यदि इस्लाम को बचाना है तो हमें नकारात्मकता को हतोत्साहित करना होगा



हसन जमालपुरी 

मैं इस्लाम के बारे में सकारात्मक सोच रखने वालों में से हूं। इसलिए मैं इस्लाम की समारामकता से ही आपको परिचय कराउंगा। मसलन इसलाम में जो भी नकारात्मक दिख रहा है वह इस्लाम का अंग है ही नहीं जैसे आप फतवों के बारे में सुनते होंगे। इस्लाम में फतवों का विधान है लेकिन आजकल जिस प्रकार के नकारात्मक फतवे जारी किए जा रहे हैं उसका हमारे यहां कोई स्थान नहीं है। चुनांचे इस्लाम में जीवन को जीने का पूरा कायदा दिया गया है। यह मुस्लिमों को भाईचारे, शांति और पड़ोसियों के प्रति प्यार-मुहब्बत रखने का उपदेश देता है।

इस्लाम अपने पड़ोसियों के मजहब पर विचार किए बिना उनके साथ आपसी रिश्ते और सहयोग रखने पर जोर देता है। साथ ही पड़ोसियों से किसी भी रूप में घ्रिणा करने या नुकसान पहुंचाने के लिए भी मना करता है। एक मुस्लिम होने के नाते यह स्वीकार करना चाहिए कि सभी मनुष्य आदम और हौवा के संतानें हैं, इसलिए सभी आपस में बराबर हैं। कुरान मजीद में भी यह कहा गया है कि अल्ला की खिदमत करों और उसके साथ किसी और को खड़ा ना करो। अपने माता-पिता, रिश्तेदारों, अनाथों, जरूरतमंदों, पड़ोसियों, अजनबिनयों, अपने साथियों, मुसाफिरों और भले आदमियों के साथ अच्छा बरताव करो क्योंकि अल्ला खुदपरस्तों तथा बड़बोलों को प्यार नहीं करता है।

पैगम्बर मोहम्मद ने साफ-साफ फरमाया है कि फरिस्ता जिब्राइल ने बार-बार मुझे अपने पड़ोसियों की देख-रेख करने के लिए कहा, जबतक कि मैं यह नहीं समझने लगा, अल्लाह उन्हें ही अपना वारिस बनाएंगे। उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि आपके घर से अगले घर में रहने वाला ही व्यक्ति आपका पड़ोसी नहीं है बल्कि सभी दिशाओं में रहने वाले 40 घरों तक के लोग भी आपके पड़ोसी ही हैं। अगर किसी मुस्लिम का पड़ोसी भूखा हो तो उसे भी खाने का हक नहीं है। इसका मतलब यह है कि मुस्लिम को अपने पड़ोसी के सुख-दुख को बाटते हुए उनके लिए भी वही कामना करनी चाहिए जो वे खुद के लिए करते हों। पड़ोसियों के उच्च अधिकारों के बारे में पैगंबर कहते हैं, वे इंसान जो अल्लाह और कयामत के दिन में विश्वास करखते हैं, कभी भी अपने पड़ोसियों के लिए मुश्किल और परेशानियां पैदा ना करें।

अपने मेहमानों का एजाज करें और सिर्फ अच्छा बोलें या चुप रहें। इस मामले में यह भी कहा गया है कि जो अल्लाह और कयामत के दिन में विश्वास रखते हैं, वे अपने पड़ोसियों के साथ भलाई करें। संक्षेप में हरेक सच्चा मुस्लिम अपने पड़ोसियों की जाति, तबके, मजहब पर विचार किए बिना उनके साथ बढ़िया बरताव करे। गोया उसकी मदद करे। उनका अदब करने और उनके प्रति दया भाव रखे। हर इमान वालों को याद रहे अल्लाह पड़ोसियों के अधिकारों को एक मजहबी जिम्मेदारी समझने की सलाह देते हैं।

भारत जैसे बहु धार्मिक समाज में लोगों के परस्पर रिश्तों को मजबूत करने के लिए जरूरत है कि हजरत मोहम्मद साहब द्वारा सुझाए गए सांप्रदायिक सदभावना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के ढ़ांचे को सामुदायिक और धार्मिक नेताओं द्वारा एक बड़े स्तर पर प्रचारित किया जाए। आतंकवादियों, कट्टरवादियों और इंतहां पसंदों द्वारा उन बांटने और नफरत करने वाली विचारधाराओं को फैलाने से रोक सकें, जिसका इस्तेमाल वे लोगों में फसाद और धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए करते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अल्लाह ने हजरत मोहम्मद साहब को लोगों को बांटने की बजाए जोड़ने के लिए भेजा है। मसलन-तुम यकीनन अल्लाह के नबी हो जो सर्वश्रेष्ट हो और उन सबके लिए एक आशा हो, जो अल्लाह और आखरत में विश्वास करते हैं और हमेंशा अल्लाह को याद करते हैं। इस बात का कुरान और सुन्नत ने भी समर्थन किया है।

हजरत साहब ने सहअस्तित्व की चार संरचनाओं की बात की है, जो इस प्रकार है: - मक्की-धैर्य तथा सहअस्तित्व जो आचार के महत्वपूर्ण कानून हैं; एबिसीनिया-बफादारी महत्वपूर्ण मूल्य; मदीनियां 1-बहुलवाद तथा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, महत्वपूर्ण चिंह, मदीनियां 2- न्याय तथा प्रबुद्ध स्तर, एक मारक पहचान। ये सभी माॅडल मिथक-ए-मदीना के संविधान में शामिल है, जिसका मकसद धार्मिक भेद-भाव के बिना शांतिपूर्ण तथा सुरक्षित बातावरण देना, प्रत्येक समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रा की रक्षा करना, नागरिकों की व्यक्तिगत जिम्मबारी को पहचानना तथा समान अवसर प्रदान करना था।

कट्टरवादी तत्व नकारात्मक भाषणों का सहारा लेते हैं और लगातार गैर मुसलमानों के प्रति घृणा व द्वेष की भावनाए फैलाते हैं और अपने निजी स्वार्थों के खातिर नकारात्मक जजबातों को उक्साते हैं। अतः उपरोक्त चार माॅडलों व उनमें बताए गए तत्वों की सहायता से यहां लोगों का समाजिक बंधन मजबूत किया जा सकता है, वहीं गलत तत्वों के बुरे मकसद को भी पछाड़ा जा सकता है।

अब जिस मजहब में इस प्रकार के उद्दात विचार दिए गए हों वहां सामान्य और संकीर्ण विचारधारा का को अस्तित्व नहीं बचता है। इसलिए हमें ऐसे फतबों को हतोत्साहित करना चाहिए जो समाज में विद्वेष पैदा करता है। कई फतवे जो फिक या बली-अल-फकी की पृष्टभूमि में स्वयंभू मुफ्तियों या इस्लामिक स्कालरों द्वारा जारी किए गए थे वे व्यक्तिगत या सामोहिक तौर पर लोगों को दिशा निदेर्श देने की बजाए मात्र एक धार्मिक वाचालता बनकर रह जाते हैं। बहरहाल, इस तरह के फतवे, जो किसी की अज्ञानता से उपजे हों उसका परिणाम रूढिवादी, कट्टरवादी और आतंवादी विचारधाराओं के प्रति एक छिपी सहानुभूति के तौर पर निकलता है।

इसके लिए हमें आगे आना होगा। इसके परिणामस्वरूप हम राष्ट्रीय मुख्यधारा तथा सामूहिक तौर पर अपने व्यक्तिगत समाज तथा देश के लिए किए जाने वाले सामूहिक प्रयासों से पथभ्रष्ट हो जाते हैं। ये कट्टरवादी समूह कई बार अपना पूरा समय धार्मिक ग्रंथों को अपने ढंग से समझाने, उनकी व्याख्या करने तथा उसे अपनाने के लिए लगा देते हैं, जो उनके मकसद को पूरा कर सकते हों। इसका जमीनी सच्चाई व वस्तुपरक तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं होता है। वे चाहते हैं कि इन्हें वे कई दफा हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकें।

पिछले समय में कट्टरवादी आतंकवादी संगठनों द्वारा जारी फतवों के कारण ही मासूमों का कत्ल किया गया और अंधाधुन हिंसा फैलाई गयी। इस तरह के ज्यादातर फतवे इत्येहाद, आधुनिक विचारों व लोकतात्रिक मूल्यों का विरोधाभाष है जो जेहाद के नाम पर हिंसा को न्यायोचित ठहराते हैं। इस तरह के तत्वों द्वारा जारी फतवों से होने वाले शोषण को रोकने और लोगों को बचाने के लिए तथा इनके दुष्परिणामों का मुकाबला करने के लिए कई मुस्लिम देशों जैसे, संयुक्त अरब अमिरात, सउदी अरब, बांग्लादेश तथा जौर्डन इत्यादि ने अपने यहां औपचारिक मंचों का गठन किया है। इनमें ऐसे मुस्लिम स्कौलरों तथा उलेमाओं को स्थान दिया है, जिनके पास उचित अनुभव हैं और जो फतवे जारी करने में पूर्णतः सक्षम हैं।

इसलिए हमें यदि इस्लाम को बचाना है तो मानवीय मूल्य वाले सिद्धांत जो इस्लाम की आत्मा है उसे प्रचारित करना ही होगा अन्यथा मानवता नहीं बच पाएगी। और जब मानवता ही नहीं बचेगी तो इस्लाम कहां से बचेगा। हमारा कर्तव्य है कि हम नकारात्मकता को हतोसाहित करें और सकारात्मकता को प्रोत्साहित करें।

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