नूंह की घटना पर विशेष/ नकारात्मक राजनीति से परहेज कर उज्जवल भविष्य पर अपना ध्यान केंद्रित करें


गौतम चौधरी
 


एक मुसलमान अपने प्रयासों के हर पहलू में, सामान्य से लेकर विशेष तक, कुरान और सुन्नत की शिक्षाओं का पालन करने के लिए बाध्य हैं। अल्लाह के नवी, पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने उम्माह यानी मानने वालों को गहन ज्ञान प्रदान किया। उन्हें विभिन्न पहलुओं पर ज्ञान दिया, जो उन्हें वर्तमान जीवन के अस्तित्व में विजय और जीवन के बाद शाश्वत आनंद की ओर ले जाएगा। साथ ही, उन्होंने उन्हें ऐसे किसी भी कार्य या मामले के प्रति आगाह किया जो उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है और उन्हें नरक के खतरों की ओर ले जा सकता है। पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तेरह वर्षों की अवधि तक अपने समर्पित साथियों के साथ कई प्रकार के उत्पीड़न झेले, बावजूद इसके मुसलमानों को मक्का की सीमाओं के भीतर सार्वजनिक प्रदर्शनों में शामिल होने से रोका। उन्होंने सड़कों को अवरुद्ध करने, सविनय अवज्ञा के कृत्यों में शामिल होने, या लक्षित हत्याओं के कृत्यों को अंजाम देने की साजिश से परहेज किया। यह कोई साधारण बात नहीं है। अन्य धार्मिक चिंतन में इस प्रकार के उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं। 

विपरीत परिस्थितियों में धैर्य व्यक्ति का सच्चा साथी होता है। पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस बात को भली-भांति समझते थे। मुहम्मद के सारे संदेश अरबी में हैं। इसलिए उसकी व्याख्या कर इस्लामिक विद्वान लोगों को बताते हैं। ऐसे ही विद्वानों में से एक मोहम्मद आलम साहब हैं। उनका मानना है, ‘‘यदि आप किसी सत्ता के खिलाफ संघर्ष करते हैं तो वह आपको किसी कीमत पर नहीं छोड़ेगा और उस सत्ता के उत्पीड़न का आपको सामना करना ही पड़ेगा। इस्लाम इस मामले में साफ-साफ खयाल रखता है। सत्ता यदि दीन वालों की हो तो वहां सरिया का कानून होगा और उसमें किसी प्रकार के उत्पीड़न की कोई गुंजाइस नहीं होती है। जहां इस्लामिक कायदे कायम नहीं होते हैं और वहां बेवजह किसी का उत्पीड़न होता है, तो इस्लाम में उसके प्रतिकार की बात कही गयी है, लेकिन उस प्रतिकार की अपनी धार्मिक व्याख्या है। इस्लाम के अनुसार उस प्रतिकार की अपनी शैली भी है। जहां इस्लाम के कायदे नहीं हैं, लेकिन जनता के द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार है, साथ ही इस्लामिक कायदों को अपनाने की छूट दी गयी है, वहां इस्लाम का संदेश है कि ईमान वाले अन्य लोगों के साथ घुलमिल कर रहें और शासन को कानून का राज कायम करने में सहयोग दें। लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष शासन प्रणाली में इस्लामी सिद्धांत के अनुसार, विरोध प्रदर्शनों, प्रदर्शनों में शामिल होना और शासकों के अधिकार को चुनौती देना गलत और अनुमति योग्य नहीं माना  गया है।

इसके अलावा, मुसलमानों के लिए ऐसी रणनीतियों को अपनाना अनिवार्य है जो उन्हें नौकरशाही कार्यालयों के माध्यम से शासन संरचनाओं में समायोजित करती हैं और समुदाय के लिए फायदेमंद नीतियों की वकालत करती हैं। मुसलमानों को अपने विकासात्मक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को उजागर करने के लिए नागरिक समाज में शामिल होने या मीडिया का उपयोग करने जैसे रचनात्मक उपायों को अपनाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, यह बात जानना महत्वपूर्ण है कि सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता और संवैधानिक अधिकारों एवं कानूनी ज्ञान द्वारा विभिन्न कमियों को दूर किया जा सकता है। विशेष रूप से मुस्लिम छात्रों को अपने समुदाय को शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने विचारों और चेतना को सुव्यवस्थित करने के लिए बाध्य करना होगा और उन गतिविधियों से बचना होगा जो उनके और समुदाय के लिए प्रतिकूल हैं। हम सब इस बात से वाकफ हैं कि किसी दुश्मन देश के षडयंत्रकारी, गुप्तचर अपने दुश्मन देश को अस्थिर करने की पूरी योजना बनाती रहती है। इस षडयंत्र में फंसना अपने भविष्य के साथ तो खिलवाड़ करना है ही यह इस्लाम के मूल सिद्धांतों के भी खिलाफ है। 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ओल्ड बॉयज एसोसिएशन यानी एएमयूओबीए के दिल्ली चैप्टर के अध्यक्ष मुदस्सिर हयात ने हाल ही में एक बयान जारी कर जामिया मिलिया इस्लामी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों से भविष्य में किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने से परहेज करने का अनुरोध किया है। उन्होंने नूंह हिंसा के बाद बयान जारी किया। उनका बयान इस बिंदु पर केंद्रित था कि असंगठित हिंसक विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के बजाय विश्वसनीय नेतृत्व के साथ रहना और अपनी आवाज बुलंद करना बेहतर है। असंगठित हिंसक विरोध न केवल इस्लामी शिक्षाओं के खिलाफ है, बल्कि कानूनों के भी खिलाफ है। 

देश के मुस्लिम युवाओं को पुराने वाक्यांश को याद रखने की जरूरत है कि कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होता है। आइए कलम से लड़ें और नकारात्मक राजनीति से प्रेरित इरादे रखने वालों के लिए तलवार छोड़ दें। आइए यह कभी न भूलें कि पैगंबर मुहम्मद के पास सेना होने के बावजूद हुदैबिया संधि पर सहमत हुए थे, क्योंकि उन्होंने हिंसा पर शांति को प्राथमिकता दी। आइए नकारात्मक राजनीतिक जाल में न फंसें और उज्ज्वल भविष्य पर अपना ध्यान केंद्रित करें।

Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत