श्वेत सोना पर सफेद मक्खी का आक्रमण

गौतम चौधरी
कपास की पारंपरिक खेती में अवैज्ञानिक संशोधन गैरवाजिव
पंजाब में इन दिनों श्वेत-सोना, यानि कपास की खेती पर जबरदस्त हंगामा मचा है। पंजाब विधानसभा के सत्र से लेकर बठिंड, अबोहर, फाजिल्का, फिरोजपुर, फरीदकोट के कपास उत्पान क्षेत्र तक यह हंगामा देखा जा रहा है। हंगामा होना भी स्वाभाविक है। कपास की खेती करने वाले किसानों ने अपनी पूरी जमा-पूंजी लगाकर कपास की खेती की और जब कपास तैयार होने को हुआ तो सफेद मक्खी ने आक्रमण कर दिया। तय है कि सफेद मक्खी की मार वाले कपास अब कैड़ियों के दाम बिकेंगे। 

सफेद मक्खी के बारे में ‘‘मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हर विशेषज्ञ इस मामले में अलग राय रखते है। इस मामले में सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं। लिहाजा सरकार की उदासीनता और नकारात्मकता पर भी चर्चा हो रही है। पंजाब के किसानों का तो यहां तक आरोप है कि सरकार की नकारात्मकता के कारण कपास की फसलें मार खा ही है। हालांकि इस आरोप में कोई ज्यादा दम दिखता नहीं है लेकिन विगत कुछ वर्षो से कपास के उत्पादकों पर सरकारी नीतियों का नकारात्मक असर तो पड़ा है। इस मामले में केन्द्र और राज्य, दोनों सरकारें कठघरे में है। इस संदर्भ में कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, जैसे विगत कुछ वर्षो से केन्द्र सरकार कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाती रही है। इस प्रतिबंध के कारण कपास की कीमत में भारी कमी आती है और जहां एक ओर किसानों को कम कीमत पर अपना उत्पाद बेचना पड़ता है वही इस व्यापार में लगे व्यापारियों को जबरदस्त मुनाफा कमाने का मौका मिल जाता है। चर्चा का विषय यह भी बना हुआ है कि विगत दिनों पंजाब सरकार द्वारा खरीदकर वितरित किया गया कीटनाशक बेहद घटिया किस्म का था। हालांकि इस मामले में पंजाब सरकार ने संबंधित अधिकारी को पद से हटा दिया है और मामले पर मुकम्मल जांच बैठा दी है लेकिन कपास उत्पादकों का कहना है कि सतही कार्रवाई से सरकार को माफ नहीं किया जा सकता है। 

अपने देश में लगभग 14 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर भूमि पर कपास की खेती की जाती है। भारत में कपास उत्पादन का 99 प्रतिशत भाग पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिल नाडू से प्रप्त होता है। इन राज्यों में से सबसे महत्वपूर्ण राज्य पंजाब है। बेशक यहां अन्य राज्यों की तुलना में छोटे भूभाग पर कपास की खेती होती है लेकिन कपास उत्पादन में राष्ट्रीय उत्पाद का कुल 18 प्रतिशत योगदान पंजाब का है। पंजाब के दक्षिणी भाग अबोहर, फाजिल्का, फिरोजपुर, फरीदकोट, बठिंडा, मुक्तसर, मानसा आदि जिलों में कपास की सघन खेती होती है। पंजाब का कपास उत्तम किस्म का होता है और बढिया कपड़ों के निर्माण के लिए इसकी मांग दुनियाभर में है। कपास की खेती से देश की 06 करोड़ जनसंख्या जुड़ी हुई है, इसमें से 45 लाख किसन हैं। आंकड़े देखें तो देश के पूरे कृषि व्यापार में कपास का योगदान 14 से लेकर 16 प्रतिशत तक का है। नि:संदेह यह योगदान बढ रहा है लेकिन विगत कुछ वर्षो में जिस गति से कपास के उत्पादन पर प्राकृतिक आपदाओं का आक्रमण और सरकारी उदासीनता का दबाव बढा है, उससे यह लगने लगा है कि कपास के किसान बहुत जल्द ही इस खेती से मुंह मोड़ने लगेंगे। इसका एक उदाहरण कपास की फसल पर स्वेत मक्खी का आक्रमण है। पंजाब विश्वविद्यालय से जुड़े एक अर्थशास्त्री का कहना है कि पंजाब के किसानों के लिए किसी कीमत पर कपास की खेती हितकर नहीं है। इस मामले में खेती विरासत के संस्थापक उमेन्द्र दत्त का आरोप है कि सरकार और कीटनाशक कंपनियों की मिलीभगत से इस प्रकार की समस्या सामने आ रही है। व्यक्तिगत बातचीत में उन्होंने बताया कि मेरे साथ पांच हजार से ज्यादा किसान जुड़े हैं और वे किसान जैविक खेती कर रहे हैं। हमारी पद्धति के आधार पर जो किसान खेती कर रहे हैं उनके साथ सफेद मक्खी की कोई समस्या नही है। दत्त बताते हैं कि हमारे किसानों के खेतों में मक्खियां आई जरूर लेकिन वह फसल को कुछ बिगाड़ नहीं पायी। इसलिए जैविक खेती करने वालों के साथ इस प्रकार की समस्या नहीं आती है। इस मामले को लेकर अहमदाबाद के लीडिंग प्रमोटर ऑफ ऑरगेनिक फार्मिग कपिल शाह कहते हैं कि पेस्टिसाइट के दम पर हम इस प्रकार के कीटों से नहीं लड़ सकते हैं। उन्होंने कहा कि इस पृथ्वी पर मानव का इतिहास कुल पांच लाख वर्ष पुराना है जबकि कीटों का इतिहास सात लाख वर्षो का है। हम उनसे नहीं जीत सकते हैं। कीटनाशकों से वे और मजबूत होंगे और अंततोगत्वा हमारे बनाए हुए जाल में हम खुद फंस जाएंगे। कपिल बताते हैं कि सन् 2000 में अमेरिकन सुंडी आई। उसके लिए कीटनाशक तैयार किये गये। उसके बाद मिनीबग आ गया। अब सफेद मक्खी तवाही मचा रही है। उन्होंने बताया कि गुजरात में इस प्रकार की समस्या नहीं है लेकिन किसान सशंकित जरूर हैं। कपिल का कहना है कि जहर वाली खेती को रोकना होगा। इसके लिए तीन बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पहला बीटी कपास की खेती बंद की जाये, दूसरा कृषि चक्र अपनाया जाये और तीसरा खेतों में जैविक खाद का उपयोग किया जाये। कपिल ने बताया कि भारत में बीटी कपास की खेती के दिन पूरे हो गये हैं और हमें अपने पारंपरिक कपास की खेती को अब अपना लेना चाहिए। उन्होंने बताया कि बीटी कॉटन में कोकेर नामक जीन होता है जो इस प्रकार के हानिकारक कीड़ों का सृजन करता है। जबतक बीटी कपास की खेती होगी तबतक हम इस प्रकार के कीड़ों से नहीं जीत सकते हैं। 

कुल मिलाकर कपास की खेती पर हुए सफेद मक्खी के आक्रमण को यदि गंभीरता से देखें तो इसके पीछे सरकार, व्यापारी और कीटनाशक कंपनियों की मिली-जुली साजिश साफ दिखती है। कपास की खेती को लेकर जानकार बताते हैं कि बीटी कपास की खेती बेहद मंहगी खेती है। उसके बीज, उसके लिए खाद, फिर कीटनाशक, इस खेती में किसान पूर्णरूपेण व्यापारियों पर आश्रित हो जाता है। किसानों को अधिक लाभ का लालच दिया जाता है और सुनियोजित तरीके से उसे ऋण के जाल में फंसा दिया जाता है। इस पूरे मामले में आंतरिक रूप से राज्य एवं केन्द्र, दोनों की सरकारें किसानों के हित में नहीं, बीज, कीटनाशक और रसायनिक खाद बनाने वाली कंपनियों का साथ देती है। कभी घटिया बीज उपलब्ध करा दिया जाता है, तो कभी निहायत अनुपयुक्त कीटनाशक की आपूर्ति कर दी जाती है। किसान अपनी जमा-पूंजी या फिर कर्ज लेकर खेती करता है और उपज के समय सुनियोजित षड्यंत्र के कारण मानव जनित विपदाओं से उसका फसल बरबाद हो जाता है। यही नहीं, तैयार फसलों पर जो उसे मुनाफा मिलना चाहिए वह भी सरकारी मुलाजिम को पटाकर व्यापारी मार लेते हैं। विशेषज्ञों की राय में इस प्रकार की समस्या का एक मात्र समाधान जैविक एवं बहुफसलीय खेती है। फसल चक्र का टूटना खेती की पूरी संस्कृति का समाप्त होना है। इसे जिंदा रखने के लिए पारंपरिक खेती को युगानुकूल बनाने और खेतों में जैविक खाद डालने की जरूरत है। 

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