तो किरण रिजिजू ने क्या गलत कह दिया?

गौतम चौधरी
किरण रिजिजू के गामांस खने वाले बयान पर हाय-तौवा मचा हुआ है। कुछ लोग यह कह रहे हैं कि किरेण ने घोर आपत्तिजनक बात कही है, तो कुछ लोगों का कहना है कि आखिर किरण ने गतल क्या कहा। खना, पीना, पहनना आद के लिए इस देश में कोई कानून नहीं बना हुआ है। दूसरी बात यदि सरकार कानून बनाने की सोचे भी तो वह लोकतंत्र एवं भारतीय संवाधान की मूल अवधारना के खिलाफ होगा। ऐसे में ग्राउंड जीरो पर खडा होकर यदि विचार किया जाये तो दोनों ही तथ्य सही हैं लेकिन जो लोग हिन्दुत्व के नाम पर किरण का विरोध कर रहे हैं उन्हें यह सोचना चाहिए कि आखिर किरण ने ये बात क्यों कही। किरण इस देश के गृह राज्यमंत्री हैं। वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं जो गंभीर नेतृत्वकर्ता के लिए जानी जाती है। मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे मिल चुका हूं। वे अनरगल बयानबाजी से अमूमन बचते हैं। ऐसे में किरण का यह कहना कि ‘हां मैं गाय का मांस खाता हूं, मुझे कोई रोकर दिखाए‘! इसके पीछे किरण और भाजपा की कोई न कोई रणनीति जरूर काम कर रही होगी। भाजपा और किरण यह साबित करने में लगे हैं कि जिस प्रकार यह देश कथित रूप से बहुसंस्कृति का देश है, उसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी भी अब लकीर का फकीर नहीं रही। यहां भी यदि एक ओर सैयद नकबी और योगी आदित्यनाथ जैसे लोग हैं तो दूसरी ओर घुर पंथनिर्पेक्ष किरण रिजिजू जैसे लोग भी हैं। दूसरी बात जो मरे ध्यान में आ रही है वह यह है कि जिस क्षेत्र से किरण आते हैं, उस क्षेत्र में वनवासी संस्कृति का बोलवाला है। किरण रिजिजू अरूणांचल प्रदेश के रहने वाले हैं। वहां ज्यादातर आदिवासी, बौध और नवईसाई मान्यता में विश्वास करते हैं। हालांकि इन दिनों हिन्दू आदिवासी अपने को हिन्दू पहचान के प्रति जागृत तो हुए हैं लेकिन आज भी वहां जानवरों को मारकर खाने की परमपरा है।

मेरे काका कुछ दिनों के लिए भूट्टान के चुक्का जलविद्युत परियोजना वाले केन्दीय विद्यालय में शिक्षक रहे। काका कहानी सुनाया करते थे कि भूट्टानी बौध गाय का मांस खाते हैं। गांव के लोग पूछते थे कि आखिर बौध अहिंसा में विश्वास करते हैं तो वे गाय आदि जानवरों की हत्या कैसे करते हैं? काका बताते थे कि जिस किसी जानवर का मांस भूट्टानियों को खाना हाता था वे उसे पहले पकडते थे फिर पैर बांधकर पहाड से नीचे लुढका देते थे। जब उसकी मृत्यु हो जाती थी तो उसे काटकर खा जाते थे। जब मैं पूर्वोत्तर में प्रवास पर गुआहाटी से हापलौंग जा रहा था तो एक बिहारी गाडी चालन ने मजे की बात बताई। उसने कहा कि नागा जनजाति के लोग कुत्ते का मांस बडे चाव से खाते हैं। मैंने पूछा हिन्दू नागा भी ऐसा करते हैं, तो उसने बताया, इस मामले में हिन्दू और ईसाई एक जैसे हैं। अब कोई इधर अपने उत्तर भारत में कुत्ते का मांस खने की कल्पना तक नहीं कर सकता है। तो मैं समझता हूं कि किरण जिस क्षेत्र से आते हैं वहां के लोग गाय का मांस खाना उतना बुरा नहीं मानते होंगे जितना हमारे समाज में माना जाता है। मेरे मित्र निरव कुमार सांगठनिक कार्य से बहुत दिनों तक पूर्वोत्तर में रहे। बता रहे थे कि गाय और भैंस की तरह दिखने वाला एक अलग किस्म का जानवर पूर्वोत्तर में पाया जाता है। उसे वहां की स्थानीय भाषा में आदिवासी मिथून पुकारते हैं। आदिवासियों में जिसके पास जितना मिथून होता है वह उतना ही धनी माना जाता है। मिथून को मारकर उसका मांस खाया जाता है। गाय पूर्वोतर में न तो पाला जाता है और न ही गाय को पूजने की वहां कोई परंपरा है। कुछ नेपाली गोरखा गाय पालते हैं और दूध का कारोबार करते हैं। आदिवासियों में गाय पालने की कोई परंपरा उजर नहीं है। ऐसे में इस मामले को हमें तूल भी नहीं देना चाहिए क्योंकि जब पूर्वोत्तर को यदि जोडने के लिए हम आकाश-पताल एक किये हुए हैं, तो इस मामले पर उन्हें हमें आजादी देनी होगी। दूसरी बात किरण जिसके मतों से जीतकर आए हैं वह समाज निसंदेह इस तथ्य से भिज्ञ नहीं होगा कि गाय खाना इतनी बुरी बात है। दूसरी ओर हिन्दुवादियों को भी इस मामले में इतना हायतौवा नहीं मचाना चाहिए। जब समाज को जोडने चलें हैं तो हमें कई मामलों में समझौता करना होगा। तभी हम अपना आधार व्यापक कर सकते हैं। गाय खाने की परंपरा हामारे समाज में नहीं है लेकिन हमारे समाज में कुछ ऐसे अनुसूचित जाति के लोग हैं जो गाय का खाल उतारते हैं। मुझे यह नहीं पता है कि वे गाय खाते हैं या नहीं खाते हैं लेकिन गाय का खाल उतारते तो मैंने उन्हें अपनी आंखों से देखा है। आज से मात्र 20-25 साल पहले, हमारे गांव के किसी ब्राह्मण को यदि चर्मकार दिख जाता था तो वो दिन में तीन वार स्नान कर गंगाजल, गंउट का सेवन कर कुश की चटाई पर बैठ पता नहीं कितनी बार गायत्री का जप करने के बाद उस प्रायश्चित से छुटकारा प्राप्त कर पाते थे।

इसलिए हमें यह सोचना होगा कि यह देश विविधताओं से भरा हुआ देश है। हर की अपनी अपनी परंपरा है और हर के अपने अपने सोच। हर की मान्यता है तो हर के अपने अपने देवता भी हैं। रांची में उन दिनों डाॅ. रामदयान मुंडा जिंदा थे। समझदार और विद्वान दोनों थे डाॅ. मुंडा। उन दिनों जब झारखंड में या तत्कालीन बिहार में जनजातिये क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों की तूति बोलती थी तो उन्होंने एक नया चिंतन दिया और कहा कि हम सरना धर्म के मानने वाले हैं। मतलब हमारी अपनी पहचा है। उस पहचान को लेकर डाॅ. मुंडा जीवनप्रयंत लडते रहे। आदनीय ललित उडांव और जतरा टाना भगत की अपनी परंपरा है। पूर्वोत्तर में भी नागा, कूकी, मिसमी, मिसी न जाने कितनी जनजातियां निवास करती है। उन जनजातियों में से न जाने कितनी जनजातियां आदमी तक का मांस खाती रही है। कुछ जनजातियां गाय का मांस भी खाती है। यदि ऐसे लकीर के फकीर बनते रहे तो हिन्दू समाज किसी कीमत पर व्यापक नहीं बन पाएगा। हमें यदि अपनी संस्कृति को व्यापक आधार देना है तो ताकत से नहीं शालीनता से अपनी बात समझानी होगी। रही बात किरण रिजिजू की तो उसका जनाधार जिस आदिवासियों में है उस आदिवासियों को कम से कम यह तो समझाना होगा कि उसका नेता उसके तरह का ही है। यदि योगी आदित्यनाथ अपने समर्थकों के लिए गो हत्या का विरोध कर सकते हैं तो किरण रिजिजू को भी अपने प्रशंसकों के लिए इस प्रकार का बयान देना नाजायज नहीं कहा जा सकता है।

दूसरी बात जो लोग गाय का ठेका लिए घूम रहे हैं उन्हें अपने गिरेवान में खुद झांकना चाहिए। गुजरात में गाय और गोबंशों की संख्या घट रही है। पंजाब में बेशकीमती किस्म की गायें समाप्ती के कगार पर है। हरियाणा, साहिवाल, रेड सिंधी आदि किस्म की गाय अब केवल कुछ ही गोशालाओं में संरक्षित है। हम जिस धर्म को मानते हैं और जिस मान्यता में विश्वास करते हैं उसमें यह कहां लिखा है कि गाय की हत्या मांत्र पाप है, उसमें यह भी लिखा है कि गाय हमारी मां है। जो लोग बूढे बैल और गायों को बेच देते हैं, उन्हें भी समान पाप लगता है। ऐसे में ज्यादातर गायों का सौदा करने वाले हमारे ही समाज के लोग हैं। गाय की रक्षा और सुरक्षा के लिए कानून का बनना एक बात है लेकिन उसके संरक्षण के लिए जबतक हिन्दू समाज जागृत नहीं होगा तबतक गाय को बचाना संभव नहीं हो पाएगा। किरण ने हमें यह सीख दी है कि पूर्वोत्तर में गाय के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है। यदि उस श्रद्धा को हमें बनाना है तो किरण के बयान पर विवाद खडा करने वालों को पूर्वोत्तर में जाकर उन आदिवासियों के साथ रहना और उनके उत्थान के लिए काम करना चाहिए जो न जाने कितनी शताब्दियों से कथित सभ्य भारत के साथ अपने जुडाव के लिए तरसते रहे हैं।

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