यदि मैं कहूं कि बंगाल में मांशाहर की परंपरा से ज्यादा मजबूत परंपरा शाकाहार की रही है तो?

गौतम चौधरी
बंगाल का जहां कही नाम आता है तो मांशाहारी व्यंजनों की चर्चा जरूर होती है। खास का माछ-भात की चर्चा के बिना बंगाल की चर्चा अधूरी होती है लेकिन बंगाल में माशांहारी व्यंजनों के अलावा शाकाहारी व्यंजन भी बड़े चाव से पड़ोसे जाते हैं। आज हम बंगाल के शाकाहारी व्यंजनों पर प्रकाश डालने वाले हैं। तो आइए हम आपको बंगाल लिए चलते हैं जहां आपको निरामिष व्यंजन का स्वाद चखाएंगे!

बंगाल कहने के लिए शाक्त संप्रदाय का केन्द्र है लेकिन यहां वैष्णव आन्दोलन का भी व्यापक प्रभाव रहा है। यही नहीं यहां वौद्ध और जैनियों के प्रभाव के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसलिए यदि यह कहा जाए कि बंगाल में केवल मांशाहारी व्यंजन का ही दबदबा रहा है यह सत्य नहीं है। मसलन बंगाल, बांग्ला और बंगाली का जिक्र आते ही एक चीज अपने आप जुड़ जाती है. बंगाल की संस्कृति का एक अहम हिस्सा मछली। मछली चावल या माछ-भात, फिश फ्राई या मछली के अंडों के पकौड़ों को बंगाल का पर्याय मान लिया गया है। 

बंगाल और मछली का संबंध अंतर्निहत बताया जाता है लेकिन उससे अलग बंगाल का निरामिष खाना एक ऐसी चीज है जिसके ढेर सारे मुरीद हैं। बंगाल का निरामिष खाना कई कारणों से अनूठा है। बंगाली निरामिष भोजन बिना प्याज-लहसुन, गरम मसालों के पकवानों का खाना है जो, उत्तर भारत के पनीर और आलू जैसे शाकाहारी भोजन से अलग है। बंगाल की निरामिष थाली अपने स्वाद में तो खास है ही लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत इसका इतिहास है। आज हम आपाको इसके इतिहास के बारे में भी बताएंगे।

कुछ लोगों का मानना है कि बंगाली शाकाहारी खाना लंबे समय तक भद्रलोक और संस्कृति के नाम पर हुए महिलाओं के शोषण की बहुत बड़ी मिसाल है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूं। इसके पीछे कई तर्क मेरे पास हैं लेकिन उन तर्कों की मिमांशा फिर कभी करूंगा। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि रोजमर्रा के जीवन में मिले अथाह दर्द को बंगाली दादी, नानियों ने अपनी कलात्मकता और रचनात्मकता के साथ थाली में परोस दिया।

बांग्ला निरामिष खाने के कद्रदान ऐसी बहुत सी सब्जियों, फूल और साग के बारे में बताते हैं जिनको बाकी कहीं और के लोग खाने की थाली में नहीं देखते हैं। कच्चा केला, सजहन, पुई, सन जैसी तमाम चीजों से सब्जियां बनती हैं और चाव से लोग खाते हैं।

बंगाल के निरामिष खाने के पकवानों पर नजर डालने के बाद कई रोचक और स्वादों से व्यंजनों का पता चलता है। कच्चे केले से बना मोचार झोल, कद्दू, मूली और दूसरी कंद जैसी सब्जियों को मिलाकर बनी चर्चड़ी, सजहन की सब्जी, पुई का साग, परवल, बेसन को केक जैसा बनाकर बनी धोखे की सब्जी, कटहल से बनी मांस जैसी सब्जी, एचड़ की सब्जी जैसी कई सब्जियां है।

इनमें से कई सब्जियों के बारे बिहार के लोग भी अच्छे से जानते हैं। इसका कारण बंगाल के विभाजन से पहले अधिक्तर बिहार और उड़ीसा का उसमें शामिल होना है। इसके साथ ही इन दोनों वर्तमान राज्यों के लिए कलकत्ता ही मजदूरी और नौकरी पाने वाला सबसे बड़ा शहर था।

सवर्ण बंगाली भद्रलोक पर दो प्रभाव और दिखते हैं। बंगाल में मारवाड़ियों और अंग्रेजों का बड़ा असर रहा। मारवाड़ियों से जहां खाने पीने की कई चीजों का आदान-प्रदान हुआ, ब्रिटिश विक्टोरियन सोसायटी से भी बहुत चीजें आईं और हद से ज्यादा बंगाली और भारतीय बन गईं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश नेशनल डिश फिश ऐंड चिप्स का बंगालीकरण माछ-भाजा और आलू भाजा बन गया। पुडिंग और कटलेट खाने का सामान्य हिस्सा बन गए।

सबसे बड़ी मिसाल चाय की है। रवींद्रनाथ के उपन्यास चोखेर बाली (आंख की किरकिरी) में एक प्रसंग है। नायिका विनोदिनी बाल विधवा है और उसका अफेयर चल रहा है। एक दूसरी बूढ़ी विधवा विनोदिनी के साथ छिप कर चाय पी रही है। विधवा का चाय पीने के पीछे मजेदार तर्क है। वो कहती है चाय तो उबली हुई पत्तियां हैं। शास्त्रों में पत्तियां उबाल कर पीने के लिए मना थोड़े ही किया गया है। विनोदिनी जवाब में कहती है, जीभ की भूख मिटाना सही, शरीर की भूख मिटाना गलत।

कभी मौका लगे तो बंगाल की निरामिष थाली का स्वाद लीजिए और कम से कम एक पल के लिए उन महिलाओं को याद कीजिए जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी उस थाली को अपनी बेहद योज्ञता से जिंदा रखा है। निरामिष थाली बंगाल में वैष्णव प्रभाव का भी प्रतीक है। यही नहीं इससे यह भी पता चलता है कि बंगाल किसी जमाने में जैन और बौद्ध के व्यापक प्रभाव में था।

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