मिथिला का अत्यन्त प्राचीन एवं महनीय परम्परा

र्यावर्त में मिथिला का अत्यन्त प्राचीन एवं महनीय परम्परा रहीहै वैदिक आर्य प्रायः सप्तसिन्धु प्रदेश तक ही सीमित थे किन्तु, उत्तर वैदिक काल के प्रारम्भ में ही आर्य मिथिला क्षेत्र में चुके थे लगभग ज्ञण्ण्र्ण्र् .पू. लिखित शतपथ ब्राहृमण की बहुश्रुत कथा के अनुसार विदेह माथव के नेतृत्व में ऋषिप्रवर पुरोहित गौतम रहुगण के साथ र्सवप्रथम सदानीरा -गण्डकी) को पारकर तत्कालीन निर्जन सघन वन प्रदेश में अग्नि स्थापन कर 'यज्ञिय पद्धति' से इस क्षेत्र को जनावास योग्य बनाया तथा यज्ञिय परम्परा से संयुक्त हुआ अग्नि आर्य संस्कृति का प्रतीक माना गया है तभी से वनाच्छादित यह प्रदेश विदेध अथवा विदेह कहलाने लगा वसाढÞ -वैशाली) से प्राप्त गुप्तकालीन मुहर में तथा वृहत् विष्णपुराण में इसे तीरभुक्ति कहा गया जिसका अपभ्रंश तिरहुत है नदियों पर स्थित होने के कारण ये पूरा क्षेत्र तीरभुक्ति कहलाया पर्ूव मध्यकाल में जिला अथवा परगना को भुक्ति कहते थे

विष्णुपुराण एवं भविष्य पुराण के अनुसार अयोध्या के र्सर्ूयवंशी निमि नामक राजा को ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण मृत्यु हो गयी क्योंकि राजा निमि ने एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ कराने का निश्चय किया तथा पुरोहित के लिए वशिष्ठ को आमंत्रित किया उस समय वाशिष्ठ इन्द्र द्वारा पांच सौ वर्षों तक चलने वाला यज्ञ करा रहे थे यज्ञ समाप्ति के पश्चात पुरोहित बनने का बचन दिया धर्ैय नही रखकर निमि ने गौतम को पुरोहित बनाकर यज्ञ प्रारम्भ किया इन्द्र के यज्ञ पश्चात् ऋषि वशिष्ठ निमि के यज्ञस्थल पर पहुँचे तो गौतम को पुरोहित देख अत्यन्त क्रोधित होते हुए निमि को तत्काल शाप दे दिया, निमि का देहिक जीव नष्ट हो गया निमि का कोई पुत्र नही था यज्ञ अधूरा देख ऋषि प्रवरों ने आपस में विचार-विमर्श कर निमि के अवशेषों को मथकर उस शरीर से जो बालक उत्पन्न हुआ उसे मिथि कहा जाने लगा मत्स्य पुराण के अनुसार 'मिथिस्तु मथनाज्जातः मिथिला येन निर्मिता ' दैहिक चेतना से रहित अर्थ की कल्पना कर 'विदेह' शब्द राजा विशेष की वाचकता हो गयी कालान्तर में विदेह पद राजवंश एवं राज्य दोनों के लिए वाचक हो गयी व्युत्पत्ति की दृष्टि से मिथि या मिथिला हिमालयी भाषा समूह के शब्द प्रतीत होता है मिथिला के अन्य व्यवहृत नाम है, नेभिकानन, ज्ञानपीठ, स्वर्ण्र्ााांगल, शाम्भवी, विकल्मषा, रामानन्दकृति, विश्वभाभिनी, नित्यमंगला, तपोवन, वृहदारण्य आदि इन सारे क्षेत्रों को सिद्धपीठ भी कहा जाता है इस क्षेत्र के सभी निवासी मैथिल कहलाते है विदेह माधव के उत्तराधिकारियों ने लम्बे समय तक मिथिला में राज्य किया महाकाव्यों तथा पुराणों में कोई पचपन राजाओं का वर्ण्र्ाामिलता है, निमि, मिथि, जनक, उदावसु, नन्दिवर्धन, सेकुत, देवरात, वृहद्रय, महावीर, सुधृति, धृष्टकेतु, हर्यश्व, मरु, प्रतीन्धक, कर्ीर्तिरथ, देवमीढ, विवुध, महीद्रक, कर्ीर्तिशत, महारोमा, स्वर्ण्र्ााेमा, ह्रस्वरोमा, सीरध्वज कुशध्वज आदि विदेह के जितने भी राजा हुए सभी तत्वज्ञानी के साथ ब्रहृमवेत्ता भी थे मिथि और देवरात के बाद सीरध्वज जनक सबसे अधिक विख्यात हुए जिनकी र्सर्ूयशाला में शिक्षित थियी के पुत्र अखरानन द्वारा मिश्र में सूर्योपासना की धार्मिक क्रान्ति लाने की उपकल्पना की गई हल के नासा से प्राप्त धरती पुत्री सीता हर्ुइ जिन्हें जानकी, वैदेही, किशोरी एवं मैथिली भी कहते हैं जानकी के अतिरिक्त सरस्वती इसी मिथिलांचल स्थित महोत्तरी -नेपाल) के अभृण ऋषि की पुत्री थी हैमवती उमा ने महादेव के परिणय सूत्र में आवद्ध होकर जगदीश की पदवी दिलायी
सति भवतु सुप्रीता देवी शिखर वासिनी
उग्रेण तपसा लब्धो यथा पशुपति पतिः ।।
अधिकांश दर्शन के बीज यहाँ अंकुरित हुये प्राचीन एवं नवीन न्याय के जनक गौतम एवं गंगेशोषाध्याय का आविर्भाव हुआ सांख्य दर्शन के पर््रवर्तक कपिल मुनि हुए मिथिला का व्यवहार धर्म का दर्पण बन गया - धर्मस्य निर्ण्र्ााेज्ञेयो मिथिला व्यवहारतः जैन और बौद्ध धर्मों को मिथिला में उर्वरा भूमि मिली परन्तु अन्तिम जनक कराल के दुश्चरित्रता से उस वंश का नाश हो गया और मिथिला 'वज्जिगणतंत्र' में चला गया समयक्रम में वज्जिगणतंत्र का विखराब हुआ और मिथिला सोलह सौ वर्षों तक परतंत्रता की बेडÞ में जकडÞ रहा ज्ञण्ढर्ठर् . में जब कर्ण्ााट क्षत्रीय राजा नान्यदेव इस प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया तो इसने मिथिला एवं स्वयं को मिथिलेश्वर कहना आरम्भ किया नान्यदेव के आगमन से पहली बार मिथिला को अपना राजा मिला कर्ण्ााट शासन काल में विशिष्ट वैवाहिक पद्धति अथवा पंजी व्यवस्था आरम्भ हर्ुइ, पांडुलिपियों तथा अभिलेखों को शक-संवत के अनुसार लिपिवद्ध किया जाने लगा विद्वतजन अपने विद्वता के बलपर धन और मान अर्जन करने लगे कर्ण्ााट तथा उनके उत्तराधिकारी ओईनवार शासकों की सुव्यवस्था में मिथिला लगभग सुरक्षित रही वस्तुतः पूरे आर्यावर्त में मिथिला ही ऐसा राज्य था जहाँ मुसलमान शासक सबसे अन्त में अपनी प्रभुता स्थापित कर सकी संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्ण्ााटवंशीय काल में मिथिला का एकीकरण होकर कला, साहित्य और मैथिली भाषा के विकास का उत्कर्षकाल रहा मिथिला पर कर्ण्ााटवंशीय का शासन लगभग द्दद्दठ वर्षतक चला जो स्वर्ण्र्ााल था उनकी राजधानी नानपुर से स्रि्रौनगढÞ स्थानान्तरित किया गया जो जनककालीन राजधानी जनकपुर से पश्चिम तथा बारा जिला के कलैया से बीस किलोमीटर दक्षिण पर्ूव में अवस्थित है कर्ण्ााटवंशीय का वैवाहिक सम्बन्ध काठमांडू उपत्यका के राजा के साथ भी था गणसुद्दीन तुगलक के आक्रमण के बाद अटूट मिथिला अप्राकृतिक रुप से दो भागों में विभक्त हो गया उत्तरी मिथिला मुसलमान शासक से विमुक्त रहा जबकि दक्षिण मिथिला मुसलमान शासक के अधीनस्थ हो गया बाद में चलकर मुसलमान शासक ओईनवार वंश को दक्षिण मिथिला का राज्य सौंप दिया, जिसके एवज में निर्धारित कर लेता था उत्तरी मिथिला का बचा हुआ शेष भाग का विभाजन ज्ञडज्ञट में पुनः हुआ जिसे हम सुगौली सन्धि से जानते हैं एकल मिथिला के विभक्त होने के बाद ही समय-समय पर सीमा का विवाद उचरता रहा है, जबकि दोनों राष्ट्रों का राष्ट्राध्यक्ष आर्यपुत्र ही हैं नेपाल का नामाकरण का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नही है कहा जाता है कि नेत्र मुनी बागमती एवं विष्णुमती के तट पर स्थित टेकु स्थान पर उनके घर में तपस्या किया करते थे वहाँ के संरक्षक राजा ने उन्हीं के नाम से उक्त स्थल का नाम रख दिया तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ घर और पाल का अर्थ ऊन होता है संस्कृत वांगमय के अनुसार देवताओं के वासस्थान को ने कहा जाता है भाषाविदों ने लिखा है - "ने नीतिः ताम्पालवति नेपालः" इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि न्यायः पाल्यते सः नेपाल वाद में चलकर यह पूरा क्षेत्र नेपाल के नाम से जनप्रिय हो गया वृहद विष्णुपुराण, मिथिला माहात्म्य, अध्याय ज्ञद्ध श्लोक द्धद्द-द्धद्ध के आधार पर कोशी से गण्डक तक, गंगा प्रवाह से हिमालय वन तक की तीरभुक्ति अथवा मिथिला कहा गया है श्री महेन्द्र नारायण शर्मा कृत मिथिलादेशीय - पञ्चांग, मृख पृष्ठ, सन् ज्ञघछज्ञ साल, ज्ञढद्धघ-द्धद्ध में प्रकाशित अनुसार
गंगा वहथि जनिक दक्षिण पर्ूव कौशिकी धारा
पश्चिम वहथि गण्डकी उत्तर हिमवत वन विस्तारा
कमला त्रियुगा अमृता धेमुरा वागमती कृत सारा
मध्य वहथि लक्ष्मणा प्रभृत्ति से मिथिला विद्यागारा ।।
आज ये लगभग पाँच हजार वर्षपर्ूव यह क्षेत्र गंगासागर का भाग था और अरब सागर से भी जुड था अजातशत्रु के समय मिथिला का ऐसा उत्कर्षकाल था कि चीन के दक्षिण भाग की वस्तियों का नाम मिथिला के नाम पर था यथा मानचाड का नाम मिथिला रखा गया था मिथिला का अतीत कहता है कि मिथिला याचना नही करता परन्तु अयाची ने शंकर को जन्म देकर सम्पर्ूण्ा जगत को वर्ण्र्ााकरने का सामर्थ्य दिया, भामती ने दीप को सहेज कर वाचस्पति का अंक पूरा की, भारती अर्द्धर्ाागनी के रुप में मंडन मिश्र को विजयश्री दिलायी, विद्योत्तमा ज्ञानदात्री बनी कालिदास का, सीता ने सहिष्णुता दी समस्त नारी समाज को आज धरती पुत्री सीता कराह रही है मिथिला की वेदना पर और मूक होकर अपनी माता के गर्भ से कह रही है, मिथिला विमुक्त हो हिंसा से, मीमांसा, न्याय, वेदाध्ययन से पटु तथा विद्वतजन से मंडित हों

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