न तो समाचार स्वतंत्र होता है और न ही समाचार माध्यम स्वायत



गौतम चौधरी 

घटना सन् 2008 की है। उन दिनों उत्तराखंड के कोटद्वार विधानसभा का उपचुनाव हो रहा था। भारतीय जनता पार्टी के चुनाव प्रचार की एक सभा को संबोधित करने के लिए राजनाथ सिंह आने वाले थे। भारतीय जनता पार्टी के नेता और डीएभी काॅलेजए देहरादून के इतिहास विभाग में कार्यरत प्राध्यापक डाॅण् देवेन्द्र भसीन का सुवह.सुवह दूरभाष आयाए ‘‘गौतम आप कहां हैंघ्‘‘ मैंने कहा कि मैं तो अपने घर पर हूं। फिर उन्होंने कहा कि ‘‘जल्द से जल्द आप सहारनपुर चैक पर आ जाइएए कोटद्वार चलना हैए राजनाथ जी के कार्यक्रम का समाचार संग्रह करने के लिए कुछ संवाददाताओं को हमलोग कोटद्वार ले जा रहे हैं।‘‘ उन्होंने कहा कि ‘‘हमारे साथ आपके मित्र शिल्प कुमार भी हैं।‘‘ मुझे इस कार्यक्रम की सूचना पहले से नहीं थी लेकिन मैं तैयार होकर सहारनपुर चैक चला गया। थोडी देर बाद शिल्प और डाॅण् भसीन गाडी लेकर वहां आए और मैं उनके साथ हो लिया। गाडी पर पहले से कुछ अखबारों के प्रतिनिधि मौजूद थे। सभी को मैं नहीं पहचान रहा था लेकिन ईएमएस समाचार एजेंशी के बलुनी जी को मैं पहले से जानता था। हमलोग रास्ते में एक ढाबे पर रूकेए वहां कुछ और संवाददाता एक दूसरी गाडी से आए और साथ हो लिए। इस बीच कई लोग गाडी अदला.बदली भी किये लेकिन मैं और बलुनीए डाॅण् भसीन के साथ ही रहे। मैं इस घटना का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि समाचारए संवाद और समाचार माध्यम की स्वतंत्रता एवं स्वामित्व को समझने में इस कहानी की बडी भूमिका हो सकती है। पूरे रास्ते डाॅण् भसीन एवं भाजपा के मीडिया सेल से जुडे शिल्प ने हमलोगों को कभी यह नहीं कहा कि आप हमारे पक्ष में समाचार लिखें लेकिन दोनों ने हमलोगों की पूरी खातिरदारी की। लिहाजा कई स्थानों पर रोककर चाय.नास्ता और भोजना भी कराया। कोटद्वार पहुंचने के बाद सब अपने.अपने काम में लग गये। कोई कही तो कोई कही चला गया। मैं उन दिनों फिल्ड की रिपोर्टिं से कम परिचित थाए सो कही नहीं गया और जहां रूकना था वही रूका रहा और कुछ देर के बाद राजनाथ सिंह जी की सभा के लिए चला गया। सभा अच्छी तो नहीं थी लेकिन हमारे साथ जितने भी लोग गये थे उनके अखबार में सभा की अच्छी खबर आयी।

जब वापस हमलोग आ रहे थे तो डाॅण् भसीन के मोबाईल पर किसी समाचार.पत्र समूह के विज्ञापन से संबद्ध प्रतिनिधि का फोन आया। बात होती रहीए डाॅण् भसीन सहज रहे लेकिन थोडी देर जब बात होती रही तो उन्होंने थोडा असहज होकर कहा कि ‘‘आप से जब विज्ञापन के लिए पहले पन्ने की बात हुई थी तो आप फिर हमारा विज्ञापन दूसरे पन्ने पर क्यों लगाना चाहते हैं।‘‘ फिर उन्होंने कहा कि ‘‘हां.हांए समाचार में आप हमें जो सहयोग करें लेकिन विज्ञापन के लिए तो प्रथम पन्ने की बात हुई थी और अब आप दूसरे पन्ने पर हमारा विज्ञापन दे रहे हैं।‘‘ फिर डाॅण् भसीन ने कहा कि ‘‘प्रथम पन्ने पर किसी दूसरे पार्टी की ज्यादा पर आपने बुक कर लिया है तो हमारा विज्ञापन दूसरे दिन और तीसरे दिन लगा दें।‘‘ बात होती रही और  मोल.तोल होता रहाए पता नहीं क्योंए इसके बाद डाॅण् भसीन झुंझलाकर अपना मोबाईल काट दिये। उधर से दो.तीन बार काॅल आया लेकिन डाॅण् भसीन ने फिर उठाया नहीं। शिल्प जब पूछे तो उन्होंने कहा कि ‘‘अब अखबार वाले भी व्यापारी होते जा रहे हैंए अरे भाई जब व्यापार ही करना है तो उसमें भी कुछ मूल्य होना चाहिएए अब तो समाचार व्यापार में भी मूल्यों का घोर ह्रास हो रहा है।‘‘ यहां यह उध्रित करना ठीक रहेगा कि डाॅण् भसीन कुछ दिनों के लिए किसी पत्र समूह के संवाद संकलन का काम भी कर चुके हैं। संभवतः वे आजकल डीएभी काॅलेजए देहरादून के प्राचार्य होंगे। इस प्रकार मैंने अपनी आखों के सामने समाचार के लिए मोल.तोल होते देखा है।

सन् 2004 में मुझे एक किताब हाथ लग गयीए मीडिया साम्राज्यवादए बडी अच्छी किताब है। संभवतः डाॅण् जगदिश्वर चतुर्वेदी उस किताब के लेखक हैं। दुनिया केए खासकर पूंजीवादी दुनिया के समाचार माध्यमों के अनैतिक खेल के बारे में हिन्दी में ऐसी कोई पुस्तक नहीं होगी। पुस्तक में किस प्रकार साम्राज्य विस्तार में समाचार और प्रचार माध्यमों का उपयोग किया जाता हैए उसकी मुकम्मल व्याख्या देखने को मिलती है। उससे पहले मै सोवियत रूस के द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक पढी थी जिसमें साम्यवादी समाचार माध्यमों के विस्तार पर जबरदस्त चर्चा की गयी थी। तो समाचार माध्यमों के स्वायत्ता की जो चर्चा होती है वह सरासर एक मिथक के अलावे और कुछ नहीं है। दुनिया की तमाम समाचार एजेंशियां अपने.अपने देश के हितों के लिए काम करती है। समाचार के व्यापार में लगी कंपनियां विशुद्ध व्यापार कर रही है। उसे मुनाफा चाहिए और यदि समाचार व्यापार में वह अपना पैसा लगा रही है तो पहले सीधे.सीधे वह कमाती हैए फिर वह किसी दूसरे माध्यम से मुनाफा जोडती है।

मेरी समझ में जो कुछ मोटी.मोटी बातें ध्यान में आयी है उसमें से दुनिया में हथियारए पेट्रोलियामए जीवन रक्षक दवाए विभिन्न प्रकार की बीमा और कृषि व्यापार की लाॅबी है। इन दिनों समाचार माध्यम इस व्यापार को केन्द्रीकृत करने में लगा है। बडी गहराई से मैंने देखा है जो संवाददाता युद्ध की रिपोर्टिंग करते हैं उसमें से अधिकतर हथियार के दलालों के दबाव में होते हैं। वहां स्वतंत्रता की कोई गुंजाईश ही नहीं है। आज जो छोटी.छोटी बातों पर इस्लामी विश्व आपस में लडता.झगडता रहता है उसके पीछे पेट्रोल और हथियार की लाॅबी जिम्मेबार है। बिमारियों का प्रचार कर दवा बेचने की बात कई बार सामने आ चुकी है। समाचार माध्यमों में कई स्तर के दबाव होते हैं। समाचार माध्यम के मालिकों का अपना मुनाफा होता है। इसके बाद समाचार को रिफाईन करने वालों का अपना हित होता हैए जो समाचार संकलित करता है उसके अपने हित होते हैं। देवेन्द्र भसीन वाली घटना इसलिए उध्रित करना उचित था क्योंकि समाचार संग्राहक को किस प्रकार अपनी बात समझाना है वह चतुर लोग अच्छी तरह जानते हैं। वे कुछ कहते नहीं है लेकिन व्यवस्था और संसाधन उपलब्ध कराकर अपनी बात को प्रचार दिला लेते हैं।

अध्यन के क्रम में ज्ञात हुआ कि समाचार माध्यमों का ऐसा कोई भी समूह दुनिया में मौजूद नहीं है जो स्वतंत्र हो और समाज के प्रति जिम्मेबार हो। अमूमन ऐसा माना जाता है कि समाचार माध्यम देश के प्रति जिम्मेबार होता है लेकिन भारत में इन दिनों समाचार माध्यमों के कई खबरों को देखकर ऐसा लगा कि समाचार माध्यम देश के हितों के साथ भी खिलवाड कर रहा है। यहां दो.तीन उदाहरण देना ठीक रहेगा। अभि कुछ दिनों पलहे अफजल गुरू को फांसी दिया जाना था लेकिन देश की मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया मानों अफजल आतंकवादी न होकर कोई स्वातंत्र समर का क्रातिकारी हो। गुजरात में इसरत जहां नामक लडकी के साथ तीन और आतंकी मारे गये। हालांकि उस मामले में अभी न्यायालय का फैसला आना है लेकिन देश के समाचार माध्यमों ने नाहक इसरत मामले को तूल दिया और साबित करने की कोशिश की कि इसरत निहायत शरीफ महिला थी। अभी हालिया धर्मांतरण पर मीडिया का रूख निहायत गैरजिम्मेदाराना दिख रहा है। कुछ लोग सामान्य रूप से हिन्दू मान्यता को अपना लिए तो हंगामा खडा हो गया लेकिन विगत कई सौ सालों से देश में धर्मांतरण चल रहा है उसका कोई संज्ञान तक नहीं ले रहा है। तो इससे साफ साबित हो जाता है कि मीडिया एकपक्षीय है और मीडिया को बडी पूंजी अपने ढंग से चला रही है। संभव है कि उसमें काम करने वाले लोग स्वतंत्र खयाल के हों और वे स्वतंत्र बातें लिख भी रहे होंगे लेकिन ओभरआॅल मीडिया की स्वातंत्रता एवं स्वायत्ता पर स्वाभाविक रूप से प्रश्न खडा हो रहा है।

अपने देश में हजारों अखबर हैं और सौंकडों समाचार वाहिनियां हैं। उनके मालिक तय है। कोई.कोई न्यास के द्वारा भी चलाया जा रहा है। कहने के लिए तटस्थ कहा जाता है लेकिन अंदरखाने जिसकी पूंजी जितनी होती है उसकी उतनी बात लिखी दिखाई जाती है। अपने देश में ही हर व्यापारिक घरानों के समाचार माध्यम हैं। यदि किसी का नहीं है तो उसने किसी के साथ टाइअप कर रखा। केन्द्र और राज्य सरकारों का लोकसंपर्क विभाग मीडिया प्रबंधन के कम में ही लगा होता है। हर राज्य सराकरों का बजट इस क्षेत्र के लिए होता है। केन्द्र सरकार के पास भी एक भाडी.भरकम बजट है जो सरकार के इनहाउस मीडिया को छोडकर अन्य समाचार माध्यमों को मैनेज करता है। देखा तो यहां तक जाता है कि यदि कोई संवाददाता किसी सरकार के खिलाफ लिख दियाए तो उसकी सरकारी मान्यता तक खत्म कर दी जाती है। ऐसे कई उदाहरण मेरे पास हैं लेकिन उसका उल्लेख यहां करना ठीक नहीं होगा। इसलिए मूल्य और आदर्श की बात करना अपने आप को खुश रखने और अपनी पीठ थपथपाने के लिए ठीक है लेकिन कुल मिलाकर वास्तविकता यही है कि समाचार माध्यमए व्यापार का एक रूप है। यहां समाचार संग्राहक से लेकर संपादक तक समाचार माध्यम के व्यापारियों के नौकर हैं और जिस प्रकार किसी कारखाना का मालिक कारखाना चलाता है उसी प्रकार समाचार का विभिन्न माध्यम प्रोडक्ट के अलावा और कुछ नहीं है। इसका एक उदाहरण आजकल चंडीगढ में कोई आकर देख सकता है। समाचार माध्यमों का काम समाचार लोगों को उपलब्ध कराना है जबकि हिन्दी समाचार पत्र का एक बडा समूह इन दिनों चंडीगढ में खुलेआम व्यापार कर रहा है वह भी समाचार का नहीं विभिन्न उपभोगता वस्तुओं का। ऐसे में समाचार और समाचार माध्यमों की स्वायत्ता कोरी कल्पना नही ंतो और क्या है.

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