सरना धर्म कोड पर भाजपा की रहस्यमय चुप्पी से उठ रहे कई सवाल



गौतम चौधरी

आगामी जनगणना में आदि वासियों के लिए सरना धर्म कोड की वकालत राज्य में बड़ा मुद्दा बनना जा रहा है। राज्य की महागठबंधन सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इस बाबत प्रस्ताव पास करा दिया है। इस प्रस्ताव को अब केंद्र को भेजने की तैयारी हो रही है। विपक्ष में बैठी भाजपा और आजसू की भी इसमें सहमति है।


इस पूरे मामले का अहम पक्ष यह है कि इस प्रस्ताव पर विशेष सत्र के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने रहस्यमय तरीके से चुप्पी साधे रखी। भाजपा के विधायकों ने सरकार के पक्ष का समर्थन कर दिया और प्रस्ताव पर बहस कराने की भी मांग नहीं की। सवाल यह उठता है कि आखिर भाजपा अपने पारंपरिक नीति से समझौता क्यों कर रही है। क्या भाजपा डरी हुई है, या फिर सरना धर्म कोड पर भाजपा की चुप्पी के और कारण हैं? इसकी मिमांशा जरूरी है। बता दें कि इस मामले में भाजपा की अलग राय रही है। भाजपा लगातार से यह सवाल पूछती रही है कि जब पहले से जनसंख्या में यह व्यवस्था लागू थी तो 1961 में उसे हटाया क्यों? भाजपा यह भी कहती रही है कि क्या धर्मातरित आदि वासियों को इससे इतर रखा जाएगा? ये तमाम सवाल भारतीय जनता पार्टी की नीतिगत चिंतन में शामिल है लेकिन विशेष सत्र के दौरान भाजपा इन सवालों को उठाने में नामाक रही। हालांकि, झारखंड विधानसभा विशेष सत्र के दौरान भाजपा के दो विधायक, चन्द्रेश्वर प्रसाद सिंह और नीलकंठ सिंह मुंडा थोड़ा मुखर दिखे लेकिन अन्य किसी ने इस बिन्दु पर कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं जुटाई।


झारखंड में, खासकर जन जातीय समाज में, राजनीति से लेकर सामाजिक और सांस्कृतक चिंतन की दो धाराएं हैं। एक धारा का नेतृत्व सदा से ईसाई चर्च के हाथ में है और दूसरे का प्रतिनिधित्व राष्ट्रवादी हिन्दुवादियों के हाथ में रहा है। साम्यवादियों में इन दोनों धाराओं के प्रति असहमति रही है। वाम चिंतक ईसाइयों को सांस्कृतिक साम्राज्यवादी मानते हैं, तो हिन्दुवादियों को राष्ट्रीय साम्राज्यवादी। इधर, ईसाई चर्च सदा से आदिवासी समाज को हिंदुओं से अलग दिखाने की कोशिश करता रहा है। आदिवासी समुदाय का एक बड़ा तबका ईसाई चर्चा को सांस्कृतिक साम्राज्यवादी मानता है। एक सर्वेक्षण में पता चला है कि झारखंड का सबसे बड़ा जमीनदार चर्च है। उसके पास सबसे अधिक अचल संपत्ति है। यही नहीं चर्च के पास जो जमीन है उसका अधिकतर हिस्सा आदिवासियों से प्राप्त है। चर्च लंबे समय से आदि वासियों को हिंदू समुदाय से अलग-थलग दिखाने की कोशिश कर रहा है। यह जगजाहिर है कि झारखंड में ईसाई मिशनरियां राजनीति में भी खूब दिलचस्पी लेती हैं। चुनावों में इनकी बड़ी भूमिका रहती है, इसलिए ज्यादातर नेता इनके सामने शरणागत होते रहे हैं।


भारतीय जनता पार्टी 2019 का विधानसभा चुनाव हार गयी। भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि इसके लिए आदि वासियों की नाराज़गी जिम्मेदार है। हालांकि यह कितना सही है इसका आकलन अभी भी किया जा रहा है लेकिन ज़मीनी स्तर थोड़-थोड़ा यह दिखता भी है। 2019 के चुनाव में भाजपा आदि वासियों वाली सुरक्षित सीटों में से केवल दो सीटों पर चुनाव जीत पायी। यही नहीं अभी हाल ही में दो उप चुनाव में भी भाजपा की हार हुई। दुमका और बेरमों में भाजपा हार गयी है। उप चुनाव में हार के लिए भी आदिवासी समुदाय में नाराज़गी को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। संभवतः भाजपा में यह चिंतन चल रहा हो कि सरना धर्म कोड के विरोध से आदिवासी समुदाय और ज्यादा नाराज हो जाएगा। हालांकि इस मामले में भाजपा को दमदार तरीके से अपना पक्ष रखना चाहिए लेकिन इसमें भाजपा नाकाम रही। दरअसल, इस मांग को लेकर लंबे समय से आंदोलनरत सरना आदि वासियों के ही तमाम संगठनों में मतभेद उभर रहे हैं। आदिवासी समुदाय आशंकित हैं कि कहीं अलग धर्म कोड मिलने से वह अल्पसंख्यक श्रेणी का उन्हें न दर्ज हो जाएं और अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाले फायदों पर भविष्य में ग्रहण न लग जाए। आदिवासी समुदाय में इस विषय पर उठ रहे सवालों को लेकर भाजपा को अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से जन जातीय समुदाय में जाना चाहिए। साथ ही अपने चिंतन के आधार पर बात को हर मंचों पर रखना चाहिए। इस मामले को लेकर इधर के दिनों में ईसाई चर्च बुरी तरह सक्रियता हो गया है। इसको लेकर भी भाजपा को इस मामले में सक्रियता दिखानी चाहिए। जब झारखंड मुक्ति मोर्चा और ईसाई चर्च अपनी राजनीति के प्रति अति संवेदनशील है तो फिर भाजपा अपने चिंतन के आधार पर अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ने पर विवश क्यों हैं?


राज्य में दो सीटों पर उप चुनाव के दौरान ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने घोषणा कर दी थी कि आगामी जनगणना में आदिवासी-सरना धर्म कोड का अलग कालम शामिल करवाने का प्रस्ताव पास करवाने के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। अब जब दोनों सीटें यूपीए गठबंधन जीत गया है और इस जीत का श्रेय भी आदि वासियों को दिया जा रहा है तो इससे यह तो साफ हो गया है कि झामुमो इसके जरिये आदि वासियों में अपनी पैठ को और मजबूत करने की कोशिश करेगी। गठबंधन सरकार का तर्क है कि इससे आदि वासियों की सही संख्या का पता चल सकेगा, साथ ही उनके लिए बेहतर तरीके से विकास की योजनाएं बनयाी जा सकेगी। कांग्रेस भी हां में हां मिला रही है।

जानकार मानते हैं कि प्रस्ताव के पीछे आदि वासियों की चिंता से ज्यादा सियासत है। झारखंड के आदिवासियों को जनगणना में अलग से धर्म कोड का प्रस्ताव केंद्र सरकार पहले ही ठुकरा चुकी है। पूर्व में राज्य के विभिन्न आदिवासी संगठनों के आग्रह पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने स्पष्ट किया था कि अलग धर्म कोड संभव नहीं है। कुछ लोग भोले-भाले आदि वासियों को बरगलाने के लिए सरना धर्म कोड की वकालत करते हैं। अब इसमें आदिवासी शब्द भी जोड़ दिया गया है। वह सवाल करते हैं, हिंदू मंदिर में पूजा करते हैं तो क्या मंदिर धर्म है? इसी तरह मस्जिद, गुरुद्वारा या फिर अन्य उपासना स्थल के नाम पर धर्म कोड दिए जा सकते हैं? ये तो सीधे हमारी आस्था से जुड़े हैं। किसी की आस्था के साथ राजनीति नहीं की जानी चाहिए। इसी तरह सरना झारखंड के आदि वासियों का पूजा स्थल है। अलग-अलग राज्यों में रह रहे आदि वासियों के लिए क्या अलग-अलग धर्म कोड बनाए जाएंगे? राज्य सरकार ने इसी सवाल के जवाब में सरना के साथ आदिवासी जोड़ दिया है। इसका कई स्तरों पर विरोध भी हुआ।

इस बार के विशेष सत्र में सिर्फ सरना कालम को पारित करने का दबाव बना। बाद में यह संशोधन करने पर सहमति बनी कि आदिवासी/सरना धर्म कोड के स्थान पर आंशिक संशोधन कर सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव पारित किया जाए। आदिवासी शब्द हटाकर सिर्फ सरना धर्म कोड का कालम जोड़ने का प्रस्ताव केंद्र को भेजने पर भी दबाव था। इधर, सरना धर्म कोड की मांग कर रहे संगठन भी सरकार पर इस संबंध में दबाव बना रहे हैं। अब यह चर्चा भी जोर पकड़ रही है कि आदिवासी शब्द जुड़वाने के पीछे कहीं ईसाई मिशनरियों की तो भूमिका नहीं है।


आने वाले समय में यह एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। इसे झामुमो अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करेगा। चर्च की अपनी राजनीति है लेकिन भाजपा को इस पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में इस संवेदनशील मुद्दे पर झारखंड की राजनीति का रूख क्या होता है। 

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