NDA गठबंधन में दरार के कई मायने, LJP ने बिहार की सियासी जंग को बनाया रोचक

गौतम चौधरी 


चुनाव आयोग की घोषणा के बाद बिहार विधानसभा चुनाव का जमीनी जंग प्रारंभ हो गया है। दो महागठबंधनों ने भी लगभग अपनी-अपनी रणनीति स्पष्ट कर दी है। एक ओर राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन तो दूसरी ओर महागठबंधन अपने-अपने साथी पार्टियों के साथ चुनाव मैदान में उतर चुके हैं। सीटों को लेकर जो गतिरोध था वह लगभग समाप्त हो चुका है। इस बार वाला बिहार का सियासी जंग इसलिए थोड़ा भिन्न है क्योंकि बहुत दिनों के बाद राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर एकिकृत वामदल चुनाव लड़ रहे हैं। इससे पहले वाम पार्टियों का कोई न कोई धरा अपनी मनमानी करता रहा है लेकिन इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव वाम गठबंधन की प्रयोगशाला के रूप में उभरकर सामने आया है। वाम दल आगे कितने संगठित रहेंगे यह तो भविष्य बताएगा लेकिन इस बार बिहार चुनाव में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी-लेनिनवादी से लेकिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तक इकट्ठे चुनाव लड़ने को मजबूर हैं। मसलन इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव वाम दलों के लिए एक प्रयोग है।  

यह चुनाव इसलिए भी थोड़ा भिन्न है कि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के पुराने साथी लोक जनशक्ति पार्टी ऐन मौके एनडीए से कन्नी काट लिया है। चुनांचे अकेले मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है। हालांकि लोजपा के नेता चिराग पासवान ने कहा है कि जहां भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार होंगे वहां वे अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करेंगे लेकिन जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवार जहां मैदान में होंगे वहां वे अपना उम्मीदवार खड़े करेंगे। आम तौर पर लोजपा की रणनीति लोगों की समझ से परे है लेकिन जानकार इसकी गहराई से पड़ताल कर रहे हैं। इस बार संभवतः भाजपा अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित करे। यदि ऐसा हुआ तो यह मानकर चलिए कि चिराग के द्वारा चली गयी चाल लोजपा की नहीं भाजपा की रणनीति का हिस्सा है।
वैसे भाजपा के आधिकारिक नेताओं ने लोजपा की इस घोषणा को गठबंधन धर्म के विरूद्ध बताया है लेकिन केन्द्र सरकार पर इस बात का कोई असर नहीं दिख रहा है। यह चुनाव इसलिए भी थोड़ा मिन्न है कि इस बार भाजपा किसी भी सूरत में जदयू से ज्यादा सीट जीतने की रणनीति पर काम कर रही है। इसके लिए भाजपा के नेता अपने कार्यकर्ताओं को यही समझा रहे हैं कि इस बार अपने उम्मीदवारों की सीटों पर ही ताकत लगानी है। जदयू के सीटों पर संगठनिक शक्ति खर्च करने की जरूरत नहीं है। भाजपा के कार्यकर्ता अभी से यह कहने लगे हैं कि जदयू भले ज्यादा सीटों पर लड़े लेकिन जदयू की अपेक्षा भाजपा को ज्यादा सीटें आएगी। इससे साफ जाहिर होता है कि भाजपा की रणनीति जनता दल यू को कमजोर करना है। इसका असर साफ-साफ दिखने लगा है।

संभवतः भाजपा के रणनीतिकार इस योजना पर काम कर रहे हैं कि अगली सरकार उनके नेतृत्व में बने। इसके लिए जदयू का कमजोर होना जरूरी है। यदि जदयू ज्यादा सीटें जीतती है तो नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री के दावेदार होंगे। यदि जदयू की सीटें कम होती है तो भाजपा अपने नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा ठोकेगी। इसके लिए उसे कुछ विधायकों की जरूरत होगी तो उसकी पूर्ति लोजपा के विधायक कर देंगे। लोजपा के नेता चिराग पासवान उपमुख्यमंत्री बनकर भाजपा के छोटे भाई की भूमिका में आ जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार एक बार फिर अपनी रणनीति बदल सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में वे भाजपा का समर्थन करने के बदले महागठबंधन का समर्थन करना बेहतर समझेंगे। त्याग का परिचय देते हुए तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बना देंगे। इसके साथ ही साथ अपने किसी खास दलित नेता को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी थमा कर बिहार में सुपर मुख्यमंत्री की भूमिका में आ जाएंगे। इसके लिए उन्होंने डाॅ. अशोक चैधरी को पहले से तैयार कर रखा है।

लोजपा की घोषणा के बाद बिहार की राजनीति बहुत तेजी से बदलने लगी है। बदलती हुई परिस्थिति में कई बातें सामने आना अभी बांकी है। हालांकि अभी अनुमान ही लगाया जा रहा है लेकिन लोजपा की घोषणा के बाद भाजपा की स्थिति पर भी गौर करने की जरूरत है। वैसे इन दिनों लोजपा की कमान पूरे तौर पर चिराग के हाथ में है और चिराग पासवान पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी की ओर झुके हुए लग रहे हैं। विगत कुछ दिनों में उन्होंने अपने आप को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ भी जोड़ने की पूरी कोशिश की है। इससे इस अनुमान को बल मिलने लगा है कि चिराग पासवान अब अपने परिवार के द्वारा खड़े किए गए पारंपरिक राजनीति से कुछ हटकर काम करने की मनःस्थिति में हैं। इसका वे पहले भी संकेत दे चुके हैं। चिराग को पता है कि भाजपा के पास विशाल सांगठनिक क्षमता है। इसका लाभ उन्हें मिल सकता है और वे भाजपा की सांगठनिक क्षमता का लाभ उठा बिहार का मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं।

चिराग या फिर भाजपा, नीतीश या फिर तेजस्वी, इस बार किसकी रणनीति कितनी सफल होगी यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा लेकिन लोजपा के अकेले चुनाव मैदान में कूदने से बिहार विधानसभा का वर्तमान चुनाव थोड़ा रोचक हो गया है। वैसे नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। उनकी तुलना चाणक्य से की जाती है। चाणक्य से तुलना करना स्वाभाविक भी है। उनकी पार्टी के पास संगठन का कोई आधार नहीं है, नीतीश कुमार के पास जातिगत वोट बैंक भी नहीं है बावजूद इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विगत 15 वर्षों से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं। नीतीश कुमार का यह राजनीतिक कौशल है। हालांकि हर विधानसभा चुनाव में उन्होंने विशेष प्रकार की चुनौतियों का सामना किया है। पिछली विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन बाद में आरजेडी के साथ गठबंधन तोड़ रातोंरात भाजपा के साथ हो लिए। सच पूछिए तो पिछली दफा न तो भाजपा जीती थी और न ही नीतीश कुमार जीते थे। असली जीत राष्ट्रीय जनता दल की हुई थी। उस चुनाव में एनडीए गठबंधन को मात्र 58 सीटें मिली, जबकि आरजेडी को 80 सीटें मिली थी। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को 71 सीटें मिली और कांग्रेस को 27 सीटें मिली थी। वोट प्रतिशत के मामले में भी महागठबंधन मजबूत था। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की हालत खराब रही और उसे एक भी सीट नहीं मिली। इसी तकत के आधार पर भाजपा इस बार प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा कर रही है लेकिन झारखंड में उसे मुंह की खानी पड़ी है। फिलहाल इंतजार करना होगा। देखते हैं बिहार का सियासी उंट इस बार किस करवट वैठता है।  

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