उपचुनाव : हेमंत के लिए कितनी चुनौती खड़ी कर पाएगी गुटों में बंटी प्रदेश भाजपा

गौतम चौधरी 


भाजपा नेतृत्व की ओर से बार-बार दावा किया जा रहा है कि बेरमो और दुमका उपचुनाव में उनकी जीत सूनिश्चित है, परंतु जमीनी हकीकत कुछ और ही कह रही है। ऐसा लग रहा था कि इस उपचुनाव में महागठबंधन के उम्मीदवारों को हेमंत सरकार की असफलताओं और भाजपा के मजबूत संगठन से टकराना पड़ेगा लेकिन जमीन पर ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है। मसलन, प्रदेश सरकार की असफलताओं को केन्द्र सरकार की असफलताओं ने ढ़क दिया है और भाजपा के स्थानीय नेतृत्व का अंतरविरोध हेमंत के लिए संजीवनी का काम करने लगा है। खेमों में बटा प्रदेश का भाजपा नेतृत्व न तो हेमंत सरकार के खामियों को उजागर करने में सफल हो रहा है और न ही कोई आन्दोलन ही खड़ा कर पा रहा है।
आगामी 03 नवम्बर को झारखंड की दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना है। बेरमो विधानसभा की सीट कांग्रेस के कद्दावर नेता, राजेन्द्र सिंह की मृत्यु के बाद खाली हुई थी, जबकि दुमका की सीट मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्वेच्छा से छोड़ी है। यह उपचुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण है। सबसे पहली बात तो यह है कि वर्तमान भाजपा अध्यक्ष दीपक प्रकाश की यह पहली अग्नि परीक्षा है। दूसरी बात, इन दोनों विधानसभाओं के उपचुनाव पर झारखंड का राजनीतिक भविष्य तय होना है। यही कारण है कि सत्तारूढ़, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी महागठबंधन और भाजपा इस उपचुनाव को लेकर बेहद गंभीर है। 
उपचुनाव में महागठबंधन ने दोनों ही सीटों पर अपने उम्मीदवार बदल दिए हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने पुराने उम्मीदवारों पर ही दाव लगाया है। भाजपा ने बेरमो से योगेश्वर महतो बाटुल को मैदान में उतारा है, जबकि दुमका से डाॅ. लुईस मरांडी उम्मीदवार हैं। इधर महागठबंधन ने बेरमो से स्व. राजेन्द्र सिंह के बेटे अनूप सिंह टिकट दिया है और दुमका से हेमंत के अपने सगे भाई बसंत सोरेन चुनाव लड़ रहे हैं। झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 में दोनों सीटों पर महागठबंधन के उम्मीदवार ने जीत दर्ज कराई थी। डाॅ. लुईस मरांडी को हेमंत सोरेन ने 13 हजार से अधिक मतों से शिकस्त दी थी और राजेन्द्र सिंह ने बाटुल को 25 हजार से अधिक मतों से पराजीत किया था।   
यह दोनों सीटें पक्ष और प्रतिपक्ष के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। दुमका सीट को लेकर आम चर्चा यही है कि चूकि बसंत और हेमंत, दोनों भाइयों में मतभेद है और मुख्यमंत्री हेमंत, बसंत को अपना प्रतिस्पर्धी मानते हैं, इसलिए हेमंत, बसंत को हराने की कोशिश करेंगे। यह सतही अवधारणा है। यदि ऐसी गलती मुख्यमंत्री हेमंत करते हैं तो फिर वे झारखंड की राजनीति में टिक नहीं पाएंगे। हेमंत यह अच्छी तरह जानते हैं कि झारखंड की राजनीति का एक ध्रुव भारतीय जनता पार्टी है। फिलहाल विकल्प के तौर पर यदि प्रदेश में कोई पार्टी दिख रही है तो वह झारखंड मुक्ति मोर्चा ही है। इसलिए इस हैसियत को हेमंत बरकरार रखना चाहेंगे। इसके लिए उन्हें अपने नए पुराने साथियों को साथ में रखना जरूरी होगा। ऐसा नहीं करने से उनकी राजनीतिक मृत्यु हो सकती है और उनके स्थान पर कोई अन्य राजनीतिक ताकत प्रभावशाली भूमिका में खड़ा हो सकता है। इसलिए बसंत को हराने या असहयोग करने की हिम्मत जुटाना हेमंत के लिए आसान नहीं होगा। 
दूसरी ओर पिछले चुनाव में कांग्रेस के नेता राजेन्द्र सिंह ने बाटुल को 25 हजार मतों से पराजीत किया था। यह पराजय कोई छोटी पराजय नहीं है। हालांकि इस पराजय के पीछे का कारण आजसू वाले सुदेश महतो को बताया जाता है। पिछले चुनाव में महतो का भाजपा के साथ गठबंधन टूट गया था। प्रदेश के महतो वोट बैंक पर सुदेश की पकड़ा बताई जाती है। उस चुनाव में बाटुल अकेले पड़ गए और सुदेश के समीकरण का वोट उन्हें नहीं मिल पाया, जिसके कारण उनकी हार हुई। इस बार सुदेश भाजपा के साथ हैं। सुदेश ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दीपक प्रकाश को साथ देने का वादा किया है। ऐसे में उम्मीद जताई जा रही है कि बाटुल उपचुनाव निकाल लेंगे लेकिन इस सीट पर भीतरघात की पूरी संभावना है।  
सच पूछिए तो दोनों ही सीटों पर कांटे की लड़ाई है। इस लड़ाई में सत्तारूढ़ गठबंधन कहीं से कमजोर नहीं दिख रहा है। फिलहाल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी हवा, जो दिखनी चाहिए थी वह नहीं दिख रही है। केन्द्र सरकार की असफलता ने इसे ढ़क दिया है। यदि सांगठनिक स्तर पर देखें तो भाजपा अभी भी खेमों में विभाजित है, जबकि गठबंधन में कहीं कोई को गतिरोध नहीं दिख रहा है। 
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश के द्वारा कार्य समिति की घोषणा के बाद से पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास प्रदेश की राजनीति में बुरी तरह सक्रिय हो गए हैं। इस सक्रियता के साथ ही प्रदेश भाजपा के नेताओं में गुटबाजी और गतिरोध साफ झलकने लगा है। पहले ऐसा लग रहा था कि बाबूलाल मरांडी दुमका सीट के लिए अपनी ताकत झोंकेंगे लेकिन रघुबर दास की सक्रियता के साथ ही मरांडी चुप-से बैठ गए हैं। हालांकि उनके पास कोविड का बहाना भी है लेकिन उनके गुट के लोगों ने भी दुमका से मुंह मोड़ लिया है। केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने भी उपचुनाव में रूचि लेना छोड़ दिया है। इधर अपने लगभग 100 महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं के साथ प्रदेश के संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह बिहार विधानसभा चुनाव प्रबंधन की जिम्मेबारी संभाल रहे हैं। रघुबर दास की सक्रियता के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिन्दुवादी संगठनों ने भी इस चुनाव से अपना पल्ला झार लिया है। 
कुल मिलाकर देखें तो अब भाजपा की ओर से यह उपचुनाव केवल रघुवर दास और प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश का चुनाव है, जबकि गठबंधन की ओर से यह चुनाव बेहद गंभीर तरीके से लड़ा जा रहा है। गठबंधन इस चुनाव को गंभीरता से इसलिए भी ले रहा है कि उसे यह डर सताने लगा है कि इस उपचुनाव में हारे तो भाजपा उनकी सरकार को गिराने की पूरी कोशिश करेगी। यही कारण है कि हेमंत, स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी को लेकर सक्रिय दिखा रहे हैं। स्वामी की गिरफ्तारी को लेकर उन्होंने न केवल बयान जारी किया है, अपितु उनकी पार्टी, साम्यवादी दलों के साथ मिलकर आन्दोलन में भी सक्रिय भूमिका निभा रही है। स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी का प्रभाव भी उपचुनाव पर पड़ने की संभावना है। बता दें कि लुईस मरांडी खुद ईसाई हैं और भाजपा को यह उम्मीद है कि लुईस ईसाई मतों में सेंध लगा लेंगी लेकिन ईसाई धर्मगुरू आर्कबिशप के बयान के बाद इस संभावना पर पानी फिरता दिख रहा है। यदि ऐसा होता है तो इसका प्रभाव बेरमो विधानसभा पर भी देखने को मिलेगा। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि बेरमो और दुमका का उपचुनाव भाजपा के लिए आसान है। सच तो यही है कि प्रदेश भाजपा नेतृत्व का अंतरविरोध हेमंत के लिए चुनौती नहीं अवसर प्रदान कर रहा है। उपचुनाव में हेमंत यदि बाजी मार गए तो फिर वे भाजपा के लिए भविष्य की बड़ी चुनौती साबित होंगे।  


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