इससे तो हरीश रावत और कांग्रेस दोनों मजबूत होगी



गौतम चौधरी 
विगत कुछ दिनों से उत्तराखंड की राजनीतिक उठापटक चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। इन दिनों प्रदेश की सियासत ने केन्द्रीय राजनीति को भी प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया है। खबरों पर भरोसा करें तो उत्तराखंड के मामले को लेकर केन्द्र सरकार के मुखिया, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आनन-फानन में अपने मंत्रिमंडल की एक आपात बैठक की और तुरत-फुरत में राष्टपति शासन लगा दिया। राष्ट्रपति शासन लगाने के पीछे केन्द्र की रणनीति क्या है यह तो पता नहीं है लेकिन इस मामले को लेकर केन्द्र और भाजपा के प्रति गलत संदेश जाने का डर है। केन्द्र के इस निर्णय से पूरे देश में यह संदेश जाएगा कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा प्रतिपक्षी दलों के प्रदेश सरकारों में अधिनायकवादी डर पैदा करना चाहिती है। केन्द्र सरकार पर इस प्रकार के आरोप न केवल दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने लगाया है अपितु बिहार की नीतीश कुमार की सरकार भी लगा चुकी है। गोया आने वाले समय में क्या होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन इस पूरे प्रकरण से दो बातें तो पक्के तौर पर तय है। पहला पूरे देश में यह संदेश जाएगा कि भाजपा प्रतिपक्षी पार्टियों के द्वारा संचालित राज्य सरकारों को अस्थिर करने का अनैतिक और गैर संवैधानिक प्रयास कर रही है और दूसरा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत को बिठे-बिठाये आगामी विधानसभा चुनाव 2017 के लिए मुद्दा मिल जाएगा। वे पूरे राज्य में यह प्रचारित करेंगे कि भली-चंगी चल रही उनकी सरकार को भाजपा ने अस्थिर कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर पिछले दरबाजे से सत्ता पर हथिया ली। कांग्रेस का यह भी आरोप होगा कि यह प्रदेश का अपमान और लोकतंत्र की हत्या है। संभवत: इस मामले के कारण हरीश रावत को उत्तराखंड में एक सहानुभूति भी मिल सकता है। 
उत्तराखंड उपर से देखने में बड़ा शांत प्रांत लगता है लेकिन एक समय ऐसा भी था जब वहां बड़ी संख्या में दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाने वाले लोग थे। टिहरी घाटी को लाल घाटी के नाम से जाना जाता था। उसके निक्षेप आज भी देखने को मिलते हैं। भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी उनकी स्वीकार्यता उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं बन पायी है जबकि हरीश रावत की पकड़ सुदूर ग्रामीण इलाकों तक है। साथ ही जो परिस्थिति पूरे देश में बनी है उससे उत्तराखंड में भी एक व्यापक ध्रुव बनना तय है जिसके नेता हरीश रावत उभरकर सामने आ सकते हैं। इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा जबकि भाजपा को इस रणनीति का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यदि भाजपा थोड़ा इंतजार करती तो भाजपा को फ़ायदा हो सकता था। उत्तराखंड के लोगों को यह नहीं लगना चाहिए कि उनके द्वारा चयनित सरकार को केन्द्र दबाव में रखना चाहती है और केन्द्र अपनी अधिनायकता उत्तराखंड पर थोपना चाहती है। 
यदि केन्द्र की मोदी सरकार थोड़ी-सी भी राजनीतिक सूझ-बूझ से काम ली होती तो वह आनन-फानन में निर्णय लेने के बदले थोड़ा और इंतजार करती और उसका समाधान स्थानीय स्तर पर निकालने का प्रयास करती लेकिन केन्द्र ने ऐसा नहीं करके एक लोकतांत्रिक सरकार के साथ स्वाभाविक रूप से अन्याय की है। उत्तराखंड के मामले में केन्द्र सरकार को कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। यह इसलिए भी कि उत्तराखंड की राजनीतिक स्थिति थोड़ी अलग किस्म की है। अभी यह प्रांत हाल में ही बना है। यहां राजधानी के स्थान को लेकर भी विवाद चल रहा है। दूसरी बात यह है कि उत्तराखंड भौगोलिक ही नहीं सांस्कृतिक दृष्टि से भी तीन भागों में विभाजित है। गढ़वाल, कुमाऊं और मैदान ये तीनों अपने-अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए आपस में भी लड़ते रहते हैं। चूकी देहरादून गढ़वाल से निकट है इसलिए गढ़वाली, उत्तराखंड की राजनीति पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं। इस बात को लेकर कुमाऊंनी और मैदानी, गढ़वालियों से चिढ़े रहते हैं। पिछले लोकसभा आम चुनाव में भाजपा ने राज्य के सभी पांचों संसदीय क्षेत्र से पहाड़ी मूल के नेताओं को चुनाव में उतारी थी। इस बात को लेकर मैदानी इलाके में भाजपा के खिलाफ़ जबरदस्त प्रतिक्रिया है। उधर भाजपा के द्वारा बनाए गये मुख्यमंत्रियों में थोड़े समय के लिए ही कुमाऊंनी और मैदानी मूल के नेता मुख्यमंत्री बन पाए। शेष अधिकतर समय गढ़वालियों का ही भाजपा पर वर्चस्व रहा है। यही नहीं उत्तराखंड में राजपूतों की संख्या 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर गढ़वाली ब्राrाणों को ही भाजपा आगे करती रही है। ये सब ऐसी बातें हैं जो भाजपा की राजनीति को कमजोर करती है। हालांकि भाजपा समर्थक संगठनों ने पहाड़ पर जबरदस्त काम किया है लेकिन आज भी पहाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा के प्रति स्वीकार्यता का आभाव दिखता है। जबकि कांग्रेस के नेता हरीश रावत अपने बल पर पूरे उत्तराखंड में अपना प्रभाव रखते हैं। यही नहीं उन्होंने पूरे उत्तराखंड में समान रूप से काम करवाया है। उनके समर्थक न केवल गढ़वाल में हैं अपितु कुमाऊं में भी हैं। उनकी व्यक्तिगत छवि भी भाजपा के अन्य नेताओं से अच्छी है। यदि भाजपा से भगत सिंह कोश्यारी को हटा दिया जाये तो उत्तराखंड को संपूर्ण रूप से नेतृत्व देने वाला पूरे भाजपा में कोई नेता नहीं है लेकिन भाजपा में गढ़वाली ब्राrाणों की लॉबी इतनी मजबूत है कि कोश्यारी को भाजपा नेतृत्व कभी आगे करने का सोच भी नहीं सकती है। 
तीसरी बात यह है कि जो लोग कांग्रेस से बगावत करके भाजपा के साथ मिलकर हरीश रावत की सरकार को गिराना चाहते हैं उनमेंसे अधिकतर नेता दागदार हैं। हरक सिंह रावत के खिलाफ़ एक महिला गंभीर आरोप लगा चुकी है। वह मामला फ़िलहाल दबा हुआ है लेकिन हरक की छवि इस मामले में दागदार है। सुबोध उनियाल, अमृता रावत, कुंवर प्रणव सिंह चैम्पियन आदि नेता हर मामले में हरीश रावत के सामने बैंने हैं लेकिन सब के सब प्रदेश के मुख्यमंत्री ही बनना चाहते हैं, जबकि हरीश रावत, छवि के मामले में बेदाग हैं। उनके उपर किसी प्रकार का गंभीर आरोप आजतक नहीं लगा है। यही नहीं अपनी संस्कृति और धर्म के प्रति भी वे निष्ठावान हैं। ऐसे में भाजपा को चाहिए कि वह हरीश रावत को अपने कार्य और अपने नेतृत्व को धरदार बनाकर हरीश रावत के उपर प्रहार करे। भगत सिंह कोश्यारी जैसे इमानदार छवि वाले नेताओं को तरजीह दे और जातीय एवं क्षेत्रीय संतुलन बनाकर कांग्रेस के कद्दाबर नेता हरीश रावत का जवाब दें। वर्तमान में भाजपा जिस तरीके से मामले को संचालित कर रही है उससे भाजपा की छवि खराब होगी और हरीश रावत ही नहीं कांग्रेस पार्टी को संजीवनी मिलेगी। जिस संजीवनी के माध्यम से कांग्रेस उत्तराखंड ही नहीं बगल के प्रांत उत्तर प्रदेश और हिमाचल में बेहतर प्रदर्शन करने की स्थिति में आ सकती है और भाजपा के बारे में यह संदेश जाएगा कि यह एक बार फिर से केन्द्र की अधिनायकता को प्रश्रय देने लगी है। 

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