भारतीय राष्ट्रवाद को आधुनिक ओटोमन और चीनी विस्तारवाद से खतरा



गौतम चौधरी 

दुनिय बहुत तेजी से बदल रही है। दुनिया का कूटनीतिक भूगोल भी बड़ी तेजी से परिवर्तित हो रहा है। सोवियत रूस के पराभव के बाद से लेकर विगत कुछ वर्षों तक संयुक्त राज्य अमेरिका जिस प्रकार पूरी दुनिया को नियंत्रित कर रहा था, अब वह ऐसा नहीं कर पा रहा है। विश्व मंच पर अब नए नए कूटनीतिक खिलाड़ी प्रभावशाली भूमिका निभाने लगे हैं। जहां एक ओर इस्लामिक विश्व को अपने नियंत्रण में लेने के लिए तुर्की, आक्रामक विदेश नीति के साथ प्रस्तुत हुआ है, वहीं दूसरी ओर चीन नई रणनीति के साथ अमेरिका को चुनौती देने लगा है। इधर इजरायल भी अमेरिकी फ्रेम से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है। यही नहीं वह स्वतंत्र विदेश नीति के साथ दुनिया को समझने और परखने की कोशिश करने लगा है। हालांकि इस बात को लेकर इजरायल की आलोचना भी हो रही है लेकिन इजरायल इस दिशा में आगे बढ़ रहा है। मसलन अमेरिकी दादागीरी का दौर समाप्त होता दिख रहा है। पीपल्स रिपब्लिक आॅफ चाइना, रूस के साथ मिलकर जहां एक ओर शंघाई सहयोग संगठन को मजबूत करने में लगा है, वहीं वह भारत, रूस, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर आर्थिक क्षेत्र में अमेरिकी दादागीरी को संतुलित करने के लिए ब्रिक्स को और प्रभावशाली तरीके से खड़ा करने में लग गया है। अब इस अनुमान को बल मिलने लगा है कि बहुत जल्द दुनिया का शक्ति संतुलन बदलने वाला है। ऐसे में भारत की भूमिका क्या होनी चहिए, इसपर बहस प्रारंभ हो गयी है।

सच पूछिए तो अभी भी भारत साम्राज्यवादी दबाव से मुक्त नहीं हो पाया है। स्वतंत्रता के बाद कई वर्षों तक भारत ब्रितानी सल्तनत के दबाव में रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद दो बड़े परिवर्तन दिखाई दिए। एक धराधर दुनिया के कई प्रभावशाली मुल्क विदेशी दासता से मुक्त हुए और दूसरा विश्व दो खेमों विभाजित हो गया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने साम्राज्यवादी देशों का एक संघ बना लिया तो रूस ने साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने वाले देशों का संगठन खड़ा किया। अमेरिकी नेतृत्व वाले संघ को पंूजीवादी संघ कहा गया और सोवियत रूस के नेतृत्व वाले खेमे को समाजवादी संघ की संज्ञा दी गयी। भारत और उस समय के नव स्वतंत्र देशों ने एक नया गुट बनाया जिसे गुटनिर्पेक्ष संगठन के नाम से जाना गया। इसी बीच शीत युद्ध का दौर प्रारंभ हो गया लेकिन निर्गुट वाले खेमें पर कभी सोवियत रूस तो कभी अमेरिका की छाया पड़ती रही। सोवियत प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में नाटो का गठन किया गया।

20वीं शताब्दि के अंत तक सोवियत सोसलिस्ट वाला रूस बिखर गया। शीत युद्ध के समाप्त होते अमेरिकी दादागीरी का दौर प्रारंभ हो गया। दुनिया के इतिहास में यह दौर बेहद खतरनाक साबित हुआ। इजरायल की ताकत बढ़ी। फिलिस्तीन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। इराक को अमेरिकी आक्रमण का सामना करना पड़ा। मिस्र में राजनीतिक अस्थिरता आई। दक्षिण अमेरिकी देशों में यूएस समर्थिक सरकारें आयी। अफगानिस्तान पर भी अमेरिका ने आक्रमण किया। तुर्की में अमेरिकी सहयोग से रजब तैयब इरदुगान की सरकार को पलटने की कोशिश की गयी। यही नहीं अरब देश में अल कायदा और आईएसआईएस नामक दो इस्लामपरस्थ आतंकवादी संगठन खड़े हुए। इन दोनों संगठनों को खड़ा करने में भी अमेरिका का ही हाथ बताया गया। तालिबान के गठन में तो अमेरिक और पाकिस्तान का सहयोग साबित हो चुका है। हालांकि कट्टर इस्लामिक विचारधारा पर आधिारित इन तीनों संगठनों ने अंततोगत्वा अमेरिकी हितों को ही क्षति पहुंचाना प्रारंभ कर दिया। इस बीच रूस अपनी ताकत एकत्रित करता रहा और अपने पुराने कूटनीतिक साथियों को संगठित करने में लगा रहा। यही नहीं सावियत सोसलिस्ट वाले रूस की गुप्तचर संस्था, केजीबी के पूर्व प्रधान व्लादिमीर पुतिन के रूसी सत्ता पर काबिज होते ही दुनिया भर में फैले अपने पुराने साथियों को उन्होंने संगठित करना प्रारंभ कर दिया। इसका उन्हें लाभ मिला।

सीरिया के युद्ध में रूस जैसे ही खुलकर सामने आया दुनिया का चित्र बदल गया। रूस के युद्ध में भाग लेने से सीरिया में अमेरिकी रणनीति को बहुत नुक्शान हुआ। इसके बाद तुर्की ने अमेरिकी विरोध का झंडा खड़ा कर दिया। हालांकि तुर्की नाटो का सदस्य है लेकिन तख्ता पलट की कोशिश के बाद तुर्की अमेरिका के खिलाफ हो गया। अब तुर्की ने एक नया अभियान प्रारंभ किया है। उसने फिलिस्तीन के नागरिकों को अपना पासपोर्ट जारी करना प्रारंभ कर दिया है। तुर्की, सीरिया, ईरान और इराक एक नए इस्लामिक महासंघ बनाने की दिशा में पहल करने लगे हैं। इस्लमिक देशों पर अब सउदी अरब की पकड़ ढ़ीली पड़ने लगी है। हालांकि अभी पाकिस्तान, चीनी खेमें में दिखाई दे रहा है लेकिन तुर्की और ईरान वाले संघ का प्रभाव बढ़ते ही पाकिस्तान अपनी प्रकृति के अनुरूप खेमा बदल सकता है। इस परिस्थिति को देख इजरायल ने भी अपनी विदेश नीति में सैद्धांतिक परिवर्तन के संकेत दिए हैं। इसके दो उदाहरण सामने हैं। इजरायली कूटनीतिकों ने जहां एक ओर पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की दिशा में पहल प्रारंभ की है वहीं आर्मीनिया-अजरबैजान युद्ध में तुर्की समर्थक अजरबैजान को बड़े पैमाने पर वह हथियार बेच रहा है। ऐसे में भारत को भी अपनी विदेश नीति में जल्द से जल्द परिवर्तन करने की जरूरत है।

सफल राष्ट्र की विदेश नीति कभी एक पक्षीय नहीं होनी चाहिए। भारत की सीमा पर चीन का दबाव बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध बेहद खराब हैं। अमेरिकी दबाव में झुकने के कारण इन दिनों ईरान के साथ भी भारत के संबंध अच्छे नहीं हैं। यहां तक कि नेपाल ने भी भारत को आंख दिखाना प्रारंभ कर दिया है। अफगानिस्तान में भारतीय मिशन पर लगातार हमले हो रहे हैं। समय-समय पर श्रीलंका भी भारत के खिलाफ मोर्चा खोल दे रहा है। आने वाले समय में भारत को दो शक्तियों के साथ जूझना पड़ सकता है। एक तुर्की के नेतृत्व वाले इस्लामिक संघ से और दूसरा चीन की विस्तारवादी कूटनीति से। इस लड़ाई में न तो अमेरिका भारत के साथ आएगा और न ही इजरायल। उक्त दोनों ताकतों का सामना करने के लिए भारत को खुद की ताकत ही खड़ी करनी होगी। इसके लिए देश में सामूहिक शक्ति खड़ी करनी होगी। अंततोगत्वा पड़ोसियों से संबंध सुधारने होंगे। महाशक्तियों पर निर्भरता वाली विदेश नीति से छुटकारा प्राप्त करना होगा। भविष्य में तुर्की के माॅडल वाला इस्लाम का चीनी विस्तारवादियों के साथ संघर्ष संभव है। यदि ऐसा होता है तो वह भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अवसर होगा। इस अवसर का लाभ दोनों देश उठा सकता है। यदि दोनों देश इकट्ठे हो गए तो साम्राज्यवादी ताकतों के चपेट में आने से बच जाएंगे अन्यथा बिखराव की पूरी संभावना है।  

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