भी इस मामले में सक्रियता से जुडे रहे हैं। एक को आजकल एक बडे प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी गयी है और देशभर में प्रचार किया जा रहा है कि उन्ही के कारण कर्णाटक में कांग्रेस की राजसत्ता लौटी है। उक्त नेता की बेटी एक गैर सरकारी संस्था चलाती है। उस संस्था के आय-व्यय पर भी जांच होनी चाहिए क्योंकि उस गैर सरकारी संस्था के द्वारा कई ऐसे संगठन और व्यक्तियों को उपक्रित किया गया है जिसकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भूमिका इशरत जहां मामले को जिंदा रखने में है। अधिवक्ता मुकुल सिंहा के आर्थिक समृद्धि पर भी जांच संथाओं को ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
भारतीय गुप्तचर संस्था को अगर केवल इशरत जहां मुठभेड के इर्द-गीर्द जांच को सीमित रखना है, तो फिर इस संशय को बल मिलेगा कि मामले का कही न कही राजनीतिकरण हो रहा है। जिस प्रकार से जांच समितियां व्यवहार कर रही है और भारतीय मीडिया जांच की दिशा को प्रभावित कर रही है, उससे तो यह साफ लगने लगा है कि इशरत मामले में एक बडा राजनीतिक षडयंत्र का खेल खेला जा रहा है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने यह भी कहा है कि गुजरात पुलिस उन कथित आतंकियों को पकडकर नहीं लाई, अपितु आईबी0 के लोगों ने उसे कही से उठाया और गुजरात पुलिस को सौंप दिया। जब इशरत और उसके साथी मारे गये, उस समय केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी। केन्द्रीय जांच समितियां केन्द्र के हाथ में थी। फिर जब इतना बडा षडयंत्र गुजरात की पुलिस एवं आईबी0 संयुक्त रूप से कर रही थी और केन्द्र सरकार को मालुम नहीं था, तो यह गंभीर मामला बनता है। जहां तक व्यवस्था का सवाल है, उसमें आईबी भारत के प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी होता है। आईबी प्रमुख प्रतिदिन प्रधानमंत्री को महत्वपूर्ण जानकारियां देते हैं। ऐसे में यह जानकारी देश के प्रधानमंत्री को नहीं दी गयी होगी ऐसा संभव नहीं है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो की बातों को मान लिया जाये तो आईबी प्रधानमंत्री के साथ धोखा कर रहा था, तो ऐसे में आईबी की विश्वसनीयता पर प्रश्न खडा होता है। इससे तो यह साफ साबित होता है कि देश की खुफिया संस्था प्रधानमंत्री के साथ धोखा करती रही है। तब तो तत्कालीन आईबी प्रमुख भी जांच के घेरे में हैं। भारतीय गुप्तचर संस्था महत्वपूर्ण मामलों को आपस में बाटती भी है। इससे दो बातें उभरकर सामने आई है। पहला तो यह कि अगर गुप्तचर संस्था ने इतनी बडी घटना का जिक्र अपने साथ वाली संस्था के साथ नहीं किया तो यह देश के दो गुप्तचर संस्थाओं के आपसी समन्वय में आभाव को प्रदर्शित करता है, जो देश की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खडा करता है। अगर इस बात की जानकारी केन्द्रीय जांच ब्यूरों को दी गयी तो फिर केन्द्रीय जांच ब्यूरों ने इस मामले में अपना रूख किस प्रकार का रखा, इसकी जांच भी होनी चाहिए। इसलिए इस मामले में तत्कालीन आईबी और केन्द्रीय जांच ब्यूरो प्रमुख को जांच के दायरे से संबद्ध किया जाना चाहिए।
इस प्रकरण में भारत के न्यायालय पर एक विहंगम दृष्टि डालना उचित रहेगा। सर्व प्रथम इशरत मामले को माननीय अहमदाबाद महानगर न्यायालय के न्यायमूर्ति एच0 पी0 तमांग ने कानूनी तौर पर नकली बताया था। न्यायमूर्ति तमांग को मामले की जांच का जिम्मा सौंपा गया था। उस समय यह सवाल उठ खडा हुआ था कि मात्र कुछ ही दिनों में न्यायमूर्ति तमांग इतनी बडी रिपोर्ट को कैसे पढे और उसकी व्याख्यात्मक टिप्पणी न्यायालय को दी? सवाल यह भी उठा था कि इस मुठभेड की संपूर्ण आख्याओं की जांच सीमित समय सीमा में कैसे कर ली गयी? जो रिपोर्ट गुजरात पुलिस के द्वारा न्यायालय को सौंपी गयी थी वह इतनी लंबी थी कि उसे केवल पढने के लिए ही कम से कम तीन महीने का वक्त लगना चाहिए, लेकिन न्यायमूर्ति तमांग ने अपनी जांच रिपोर्ट में न तो किसी विषेषज्ञ का उलेख किया और न ही जांच के विभिन्न पहलुओं पर किसी खास प्रकार की कोई टिप्पणी दी। इशरत मामले में कहा तो यहां तक जा रहा है कि अधिवक्ता मुकुल सिन्हा के द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट पर न्यायमूर्ति तमांग ने सीधे अपनी मुहर लगा दी। न्यायमूर्ति तमांग की आख्या आते ही मीडिया में इस बात का प्रचार होने लगा कि इशरत और उसके साथी कदापि दोषी नहीं थे और उनको गुजरात पुलिस राजनीतिक कारणों से मौत के घाट उतार दी। उसके बाद गुजरात उच्च न्यायालय में जबरदस्त फेर बदल किये गये। मामले को फिर से खोला गया। कुल मिलाकर देखें तो इस मामले में न्यायालय की जो भूमिका होनी चाहिए उससे भिन्न रही है। न्यायालय न्यायमूर्ति तमांग की आख्या पर पूरी तरह सहमत दिख रही है जबकि न्यायमूर्ति तमाग की व्याख्या पर कई कानूनी विशेषज्ञों ने असहमति जताई है। कुल मिलाकर देखें तो इस प्रकरण पर न्यायालय भी कतिपय भ्रम की स्थिति में है।
इस प्रकरण पर जरा देश के राजनीतिक वातावरण को भी देख लिया जाऐ। इशरत की मृत्यु के तुरत बाद कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं ने मामले पर प्रश्न खडा किया था। उसमें खासकर कांग्रेस के नेता ज्यादा मुखर थे। कांग्रेस के नेता बिना किसी जांच के यह कहने लगे कि इशरत और उसके साथियों को गुजरात पुलिस पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर मार दी है। कांग्रेस के नेता यह भी कहते रहे हैं कि समझौता, मालेगांव, मक्का मस्जिद, मोडासा आदि स्थानों पर हिन्दू चरमपंथियों ने विस्फोटक रखकर आतंक मचाया, जिसके कारण कई निर्दोश लोगों की जान चली गयी। कांग्रेस के नेता यह भी कहते रहे है कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को किसी दूसरे ने नहीं, खुद करसेवकों ने जला ली। हालांकि सुरक्षा की जिम्मेबारी प्रदेश सरकार की होती है और उसमे गुजरात सरकार की सुरक्षात्मक भूल को नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन बाद में एक आयोग ने कांग्रेस के नेताओं को सही ठहराया और अपनी जांच रिपोर्ट में कांग्रेसी बयान के समान ही बातें रखी। ये तीन ऐसे उदाहरण हैं जिसमें कांग्रेसी नेताओं के बयान से मिलती जुलती जांच समितियों की रिपोर्ट आयी। इससे यह साबित होता है कि या तो कांग्रेस के कुछ ऐसे नेताओं को भी गुप्तचर सूचनाएं दी जाती है, जो सरकार के अंग नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि अगर सूचनाएं लिक नहीं होती है तो जांच संस्थाएं उन नेताओं के प्रभाव में हैं जिसके बयानों के चारो ओर संबंधित मामलों की जांच घुमती रहती है। हालांकि यह केवल संभावनाएं हैं, लेकिन अगर इसमें सच्चाई है तो देश के लोकतंत्र के लिए यह कितना घातक है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इन तमाम व्यख्याओं से इस बात को बल मिलने लगा है कि इशरत मुठभेड प्रकरण को एक खास राजनीतिक हेतु साधने के लिए उपयोग किया जा रहा है। इसमें न केवल गुप्तचर संस्थाओं को लगाया गया है, अपितु देश की कुछ अन्य महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं भी संलिप्त है। इन तमाम बातों से इतर एक बात पर विचार जरूरी है, आज जिस परिस्थिति में देश की जांच संस्थाए हैं और जिस खास मकसद के लिए उसका उपयोग हो रहा है, वह सत्तापक्ष के लिए भी घातक सिद्ध होगा। दुनिया के इतिहास को देखकर सत्तापक्ष को इस मामले में विचार करना चाहिए। अदूदर्षी सोच और प्रशसनिक कुप्रबंधन के खतरनाक परिणाम खुद कांग्रेस के लोग भुगत चुके हैं। गुप्तचर संस्थाओं के अव्यवहारिक प्रयोग और व्यक्तिगत उपयोग के कारण देश, इंदिरा गांधी जैसी नेता को खो चुका है। राजीव गांधी की हत्या के पीछे भी गुप्तचर संस्थाओं के दूरूपयोग को ही जिम्मेबाद ठहराया जा रहा है। जो लोग यह समझ कर बठे हैं कि दुनिया एकपक्षीय है तो वे भ्रम में हैं। गुप्तचर संस्थाओं की आपसी लडाई का भी दूरगामी प्रभाव बुरा होगा। जो हमारे गुप्तचर एजेंट कई देशों में सक्रिय हैं, वे अपना काम करेंगे ही। उसमें से हो सकता है कि कुछ एजेंट कुछ राजनीतिक हस्तियों के प्रति उत्तरदायी हों लेकिन कुछ गुप्तचर राष्ट्र के प्रति भी उत्तरदायी हो सकते हैं। इशरत प्रकरण से हो सकता है कि तत्काल कुछ राजनीतिक फायदा खास राजनीतिक दलों को मिल जाए, लेकिन व्यवस्थाओं के विखंडन से देश के प्रशासनिक प्रबंधन में जबरदस्त टुटन होगा, जिससे हो सकता है कि कुछ विदेशी शक्तियों को फायदा हो, लेकिन इस खेल में जो विदेशी शक्तियों के औजार बन रहे हैं, उनका पतन तो निश्चित है। इसलिए प्रतिपक्षियों को निपटाने में बडी सतर्कता बरतनी चाहिए, और खुद जल जाने के खतरे से बचना चाहिए। लोकतंत्र में षडयंत्र का कोई स्थान नहीं है। सत्ता आज नहीं तो कल फिर हासिल की जा सकती है, लेकिन जब व्यवस्था टूट जाती है तो वह फिर इतिहास के पन्नों में पढी जाती है। इसलिए कुछ शक्तियों को इतिहास से सीख लेकर इतिहास बनने से बचना चाहिए। 

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