चीन के खिलाफ साम्राज्यवादी ताकतों का हथियार बनने से बचना होगा भारत को-गौतम चौधरी

विगत दिनों मैं एक संविमर्ष में गया था। संविमर्ष भारत चीन युद्ध के पांच दषक बीत जाने पर भारत चीन संबंधों और आपसी कूटनीति पर विचार के लिए बुलाया गया था। भारत चीन युद्ध, भारत चीन के बीच की कूटटनीति और भारत चीन के बीच संबंधों पर चर्चा के बीच जो बातें मेरी समझ में आयी उसका सार्वजनिक होना मैं जरूरी समझता हूं।
सबसे पहली बात तो यह है कि जिस संविमर्ष में भारत चीन युद्ध के पांच दषक बाद की स्थिति पर चर्चा हो रही थी उसकी भाषा भारतीय नहीं थी। भाषा और संविमर्ष की संस्कृति से साफ झलक रहा था कि हम चर्चा करने के लिए तो भारत और चीन के बीच संबंधों को अपना विषय बनाये है, लेकिन चर्चा में कही भारत का सांस्कृतिक और राष्ट्रीय स्वरूप नहीं दिख रहा है। लग यह रहा था कि हमारे वक्ता आज भी भारत को ब्रितानी कॉलोनी मानकर चल रहे हैं। गोया चर्चा में कही भारत नहीं दिख रहा था। हमारे जानकार इतिहास की गहराई से भी कन्नी काट रहे थे। एक विद्वान ने तो आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य को पाकिस्तानी तक ठहरा दिया और यह कह दिया कि पाकिस्तान चाणक्य के सिद्धांतों का अनुसरण कर रहा है। मैं इतिहास का गहन अध्ययेता नहीं हूं। इतिहास मेरा सहायोगी विषय रहा है। मूल रूप से मेरी स्नातकोत्तर तक की पढाई का विषय भूगोल है। बावजूद इसके इतिहास की समझा मैने विकसित जरूरी की है। जब चीन पर चर्चा होती है तो हमें याद रखना होगा कि सन् 1962 से पहले चीन के साथ भारत के संघर्ष का कोई इतिहास नहीं मिलता है। यही नहीं इतिहास को खंगालने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चीनी राष्ट्र और भारतीय संस्कृति का दुष्नमन समान रूप से सेमेटिज्म रहा है। चीन भारत पर तब आक्रमण करता है जब वहां सेमेटिज्म का आधिपत्य होता है। चीन के साथ कूटनीतिक संबंधों पर चर्चा करते समय हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा भारतीय राजसत्ता किसी न किसी रूप से सेमेटिज्म का गुलाम है। वर्तमान भारतीय चिंतकों और कूटनीतिज्ञों की सबसे बडी भूल यह है कि वे भारत को ब्रितानी साम्राज्यवाद के चष्में से देखते हैं। वे आज भी यह मानने को तैयार नहीं है कि भारतीय राष्ट्र ब्रितानी देन नहीं है। यह एक सांस्कृतिक और सनातन राष्ट्र है। भारत संघीय ढांचा नहीं हो सकता, यह एकात्म राष्ट्र है। जिस संविमर्ष की चर्चा मैंने पहले की है उसमें चीनी वस्तु, चीनी सेना, चीन की सामरिक ताकत, चीनी जनता, चीन की आधारभूत विकसित संरचना, चीन की कूटनीति आदि कई विषयों पर चर्चा हुई, लेकिन चीन के सेमेटिज्म पर विद्वानों ने एक शब्द नहीं कहा। यह पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है और हमें यनि हम भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन की जनता अब और सेमेटिज्म को नहीं ढो सकती है। चीन अब सेमेटिज्म से मुठभेड की मनःस्थिति में दिख रहा है। वहां एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद स्वरूप ग्रहण कर रहा है, जो चीन का अपना है। इसके विकास में भारत के राष्ट्रवादियों को सहयोग देना चाहिए।
मैं यहां पूज्य कुपहल्ली सीतारमइया सुदर्षन जी का उल्लेख करना चाहूंगां। उन्होंने एक भाषण में कहा था कि सेमेटिज्म अपने चार वैचारिक हथियारों के द्वारा दुनिया पर शासन कर रहा है। सेमेटिज्म के चार वैचारिक हथियार इस्लाम, ईसाइयत, साम्यवाद और पूंजीवाद है। चीन साम्यवाद को पछारने के बाद अब पूंजीवाद के साथ लोहा लेने के लिए तैयार हो रहा है। चीन के अंदर पूंजीवाद की लडाई चीन की संस्कृति और चीनी राष्ट्रवाद के साथ प्रारंभ हो चुका है। अब चीनी चिंतक सेमेटिज्म के विष्वव्यापी षडयंत्र को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। चीन को इस दौर से अबारने के लिए भारत के समयोग की जरूरत है। लेकिन वह तब संभव है जब भारत अपने अतीत के गौरव को समझ कर वर्तमान को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वरूप प्रदान करे। जबतक भारत ब्रितानी साम्राज्य का अंग बना रहेगा और पष्चिम की ओर देखता रहेगा, तबतक चीन भारत के लिए एक समस्या बना रहेगा, लेकिन जब भारत अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ खडा हो जाएगा उसी दिन चीन भारत के सामने घुटने टेक देगा।
हमे सन् 62 की हार को भूलना नहीं चाहिए। लेकिन हमें उस हथियार को चिंहित करना होगा जिस हथियार के द्वारा चीन ने हमें मात दिया। चीन की सत्ता, संस्कृति और जनमन एक गंभीर संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। चीन को भारत के नजरिये से देखने जरूरत है। भारतीय कूटनीति को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अब भारत स्वतंत्र राष्ट्र है, वह ब्रितानी कॉलोनी नहीं है। साथ ही यह भी स्वीकार लेना चाहिए कि पष्चिमी राष्ट्र भारत की समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं। जबतक भारतीय कूटनीति में पष्चिमी देषों का हस्तक्षेप रहेगा तबतक चीन सषंकित रहेगा और भारत के खिलाफ मोर्चेबंदी करता रहेगा। भारतीय कूटनीति चीन के साथ सीमा रेखा विवाद सुलझाने भर पर केन्द्रित है। इस मामले में चीन की क्षद्म रणनीति को समझने की जरूरता है। चीन तो गया तक भूमि को अषांत क्षेत्र मानता है। अब केवल अरूणांचल या कष्मीर की बात नहीं है। चीन भारत के मैदानी क्षेत्रा में भी हस्तक्षेप कर रहा है। इसलिए चीन के साथ केवल सीमा विवाद पर चर्चा करने से काम नहीं चलेगा। हमारी कूटनीति को यह तय करना होगा कि वह भारत के हित की बात करेगा या फिर पष्चिमी देषों के हथियार के रूप में चीन के खिलाफ प्रयुक्त होगा। चीन अच्छी तरह समझता है कि अब एषिया में भारत पष्चिमी देषों का सबसे बडा पक्षकार बनकर उभर रहा है। जो चीन के हित में कतई नहीं है। अब कोई भी संप्रभु राष्ट्र अपने पडोस में किसी सांस्कृतिक दुष्मन को सह देने वाले को कैसे बरदास्त कर सकता है। भारत चीन के साथ वार्ता में स्वयं सक्षम है। तो फिर पष्चिम देषों को भारत इस मामले में दखल के लिए दावत क्यों देता है, इसलिए अगर चीन के खतरों से भारत को निवटना है तो चीन को सबसे पहले यह विष्वास दिलाना होगा कि भारत केवल अपने हितों की बात करता है। वह पष्चिमी खेमें में कतई नहीं है। भारत चीन के वीच कूटनीतिक संबंधों पर जब चर्चा होती है तो यह भी समझना होगा कि आखिर क्यों भारत के सारे पडोसी देष भारत से ज्यादा भरोसा चीन पर करने लगे हैं। भारत का पडोसी म्यामार, श्रीलंका, बांग्लादेष, मालदीव, पाकिस्तान, भूट्टान, नेपाल, अफगानिस्तान ये सारे सारे देष आज चीनी खेमें में है। चीन सभी के साथ अपना संबंध मधुर बना लिया है, जबकि उन तमाम पडोसियों के साथ भारत के संबंध आज अच्छे नहीं हैं। यह सोचने वाली बात है। इधर के दिनों में नेपाल में लगातार भारत विरोधी लहर चल रही है, जबकि चीन के साथ नेपाल के संबंध दिन व दिन सुधर रहे हैं। चीन ने श्रीलंका को अपने पक्ष में कर लिया है। यहां तक कि मालदिव भी भारत को आंख दिखा रहा है। ऐसे में भारतीय कूटनीति को यह समझना होगा कि आखिर वह कौन सी कमी है जो भारत को दक्षिण एषिया में अलग थलग कर रही है। भारत लगातार यह प्रचारित कर रहा है कि चीन भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता का विरोध कर रहा है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि आजतक पष्चिमी लॉबी के कारण ही भारत को सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता नहीं मिल पायी। इस मामले में चीन से ज्यादा विरोध अमेरिका ने भारत का किया है। अब जब अमेरिका को दुनिया में अपनी साख बचाने की चिंता हो रही है तो वह भारत को मोहरा बनाना चाहता है, जो चीन को खटक रहा है। इसलिए भारत को यह भी समझना होगा कि पहले संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थाई सदस्यता का प्रस्ताव तो आए फिर चीन समर्थन करता है या विरोध इसपर चर्चा होगी। यह अमेरिका की चाल है जिसमें भारत फसता जा रहा है। सच तो यह है कि पष्चिम के देष भारत को केवल नाटो का सदस्य बनाना चाहते हैं वो भी प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष रूप से। वस्तुतः पष्चिमी कूटनीति भारत को दुनिया के मंच पर स्थाई नेतृत्व का कोई मौका देना ही नहीं चाहती है। चीन को डर है कि पष्चिम के देष भारत को बेस बनाकर उसपर आक्रमण कर सकता है। इसलिए चीन लगतार भारत के खिलाफ मोर्चेबंदी पर है।
चीन के साथ कूटनीति पर विचार करने के क्रम में भारतीय सत्ता को यह भी विचार करना होगा कि उसकी आंतरिक दसा क्या है। चीन को इस बात के लिए धन्यवाद तो देना ही होगा कि उसने जिस क्षेत्र को अपने साथ मिलाया वहां आधारभूत विकास का एक मॉडल खडा किया है, लेकिन भारत में आज भी केन्द्रीय सत्ता कुछ प्रांतों के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है। भारत सरकार ने झारखंड और छत्तीसगढ का कोयला तो दिल्ली, कोलकात्ता, मुम्बई, गुजरत और पंजाब को पहुंचा दिया, लेकिन वहां की स्थानीय जनता आज भी पानी के लिए तरस रही है। यही नहीं जब गरीब प्रांतों के लोग रोजगार के लिए अभिजात्य प्रांतों में जाते हैं तो उनके श्रम तक का जबरदस्त शोषण होता है। आवाज उठये जाने परे स्थानीय प्रषासन संगठित रूप से उनके खिलाफ कार्रवाई करती है। स्थानीय और बाहरी लोगों का नारा देकर गैर विकसित राज्यों की जनता के साथ जानवर जैसा बरताव किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में भारत के अविकसित प्रांतों की जनता चीन को नायक के रूप में देखती है। भरत को चीन के साथ कूटनीतिक संबंधों पर विचार करने से पहले इन मुद्दों पर भी विचार कर लेना चाहिए। चीन में विकास के नाम पर कही भेदभाव देखने को नहीं मिलता है। उसने न केवल अपने कब्जे बाले तुर्किस्तान में जबरदस्त विकास किया है, अपितु तिब्बत और अपने कब्जे वाले मंगोलिया में भी उसने विकास किया है, लेकिन भारतीय राजसत्ता ने कुछ अभिजात्य प्रांतों में विकास कर शेष भारत को अभिजात्य भारत की गुलामी करने को विवष कर दिया है। ऐसे में भारत के अंदर क्षेत्रीय पृथक्तावाद का पनपना स्वाभाविक है। इसमें हम यह नहीं कह सकते हैं कि चीन हमारे खिलाफ साजिष कर रहा है। यह दोष तो हमारा ही है कि हमने अपने राष्ट्र को ही आपस में बांट दिया। जब बिहार का आदमी बंगाल में, बंगाल का आदमी उत्तर प्रदेष में, उत्तर प्रदेष का आदमी महाराष्ट्र और गुजरात में, दक्षिण भारत का आदमी कष्मीर में और कष्मीर का आदमी कन्या कुमारी में काम के लिए नहीं जा सकता है तो भारत को एक राष्ट्र के रूप में कैसे खडा किया जा सकता है। इसलिए भारत की आत्मा को समझनी होगी। भारत संघीय नहीं है, यह एकात्म है। इसको दृष्टि में रखकर जब भारत का विचार होगा तभी भारत चीन के साथ सामरिक होर में भाग ले सकता है। अन्यथा भारत चीन के साथ कही नहीं टिकेगा।
सर्वविदित है कि स्वतंत्रता के बाद भारत सोवित रूस के खेमे में चला गया। पहले ब्रितानी कॉलोनी था। सावियत रूस के पतन के बाद भारत ने फिर से पैतरा बदला और अब संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपना हित साधने में लगा है। एक तरह से देखा जाये तो दुनिया में भारत की कोई स्वतंत्र कूटनीति नहीं है। चीन भारत की कूटनीति को अच्छी तरह समझ रहा है। चीन का दुष्मन नम्बर एक जापान है। दुष्मन नम्बर दो संयुक्त राज्य अमेकरिका है। दुष्मन नंबर तीन रूस है। चीनी संस्कृति और चीनी राष्ट्र का वैचारिक सत्रु भी ईसाइयत और इस्लाम है। चीन उपर से देखने में साम्यवादी लगता है लेकिन वहां साम्यवाद के खिलाफ भी संघर्ष चल रहा है। अब चीन को पूंजीवाद से खतरा है। जिसके खिलाफ चीन अपने राष्ट्रवाद को सह दे रहा है। चीन ने बाहरी देषों के ईसाइ संस्थाओं पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस्लाम के खिलाख लडाई में उसने पाकिस्तान तक को नहीं छोडा। चीन की सत्ता में खांटी साम्यवादियों को चुन चुन कर किनारे किया जा चुका है। चीन में वर्तमान सत्ता परिवर्तन को चीनी राष्ट्रवाद की ओर एक और कदम के रूप में देखा जा रहा है। अबकी बार जिसके हाथ में सत्ता गया है, वह खांटी राष्ट्रवादी है साथ ही चीनी संस्कृति का पोषक भी है। ऐसे में चीन के अंदर एक बार फिर से चीनी राष्ट्रवाद के साथ सेमेटिज्म का मुठभेड प्रारंभ होने वाला है। इसमें चीनी राष्ट्रवाद कहा तक सफल होगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है, लेकिन ऐसी पस्थिति में भारत के राष्ट्रवादियों को सेमेटिज्म के खिलाफ लडाई में चीनी राष्ट्रवाद का समर्थन करना चाहिए। चीन जिस दिन सेमेटिज्म के प्रभाव से मुक्त हो जाएगा और स्वतंत्र रूप से खुद के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर खडा हो जाएगा उसी दिन चीन पर भारत की बढत हो जाएगी। लेकिन उसके लिए भारत में एक स्वतंत्र सांस्कृतिक और प्रखर राष्ट्रवादी सत्ता की जरूरत है। चीन भारत के लिए एक मॉडल राष्ट्र हो सकता है। क्योंकि भारत जापान नहीं है, भारत इजरायल भी नहीं है। भारत संयुक्त राज्य अमेरिका नहीं है और न ही भारत रूस है। भारत में चीन का मॉडल काम करेगा। चीन ने दुनिया के सामने एक आदर्ष प्रस्तुत किया है। पष्चिम लगातार यह प्रचारित करता है कि चीन व्यापार और वैज्ञानिक खाजों में क्षद्म नीति पर काम कर रहा है। तो पष्चिम ने कौन सी आदर्ष नीति प्रस्तुत की है। चीन पष्चिम को उसी की भाषा में जवाब दे रहा है। भारत को चीन-भारत युद्ध का मैदान कतई नहीं बनना चाहिए। इजरायल, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान आदि प्रभावषाली व्यापारी देष भारत को उकसा कर चीन के खिलाफ खडा करने के फिराक में हैं, लेकिन भारत को चीन के साथ संजीदगी से अपने स्वतंत्र कूटनीति का सहारा लेना चाहिए। चीन के साथ तो एक मात्र लडाई हुई है लेकिन आज भी भारत के इस्लाकी आतंकवाद का केन्द्र पाकिस्तान, ब्रितान और अमेरिका ही है। चीन न तो भारत में इस्लामी आतंकवाद को सह दे रहा है और न ही वह ईसाइ मिषनरियों को सहयोग कर रहा है। रही बात पूर्वोत्तर की तो वहां भी अमेरिकी सह पर आतंक मचाया जा रहा है। हमें यह भी समझना होगा कि आज भारत में जो चरम साम्यवाद पनम रहा है उसका केन्द्र भी अमेरिका ही है न कि चीन। पूर्वोत्तर और कष्मीर पर संयुक्त राज्य अमेरिका की नीति आज भी स्पष्ट नहीं है। इसलिए चीन की साम्राज्यवादी सामरिक ताकत को चुनौती देने के फिराक में भारत दुनिया के अन्य साम्राज्यवादी ताकतों का हथियार न बन जाये यह भारतीय कूटनीति को समझना होगा।
और इस संदर्भ में देष की मीडिया को या फिर देष के अंदर सामाजिक स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं को दुनिया के सभी साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ भारत की जनता का प्रबोधन करना चाहिए। भारतीय राजसत्ता को चीन से सीख लेनी चाहिए। चीनी विकास के मॉडल को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ढाल कर लागू करना चाहिए। चीन के साथ कूटनीतिक वार्ता में पष्चिमी चौधराहट को समाप्त करना चाहिए। साथ ही चीन को यह विष्वास दिलाना चाहिए कि भारत दुनिया के अन्य साम्राज्यवादी ताकतों का हथियार नहीं है। अगर ऐसा हो जाता है तो भारत चीन के बीच का गतिरोध खुद व खुद समाप्त हो जाएगा। क्योंकि चीन पांच दषक के बाद बहुत बदल गया है। साथ ही भारत भी अब वह भारत नहीं रहा जो सन 62 की लडाई के समय में था।


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