गरीबी, अशिक्षा के कारण नहीं मध्ययुगीन सोच से बढ रही है कट्टरता


-------हसन जमालपुरी---------



सच पूछिए तो भारत में कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। यहा कभी भी अन्य देशों की तरह कट्टरता नहीं रही। हां चिंतन में विवाद हुए लेकिन वह एक वौद्धिक स्तार पर होता रहा है। सामान्य जन में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है। यही नहीं इतिहास गवाह है कि इस देश में जिस राजा ने एक धर्म को प्रश्रय देकर उसे मान्यता प्रदान किया और ताकत के दम पर लोगों के उपर लादने की कोशिश की उससे न तो उक्त धर्म का कल्याण हुआ और न ही राजा का उलट धर्म और राजा दोनों धाराशाई हो गया।
मसलन भारत में साम्प्रदायिक सदभाव में खलल डालने के उद्देश्य से भारत पर केन्द्रित इस्लामिक राष्ट्र हेतु अभी हाल में प्रचार-वीडियो जारी किया गया लेकिन उसे हमारे यहां के मुस्लिम नेताओं ने सिरे से खारित कर दिया। उनके अनुसार अगर हमारे पास इस्लामिक राष्ट्र जैसे दोस्त हों तो दुश्मन की जरूरत नहीं है। समुदाय के एक वरिष्ठ नेता, गुलाम पेशीमाम कहते हैं कि वे भारतीय मुसलमानों का दिल तब तक नहीं जीत सकते, जब तक भारत में लोकतंत्र, धर्मनिर्पेक्षता और निष्पक्ष न्याय प्रणाली जिंदा है।
हालांकि उनका माना है कि भारतीय समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण इस्लमिक राष्ट्र को एक उपजाउ मैदान उपलब्ध करवा सकता है। मुस्लिम नेताओं ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि इस्लामिक राष्ट्र जिस वीडियो के माध्यम से काफिरों के साथ मिलकर कुछ मुस्लिम नेताओं और मौलवियों पर हमला कर रहे हैं, वह निंदनीय है। भारतीय मुसलमानों और मुस्लिम चिंतकों ने इस्लामिक राज्य के आतंकवादी को सिरे से अस्वीकार करते हुए कहा कि उन्हें दैस या आईएसआईएस जैसे हिंसक किसी भी संगठन की वकालत करने की जरूरत नहीं है।
ये विचार औल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता बदरूद्दीन अजमत ने रखे हैं। यह भी सत्य है कि मुसलमानों को भारत में मतदान का अधिकार है और वे यहां बाकायदा धार्मिक स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे हैं। यही करण है कि वे आईएसआईएस के प्रचार से आकर्षित नहीं होते। विगत दिनों इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के नेता परवेज लकड़वाला ने भी कुछ इसी प्रकार की बातें कही। उन्होंने कहा कि इस्लामिक राष्ट्र मुसलमानों के हमदर्द नहीं हो सकते क्योंकि वे एक मध्ययुगीन मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस्लामी विद्वान-मौलाना बहीदुद्दीन खान का भी लगभग यही कहना है। वे कहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म है और आईएसआईएस जो करता है, वह गैर-इस्लामिक और अमानवीय है तथा भारतीय मुसलमान इनके जाल में नहीं फंसेंगे। इस्लामिक राष्ट्र द्वारा जारी वीडियो भारत में ज्यादा से ज्यादा युवाओं को लुभाने हेतु जारी किया गया था लेकिन उसका प्रभाव महज थोड़े-से नौजवानों पर ही दिख रहा है। ज्यादातर नौजवान बेहद समझदार हैं जो इस्लामिक स्टेट को खारिज करते हैं।
लिहाजा प्रायः यह देखने में आया है कि अस्ट्रेलिया जैसे देशों में मुस्लिम समुदाय के नेता अक्सर उस मौके पर वहां की सरकार के खिलाफ एकजुट हो जाते हैं जब वह सरकार महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों में उनसे विचार-विमर्श नहीं करती तथा कट्टरवाद के मामले से निपटने में नाकाम प्रतीत होती है। इसके विपरीत जब कभी आप इन मुस्लिम नेताओं से उनकी समस्याएं बताने व उनके हल सुझाने की बात करेंगे, तो इस विषय में उनकी सोच सिर्फ किताबी ज्ञान से थोड़ी ही अधिक होती है, जबकि उन्हें सुलझाने के लिए सामाकजिक व आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए उन मुस्लिम नेताओं से सही अर्थों में विचार-विमर्श की आवश्यकता है।
एक बात और अकसरहां बहस में मुस्लिम नेताओं का यह दावा होता है कि सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों से कट्टरवाद जोर पकड़ता है। मेरा मानना है यह गलत अवधारणा है। बल्कि यह उनकी रूढ़िवादी सोच की तरफ भी इशारा करता है। इस क्षेत्र में एलन कुर्रेगर, जितका मालेकोव, किस्टीन फेयर तथा कई अध्ययनकर्ताओं द्वारा किए गए गहन अध्ययन में यह पाया गया है कि आतंकवाद, कट्टरवाद व आर्थिक, सामाजिक कारणों के मध्य कोई सामान्य संबंध नहीं है। यह भी सत्य है कि अयमान-अल-जवाहिरी, ओसामा बिन लादेन और खालिद शेख मुहम्मद जैसे कुख्यात बहुराष्ट्रीय आतंकवादी न केवल उच्च शिक्षित हैं अपितु आर्थिक दृष्टि से भी मजबूत हैं। ठीक इसके विपरीत तर्क देने वालों के कारण धर्म और पहचान के मुद्दे एक ओर धकेल दिए जाते हैं। जो मुस्लिम नेताओं की बहस का मुख्य विषय होता है। यह धारणा कि समस्या न तो इस्लाम धर्म में है, न ही कुछ गिने-चुने मुसलमानों की वजह से है, बल्कि इसकी जड़ वह माहौल है जिसमें वह मौजूदा समय में रह रहे हैं, बिल्कुल गलत है। देखिए भारत में मुसलमान के अलावा अन्य अल्पसंख्यक भी रहते हैं लेकिन उनके यहां इस प्रकार की कोई समस्या नहीं है। वे भी मुसलमानों जैसे ही सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक वातावरण में रह रहे हैं किन्तु उनके समाज में आतंकवाद तो है ही नहीं यदि कट्टरवाद है तो वह दूसरे तरह का है। अंतरमुखी है जो दूसरे समुदाय के लोगों को घाटा नहीं पहुचाता है।
मुस्लिम नेताओं की धर्म से संबंधित पहलुओं को नकार देने की प्रवृत्ति वह मुख्य कारण है जो मुस्लिम नोजवानों में अपनी पहचान के संकट को पैदा कर रहा है व जिसके कारण ये नौजवान कट्टरवाद की ओर आकर्षित हो जाते हैं। इसपर मुस्लिम विद्वानों को ध्यान देने की जरूरत है। हम इस बात को क्यों नहंी समझते कि इस्लाम में जो मुख्य समस्या है, वह उसके इस्तेमाल को लेकर है, खासकर, जब इस धर्म के प्रति लोगों का नजरिया काफी तंग है।
लगभग 1000 वर्ष पूर्व एक मुस्लिम कवि अल-मरी ने कहा था कि मस्जिदों में घृणा एवं कट्टरता को बढ़ावा देने वाले उपदेशों की तुलना में वे मुसलमान खुदा के ज्यादा करीब हैं जो इस तरह की स्थितियों से खुद को दूर रखते हैं। इसी तरह अल-अफगानी, डाॅ. मोहम्मद इकबाल, सैयद अहमद खान, अली शरीयती इत्यादि प्रख्यात इस्लामी विद्वानों ने 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के दौरान यह कह गए कि मुसलमानों एवं इस्लामी सोच में सुधार की सख्त जरूरत है किन्तु उनके कथनों को उन्हीं के समुदाय के कई लोगा यह कहकर दबाते रहे हैं कि इन विचारों को यथास्थिति ही रखा जाए।
आज भी मुस्लिम समुदाय के नेता उसी पुरानी याथस्थिति रखने वाली ताकतों की तरह पेश आ रहे हैं जिनकी इस्लाम के प्रमुख राजनीतिक व धार्मिक मसलों पर कोई पकड़ नहीं है तथा जिनमें इतिहासिक संदर्भों के बारे में अज्ञानता है। यह भी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मुस्लिम समुदाय के ज्यादातर नेताओं को इस्लाम के राजनैतिक इतिहास एवं कट्टरवाद की समझ न के बाराबर है व इसी कारण से वे सरकारों को इन मसलों का संवेदनशील हल नहीं सुझा पाते।
चुनांचे फिर भी इन नेताओं में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि उनसे विशेषा के तौर पर इस्लाम के हर मुद्दे व कट्टरवाद के विषय पर परामर्श किया जाए। वैसे तो उनसे परामर्श करने में काई आपत्ति नही है किन्तु सरकार किस नेता से इस संदर्भ में परामर्श करे, यह एक बड़ा प्रश्न है। क्येांकि सच्चाई यह है कि ना तो एक इस्लाम है और न ही कोई एक व्यक्ति संपूर्ण इस्लाम का प्रतिनिधित्व करता है। अर्थात हम शिया, सुन्नी, बरेलवी, देवबंदी या अहमदी मुसलमानों में बंटे हुए हैं। मसलन सरकार किससे बात करे। ये सारे के सारे फिरके एक- दूसरे को गैर-मुस्लिम या काफिर धोषित करने पर तुले रहते हैं। मान लिया जाए कि सरकार वर्ग के आधार पर मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ाए तो उन जाति समूहों का क्या होगा जिनमें नस्ल के आधार पर मुसलमान बंटे हुए हैं। उदाहरण के लिए, तुर्की, लेबनानी, एवं पाकिस्तानी मुसलामन अपनी-अपनी मस्जिदों इमामों की पहचान से जाने जाते हैं और यह कुदरती बात है कि उनकी इस्लाम की समझ तथा कट्टरवाद की समस्या का समाधान भी एक-दूसरे से भिन्न ही होंगे।
यह एक बैचेन करने वाली बात है कि इस्लाम को अंदरूनी सुधार की सख्त जरूरत है, क्येांकि इसमें पहले भी काफी वक्त खराब हो चुका है जिसके परिणामस्वरूप इस्लाम को अंदर ही अंदर नुकसान पहुंच रहा है व जिस वजह से मुसिलम नौजवानों में पहचान का संकट पैदा हो गया है। यही पहचान का संकट कट्टरवाद की समस्या का मूल कारण है जिसकी वजह से मुस्लिम नौजवान आतंकवादी संगठनों के दुष्प्रचार का शिकार होकर इस्लामिक स्टेट एवं अन्य आतंकवादी संगठनों में भर्ती हो रहे हैं।
इसलिए हमें पहले संगठित होना होगा। इस्लाम को इस्लाम की तरह परिभाषित करना होगा। हम इस्लाम को एक मानें और अपनी सरकार के प्रति विश्वास रखकर उनसे अपनी समस्या का समाधान ढुंढने को कहें। अपने बच्चों को मध्य कालीन सोंच से निकालें एवं दुनिया के साथ कदम में कदम मिलाकर चलने की कोशिश करे। मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। और भारत में तो सदा से सहिष्णुता रही है। एक चिंतन दूसरे चिंतन का कभी विरोधी नहीं रहा। यहां तो एक चिंतन दूसरे चिंतन का पोषण करता रहा है। इस्लाम को हम नए रूप में परिभाषित करें और भारत को एक ताकतवर देश बनाएं यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

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