राजनीति में किस सिद्धांत की बात कर रहे हैं नीतीश ?

 
गौतम चैधरी 

भारत के कथित समाजवादी आज चैराहे पर हैं। समाजवादियों को संरक्षण देने वाले और समय-समय पर स्वदेशी सोच के खिलाफ समाजवाद का उपयोग करने वाली सामंती गिरोह को भी इस बार हासिये पर ढकेल दिया गया है। सबसे बडी हार तो भारतीय साम्यवादियों की हुई। देश भर में कुल 10 सीट ही जीत पाये। मैं विगत एक मई के दिन कई समाचार-पत्रों को खंगाल लिया, लेकिन कही साम्यवादियों के लाल झंडे वाला समाचार नहीं मिला। न ही बडे-बडे संपादीक अग्रलेख दिखे जो किसी जमाने में अमूमल समाचार पत्रों की सोभा बढाया करती थी। खैर, हारे के हरिनाम! बडा अजीव लगता है जब खुर्राठस समाजवादी नीतीश कुमार सिद्धांतों की बात करते हैं। मैं उनकी दूरदर्शन प्रस्तुति देख रहा था, नीतीश जी मूल्य और सिद्धांतों की राजनीति की बात कर रहे थे। जब कोई राजनीति में मूल्य और सिद्धांत की बात करता है तो मैं बडा अजीव तरह से संवेदनशील हो जाता हूं। नीतीश कुमार जी की दूरदर्शन प्रस्तुति से कुछ ही देर पहले उन्ही की पार्टी के एक मुस्लिम समाजवादी नेता दूरदर्शन पर शेर सुना रहे थे ः -
 ‘‘ हम सच कहेंगे पर चर्चा नहीं होगी,
   वे झूठ बोलेंगे और लाजवाब कर देंगे। ‘‘

एक ओर नीतीश जी इशारों पर भाजपा के उपर सिद्धांत हीन राजनीति का अरोप लगाते हैं, तो दूसरी और शाबिर अली के शेर की तरजुमा भाजपा पर झूठ बोलने का अरोप लगा रही थी। सिद्धांतों के मामले में दूसरी पार्टी से आये राजनेताओं को टिकट देने की बात को थोडा दरकिनार कर दें तो भारतीय जनता पार्टी ने अपने सिद्धांतों से रत्ती भर भी समझौता नहीं किया, अपितु जो लोग भाजपा के साथ गये उन्होंने अपने कथित सिद्धांतों से समझौता किया है। यदि नीतीश जी भाजपा के साथ हुए तो उन्होंने भी 18 सालों तक भाजपा के साथ अपने सिद्धांतों से समझौता करते रहे। यह बात खुद नीतीश जी मान रहे हैं। यदि नीतीश कुमार सच्चे दिल से मूल्य और सिद्धातों की राजनीति किये होते, तो आज उनको यह दिन नहीं देखना पडता। नीतीश कुमार अपने पूरे राजनीतिक जीवन में मूल्य हीन और सिद्धांत विहीन राजनीति करते रहे हैं।

नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान, ये तीनों बिहार के महान समाजवादी नेता सम्माननीय करपूरी ठाकुर की राजनीतिक जमीन और संघर्ष की उपज हैं। हालांकि रामविलास जी आजकल अपने पूर्वाग्रही सिद्धांत को तीलांजलि दे, भाजपा के साथ हो लिये हैं लेकिन इन तीनों ने करपूरी जी के समाजवाद को जातिवाद में बदल दिया। इन तीनों ने धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर बिहर में हिन्दू विरोध के राजनीति की जमीन तैयार की और लम्बे समय से बिहार की राजनीति में हावी हैं। इन तीनों ने करपूरी जी के समाजवादी सिद्धांत की हत्या की। वैसे करपूरी जी के जीवन में ही समाजवाद दरक चुका था और करपूरी जी अपने गृहक्षेत्र समस्तीपुर से संसदीय चुनाव हार गये थे।

जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में देश भर में कांग्रेस के खिलाफ हवा बनी तो केन्द्र में भाजपा के बाहरी समर्थन से जनता दल की सरकार बनी। बिहार में भी समाजवादी सरकार बनने के आसार दिखे। बिहार में भी भाजपा ने समयोग दिया और जाति के आधार पर चै. देवीलाल एवं सरद यादव के समर्थन से लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन दिनों भी समाजवाद का जातिवादी स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिला। लालू जी ने बिहार में कंश राज्य की स्थापना की और धनानन्द की तरह शासन चलाने लगे। पटना से लेकर पूरे बिहार में जाति के आधार पर दंगे होने लगे। माओवादियों की लालू सेना सवर्णों को जति पूछ कर हत्या करने लगी। बिहार कविलाई संकृति की ओर लौटने लगा। उन दिनों जाति के आधार कथित समाजवादी संसाधनों का बटवारा किया करते थे। नीतीश कुमार, लालू के जातिवादी समाजवाद के प्रथम प्रहरी और सिपहसालार हुआ करते थे। उन्ही दिनों जातिवादी समाजवाद का विरोध करते हुए समाजवादी नेता रून्नी सैदपुर के विधयक और लालू मंत्रिमंडल के काबीना मंत्री नवल किशोर शाही लालू जी के मंत्रिमंडल से त्याग-पत्र दे दिये लेकिन नीतीश जातिवादी राजनीति का स्वाद चखते रहे। नीतीश जी से पूछा जाना चाहिए कि उन दिनों वे कौन से मूल्य और सिद्धांत की राजनीति कर रहे थे?

राजनीति और संसाधनों में कुर्मी-कुशवाहा की हिस्सेदारी पर नीतीश कुमार, सतीश कुमार, भीम सिंह, नागमणि और उपेन्द्र कुशवाहा, लालू का साथ छोड दिये। उन दिनों जाति के आधार पर सरद यादव लालू के साथ बने रहे। नीतीश गुट के समाजवादियों को जौर्ज फरलाॅडिस का सहयोग मिला और बिहार की राजनीति में नीतीश आगे बढने लगे। उन दिनों बिहार में भारतीय जनता पार्टी भी अपनी जमीन तलाश रही थी। बिहार के प्रभारी भजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री के. एन. गोविन्दाचार्य हुए और उन्होंने लालू विरोधी मतों के ध्रुविकरण का सिद्धांत दिया। कांग्रेस को छोड गोविन्द्र जी ने नये राजनीतिक गठजोड के लिए घुर साम्यवादी, सीपीआई (माले) तक को न्योता भेजा, लेकिन माले ने अपने सिद्धांतों से ममझौता नहीं किया पर नीतीश-जौर्ज वाली समता पार्टी भाजपा के साथ हो गयी।

कारवां आगे बढ और नीतीश जी,
‘‘ थोक बहुमत अबकी बार, नया बिहार नीतीश कुमार‘‘ के नारे के साथ सन् 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बन गये। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन मजबूत हुआ। उससे पहले नीतीश कुमार केन्द्र में राजग की सरकार में कई मंत्रालय सम्हाल चुके थे। बेफिक्र होकर नीतीश और रामविलाश दोनों राजग के साथ सत्ता सुख भेगे और उन दिनों उन्हें न तो धर्मनिर्पेक्षता की याद आयी और न ही अंदर से समाजवादी जमीर कुलबुलाया। बिहार में राजग की प्रथम सरकार में न केवल नीतीश जी के साथ उनके कुछ अनुभवी मंत्री सहयोग कर रहे थे अपितु नीतीश जी ने भाजपा के साथ भी बढिया ताल-मेल बिठा कर रखा थाा, पर जैसे ही उनको घमंड हुआ कि अब वे नाहक भाजपा को साथ लेकर चल रहे हैं, तो उन्होंने भाजपा को डंडा दिखाना प्रारंभ कर दिया। राजग प्रथम में निःसंदेह बिहार में व्यापक विकास हुआ, पर राजग दो में नीतीश मनमानी करने लगे। भाजपा के नेताओं और मंत्रियों को अपमानित करने लगे। नीतीश जी का जातिये चेहरा फिर से सामने आने लगा। नीतीश कुमार, बिहार की राजनीति को दलित, महा दलित, पिछडा, अति पिछडा, अगडा मुस्लमान, पसमदा मुस्लमान को बांटने लगे। जाति के आधार पर अपना बोट-बैंक मजबूत करने लगे। समाजवाद के मूल्य और करपूरी जी के सिद्धांतों को ताक पर रख दिया। बिहार की राजनीति में एक बार फिर से नीतीश जी ने जातिवादी राजनीति को हवा दे दी।

यह दौर भाजपा के आत्मचिंतन का दौर था। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अपने नायक की तलाश में था और वह नायकत्व भाजपा को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी में दिखने लगा। मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में लाने की कवायद होने लगी। नीतीश भाजपा से अलग होने की योजना पहले ही बना लिये थे, जैसा कि बाद में उन्होंने सार्वजनिक रूप से लोगों को बताया। मोदी के नाम पर वे भाजपा को छोड गये और बिहार के विकास का पूरा श्रेय खुद लेने लगे, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि बिहार में जिन मंत्रालयों में सबसे ज्यादा काम हुआ वह मंत्रालय भाजपा के कोटे के मंत्रियों के पास था। सरकारी अधिकारियों में जाति के आधार पर प्रतिनियुक्ति होने लगी। नीतीश कुमार ने भागलपुर दंगे के गडे मुर्दे को उखाड निहायत शरीफ लोगों को जेल भिवाया। अपने बोट-बैंक को मजबूत करने के लिए किशनगंज में केन्द्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय केन्द्र और छात्रावास बनवाने की योजना बनाई। करपूरी जी के भू-हदबंदी कानून को उन्होंने कभी छूआ तक नहीं न ही बटाईदारी कानून को लागू किया, पर बोट-बैंक के लिए जाति और संप्रदाय की राजनीति प्रारंभ की। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सरकार के मंत्रियों और अपने चहेते अधिकारियों पर कार्रवाई करने के बजाय भाजपा के कोटे से रहे मंत्रियों पर जांच बिठायी। इसके बाद भी नीतीश सिद्धांत की राजनीति की बात करते हैं और उनके नेता भजपा पर झूठ बोलने का अरोप लगाते हैं। तो अब कौन झूठ है और कौन सच, इसका फैसला जनता ने कर दिया है। बिहार की जनता किसी को सर आंखों पर बिठाती है, तो किसी को धूल चटा देती है। हालांकि बिहार की राजनीति किस करवट बदलेगा यह कहा नहीं जा सकता लेकिन बिहार केशरिया आंधी के स्वागत के लिए तैयार हो रहा है। जिस प्रकार लालू की राजनीति सामाप्त हो गयी उसी प्रकार नीतीश बिहार की राजनीति के नेपथ्य में चले जाएंगे।

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