आधुनिक चुनौतियों का सामना करना है तो मदरसा शिक्षा में संशोधन जरुरी 


हसन जमालपुरी 

भारत के मुसलमान दुनिया के समझदार कौमों में से एक हैं। इसके पीछे का कारण इल्म और तजुर्बा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारतीय मुसलमानों ने अपने आप को आधुनिकता से जोड़ना प्रारंभ कर दिया था। हालांकि मोगलिया संल्तनत के समय में भारत का जो रूतवा था वह तो अभी प्राप्त नहीं हो पाया है लेकिन इल्म और दिमाग का डंका आज भी दुनिया में बोल रहा है। चुनांचे, जब से दुनिया में इस्लामिक कट्टरपंथियों का उभार हुआ है तब से भारत उपमहाद्वीप में भी कुछ इसी प्रकार के चर्चे प्रारंभ हो गए हैं। मदरसा इसका केन्द्र बताया जा रहा है लेकिन आधुनि चुनौतियों का यदि सामना करना है तो मदरसों को बदला होगा और उसे आधुनिक शिक्षा केन्द्र बनाना होगा। हालांकि दीनी शिक्षा भी जरूरती है लेकिन उसके साथ ही साथ आधुनिक शिक्षा का होना उतना ही आवश्यक है। 


भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में मदरसा के पाठ्यक्रम को बदलने के लिए बहुत चर्चा हुई है। इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय मदरसा, गरीब मुस्लिम समुदाय के एक बड़े हिस्से को शिक्षित बनाने में अहम भूमिका निभा रहा है लेकिन आधुनिक सोच और वैश्विक चुनौतियों की समझ नहीं होने के कारण यह संगठन केवल दीनी शिक्षा पर ही केन्द्रित रह जाता है। इससे गरीब बच्चों को शिक्षा तो मिल रही है लेकिन उनमें दुनिया की आधुनिक चुनौतियों से लड़ने की क्षमता विकसित नहीं हो रही है।  प्रौद्योगिकी ने आज दुनिया को बदल दिया है। लोगों की जीवन शैली, सोच और विचारधारा, भोजन और पसंद जो उनकी आवश्यकताओं और अन्य पसंद को बढती है, उसमें व्यापक परिवर्तन आ गए हैं। इसलिए समय की आवश्यकता है कि मदरसा शिक्षा में थोड़ा परिवर्तन किया जाए। शैक्षणिक व्यवस्था को आज की चुनौतियों एवं मांग के आधार पर पुनर्जीवित की जाए। मदरसा का पाठ्यक्रम परंपरा और बहुत पुरानी रचनात्मक प्रणाली पर आधारित है। इसमें थोड़े संशोधन की जरूरत है।

मदरसा उत्तीर्ण छात्रों को इस प्रतिस्पर्धी दुनिया में नौकरी पाने के लिए बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मसलन, एक अच्छी नौकरी पाने के लिए कंप्यूटर, गणित, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, मनोविज्ञान, भूगोल आदि का ज्ञान होना जरूरी होता है। समय की यह जरूरत है की उलेमा नवीन शिक्षा के माध्यम से मुस्लिम समुदाय के उत्थान के लिए आधुनिक शिक्षा के साथ धर्मशास्त्र को जोड़े, ताकि मदरसा स्नातकों को इस प्रतिस्पर्धी दुनिया में सक्षम बनाया जा सके। कुछ उलेमा तेजी से बदलती औपचारिक शिक्षा प्रणाली के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए मदरसा पाठ्यक्रम को फिर से बनाने की तैयारी भी करने लगे हैं लेकिन इस दिशा में तेज पहल की जरूरत है। कुछ उलेमा अपने स्तर पर आधुनिकीकरण की राह में कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या फंड की कमी है। मदरसा ज्यादातर सदका और जकात के रूप में आम लोगों से एकत्र किए गए दान पर चलता है। ये पूरी तरह से मुसलमानों द्वारा संचालित हैं और अक्सर वित्तीय संकट का सामना करते हैं, जिसके चलते शिक्षकों, आधारभूत संरचना के विकास, छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाओं के भुगतान के लिए दिक्कते आती है। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि जहां की राज्य सरकारें मदरसा संचालन में योगदान देती है, वहां की स्थिति अच्छी है और वैज्ञानिक पाठ्यक्रम के मामले में ये मदरसे बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।

फंडिंग प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, उत्तर प्रदेश की सरकार ने मदरसे में राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के पाठ्यक्रम को शामिल करने की बात कही है। इस योजना को उत्तर प्रदेश सरकार ने अनिवार्य कर दिया है। यानी जिन मदरसों को सरकारी वित्तीय सहायता प्राप्त करना है उसे एनसीइआरटी पाठ्यक्रम को अपनाना अनिवार्य होगा। यही नहीं उत्तर प्रदेश के मदरसों में सभी सरकारी दिशानिर्देशों और विनियमों को लागू करना होगा। उत्तर प्रदेश सरकार के इस प्रयोग को देश के सभी राज्यों में लागू किया जाना जरूरी है। हालांकि राज्य सरकारें अपने हिसाब से इसमें संशोधन भी कर सकती है। सभी राज्य सरकारों को एक समिति का गठन करना चाहिए, जो मदरसों में व्यवहार्य वैकल्पिक मॉडल का प्रस्ताव करे और जिसमें धर्मशास्त्र और वैज्ञानिक शिक्षा दोनों शामिल हों, जिसे दीनी और आधुनिक कहा जाता है। यहां एक बात और बता दें कि अल्लाह के अंतिम रसूल मोहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम साहब ने साफ शब्दों में कहा है कि तजुर्बा और इल्म जहां कहीं मिले इमान वालों को प्राप्त करना चाहिए। इसलिए मुस्लिम समाज को यदि आधुनिक चुनौतियों का सामना करना है तो उन्हें पवित्र कुरान, हदीस के अलावे अन्य आधुनिक किताबों की पढ़ाई भी करनी होगी। इसके लिए भारत सरकार उन्हें अवसर भी प्रदान कर रही है।

भारत में, कुछ प्रमुख मदरसा धर्मशास्त्र के साथ संयोजन में आधुनिक शिक्षा प्रदान करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी संख्या को उंगली पर गिना जा सकता है। उन में से एक, दारुल उलूम देवबंद का बहुत अच्छा पाठ्यक्रम है, जिसमें अरबी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, गणित, इतिहास और भूगोल शामिल हैं। मदरसा जैसे दारुल उलूम नदवतुल उलमा लखनऊ, जामिया तुस सलफिया वरानसी भी उल्लेख के योग्य हैं। मदरसों के पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण कई संगठनों, एजेंसियों और सरकारों द्वारा शुरू किया गया है लेकिन सभी प्रयास अभी तक व्यर्थ ही रहे हैं। इसके लिए जमायते उलेमा हिन्द जैसे संगठन को आगे आना चाहिए और जिस प्रकार सर सैयद अहमद खान साहब ने आधुनिक शिक्षा का स्वागत किया उसी प्रकार भारतीय मुसलमानों को एक आन्दोलन चलाकर वर्तमान एवं भविष्य की चुनौतियों से सामना करने वाली शिक्षा को आत्मसात करना चाहिए। इसके लिए मदरसा एक मात्र ऐसा संगठन है जिसे आधार बनाया जा सकता है।  

इन दिनों कुछ उलेमा चर्चा कर रहे हैं कि दोनों शिक्षाओं को एक साथ प्राप्त करने के लिए बहुत बोझ होगा क्योंकि धर्मशास्त्र स्वयं एक विशाल इकाई है जिसे ठीक से प्राप्त किया जाना चाहिए। हालांकि, इन मदरसों से उत्तीर्ण छात्रों को कुरान, हदीस, फ़िक्ह, असनैद, मंटिक, इतिहास और कई और अधिक ज्ञान के बावजूद नौकरी पाने में भारत जैसे देशों में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यह फिर से आधुनिक नवीन शैक्षिक प्रणाली के साथ धर्मशास्त्र को जोड़ने के महत्व को इंगित करता है, जिससे रोजगार, खुशहाल जीवन और लाखों छात्रों को तेजी से इस बदलती दुनिया में अपने सपने को पूरा करने की छमता विकसित हो सके।  

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