झारखंड का वित्तीय संकट : राजनीतिक फायदे के फिराक में सत्ता व विपक्ष



गौतम चौधरी 

इन दिनों झारखंड के सियासी गलियारों में राज्य की वित्तीय स्थिति को लेकर गजब की हलचल है। सत्ता और विपक्ष दोनों इस संकट को अपने-अपने हितों के अनुसार परिभाषित कर रहे हैं और राजनीति की रोटी सेक रहे हैं। इस मामले को लेकर हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली महागठबंधन की सरकार ने केन्द्र सरकार पर कई आरोप लगाए हैं। इन आरोपों पर प्रतिपक्षी पार्टी भाजपा ने भी सरकार पर निशाना साधा है और साफ शब्दों में कहा है कि जब राज्य सरकार वित्तीय संकट के दौर से गुजर रही है तो फिर मुख्यमंत्री के लिए लग्जरी गाड़ी खरीदने की क्या जरूरत थी। हालांकि इस बयान का भी सत्ता पक्ष की ओर से जवाब आया है लेकिन राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारने के लिए न तो सत्तापक्ष कुछ करने की स्थिति में और न ही विपक्षी पार्टी भाजपा केन्द्र सरकार पर दबाव बनाती दिख रही है, उलटे राज्य सरकार को ही कठघरे में खड़ी कर रही है। 


राज्य की वित्तीय स्थिति सचमुच बहुत खराब है। यह भी सही है कि इससे उबरने के लिए राज्य को केन्द्रीय मदद की भरपूर जरूरत है। इसके बिना कुछ भी संभव नहीं है। जैसे ही हेमंत सोरेन ने राज्य की कमान संभाली उन्होंने वित्तीय संकट की स्थिति से निवटने की कई योजना बनाई और उस दिशा में प्रयास भी प्ररंभ किया, लेकिन उनके सभी प्रयासों पर केन्द्र सरकार ने पानी फेर दी। मसलन, स्टांप ड्यटी बढ़ाने के प्रस्ताव को अभी तक मंजूरी नहीं मिली। खनिजों की नहीं रॉयल्टी विगत सात साल से लंबित है, उसे बढ़ाने प्रयास को केन्द्र सरकार फिलहाल ठंडे बस्ते में डाले हुए है। देश के पहले पन्ना खान की कीमत नहीं तय की जा रही है, जबकि सालों से पन्ना खादान में लूट मची हुई है। यही नहीं राज्य की विपरीत वित्तीय स्थिति की जानकारी के बाद भी केन्द्र सरकार ने बिना राज्य सरकार की अनुमति के उसके हिस्से का 1400 करोड़ रूपये से अधिक की राशि काटकर सीधा दामोदर घाटी निगम को दे दी। 


भारत सरकार झारखंड के कुछ प्रस्तावों को अगर मंजूरी दे तो राज्य पर से वित्तीय संकट दूर हो सकता है। इसके लिए केंद्र सरकार पर आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ेगा। झारखंड सरकार निबंधन के समय लगने वाली स्टांप ड्यूटी का प्रस्ताव चार फीसदी से बढ़ाकर छह फीसदी करने के लिए केंद्र सरकार को भेज चुकी है। वित्त विधेयक होने के कारण इस पर भारत सरकार की मंजूरी आवश्यक है। केंद्र पर इसका कोई वित्तीय भार भी नहीं पड़ने वाला है। इसके बावजूद भारत सरकार इसकी अनुमति देने से कतरा रही है। इस कारण निबंधन से राज्य सरकार के खजाने में अच्छी राशि आने की उम्मीदों पर पानी फिर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में स्टांप ड्यूटी दो फीसदी बढ़ जाने से सालाना एक हजार करोड़ से अधिक की अतिरिक्त आमदनी राज्य सरकार को होगी। 


कोयला, लोहा समेत वृहद खनिजों की रॉयल्टी में पिछले सात साल से इजाफा नहीं हुआ है। 2014 में अंतिम बार रॉयल्टी की दरें बढ़ाई गई थी। फिलहाल खनन कंपनियां राज्य से निकाले जा रहे खनिजों के कुल मूल्य का 14 फीसदी रॉयल्टी के रूप में देती है। झारखंड सरकार इसे बढ़ाकर 20 फीसदी करने की मांग केंद्र सरकार से करती रही है। इसे नहीं माना गया है। यह रॉयल्टी खनन कंपनियों को देनी होती है। इसलिए केंद्र सरकार पर इसका आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ने वाला है। 


देश में पन्ने की पहली खान जमशेदपुर के धालभूमगढ़ के पास हारियान गांव में लगभग एक दशक पहले मिल चुकी है। इस बीच पन्ने का आधा खजाना तस्करों की भेंट चढ़ चुका है। केंद्र से तकनीक की बाट जोहने में झारखंड सरकार उसकी मांत्रा का भी पता नहीं लगा सकी। बाद में इस भंडार के लिए केंद्र सरकार से पन्ने की आधिकारिक कीमत मांगी गई। केंद्र सरकार ने इससे भी हाथ खड़े कर दिए। कुछ महीनों पहले इसे राष्ट्रीय खनिज विकास निगम को सौंपा गया। इसके बावजूद इसमें अभी तक कोई प्रगति नहीं है। अगर पन्ने के खान की नीलामी हो जाती है को झारखंड के खजाने में सालाना हजारों करोड़ रुपए आ सकते हैं।


केंद्र सरकार बड़ी योजनाओं में लगातार झारखंड की अनदेखी कर रही है। विगत दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय ग्रामीण स्वामित्व योजना शुरू की। इसके जरिए हर जमीन का ड्रोन से सर्वे कर ग्रामीणों को उनकी जमीन का स्वामित्व कार्ड उपलब्ध कराना है। इस योजना में पड़ोसी उत्तर प्रदेश समेत देश के छह राज्य हैं, परंतु झारखंड नहीं है। जबकि सीएनटी, एसपीटी और विल्किंसन रूल तथा वनाधिकार कानून के कारण जमीन पर मिलकियत सबंधी विवाद और संकट झारखंड में देश के अधिकतर राज्यों से ज्यादा है। 


यही नहीं भारत सरकार कई योजनाओं में झारखंड को मामूली हिस्सा दे रही है। कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री ने गरीब कल्याण योजना की घोषणा की। इसे तहत कोरोना काल में घर लौटे प्रवासी मजदूरों को घर पर ही काम उपलब्ध कराने का कार्यक्रम शुरू किया गया। देश के छह राज्यों के 116 जिले इससे जोड़े गए। झारखंड के मात्र तीन जिलों हजारीबाग, गिरिडीह और गोड्डा को जोड़ा गया, जबकि खुद केंद्र सरकार के मुताबिक देश के सबसे पिछड़े 106 जिलो में से 19 जिले अकेले झारखंड में है। खुद नीति आयोग ने प्रदेश के इन 19 जिलों को विकास के औसत मानकों पर लाने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाने की सिफारिश की है, बावजूद इसके केन्द्र सरकार अनदेखी कर रही है। झारखंड में अकुशल मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 283 रुपए प्रति दिन है, जबकि भारत सरकार ने झारखंड में मनरेगा मजदूरों का दैनिक पगार 194 रुपए रोजाना तय कर रखा है। यह देश के अधिकतर राज्यों से कम है। झारखंड सरकार बार-बार केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस बारे में आपत्ति जताती रही है। आखिर किस आधार पर केंद्र सरकार ने झारखंड के लिए मनरेगा का इतना कम पगार तय किया है। केंद्र सरकार इससे जुड़े फॉर्मूले पर भी बात करने से कतरा रही है। इसके अलावे भारत सरकार आदिवासी राज्य होने के बावजूद झारखंड की लगातार उपेक्षा करती रही है। केंद्रीय योजनाओं में सबसे कम हिस्सेदारी और रोजगारपरक योजनाओं में भेदभाव करती है। मनरेगा का पगार झारखंड में इतना कम तय किया है कि झारखंड के मजदूर दूसरे राज्य में जाकर काम करते हैं लेकिन यहां मनरेगा में काम करने को तैयार नहीं होते। 


हालांकि राज्य सरकार भी दूध की धुली हुई नहीं है। जब राज्य की वित्तीय स्थिति खराब है तो विलासिता पर खर्च करने की क्या जरूरत है। हेमंत सरकार लग्जरी गाड़ी खरीद रही है। इस मामले को लेकर प्रतिपक्षी भाजपा ने सरकार को आरे हाथों लिया है। भाजपा ने आरोप लगाया है कि कोरोना काल में जब सरकार का खजाना खाली है ऐसे में प्रदेश के मुखिया अपना मंहगा शौक पूरा कर रहे हैं। सतही तौर पर तो इस मामले में केन्द्र सरकार की ही ज्यादा गलती दिख रही है लेकिन इस मामले में राज्य सरकार सक्रिय भूमिका निभाने के बदले दिखवटी प्रयास में ही लगी हुई है। इस संकट से उबरने के लिए राज्य के सांसदों की महत्वपूर्ण भूमिका बनती है लेकिन वे राज्य के हितों को कम और पार्टी हितों को ज्यादा तरजीह देते दिख रहे हैं। 


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