आसन्न विधानसभा चुनाव में आखिर किस करवट बैठेंगे पंजाब के वामपंथी?

Gautam Chaudhary
राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के खिलाफ संगठित वा एकत्रित किसी नए गठबंधन की रूप-रेखा अभीतक तो सामने नहीं आयी है लेकिन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर स्थानीय स्तर पर दलों का जोड़-तोड़-गठजोड़ सामने आने लगा है। मसलन आसन्न पंजाब विधानसभा चुनाव को लेकर भी दलों के आपसी तालमेल और चुनावी सैदेबाजी प्रारंभ हो गयी है। हालांकि पंजाब में सत्तारूढ गठबंधन के खिलाफ मोर्चेबंदी की गति मंद है लेकिन प्रतिपक्षी गठबंधनों का आकार कई मोर्चों पर स्वरूप ग्रहण करने लगा है। निःसंदेह अकाली-भाजपा अपने संयुक्त सामाजिक और पांथिक गठजोड़ के कारण अभी भी मजबूत दिख रहे हंै। इस बार भी वह पूरी उम्मीद के साथ मैदान में हैं। हालांकि सत्ता विरोधी हवा ने उसके खिलाफ माहौल जरूर बना दिया है लेकिन पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए बन रहे मोर्चों और बठबंधनों के साथ बहुध्रूवीय मुकाबले में सत्तारूढ गठबंधन की उम्मीद को हतोत्साहित करना कठिन जान पड़ता है। इन तमाम उहापोहों के बीच मजबूत सांगठनिक क्षमता वाले वामपंथी धरों के स्वरूप और गठजोड़ की रणनीति दिलचस्प होती जा रही है। पिछली बार तो ये मनप्रीत बादल की पीपल्स पार्टी आॅफ पंजाब के साथ गठबंधन में चुनाव लड़े लेकिन इस बार मनप्रीत बादल खुद कांग्रेस के साथ हो लिए हैं। उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया है। अब इस बार वाम मोर्चा कौन सी रणनीति अपनाता है यह देखने वाला होगा।
प्रेक्षकों की राय में जो लोग वाम मोर्चा को पंजाब में कम कर आंकते हैं वे मुगालते में हैं। पंजाब के चुनावी इतिहास में वामपंथियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है। इस संदर्भ में पंजाब के आधुनिक राजनीतिक इतिहास पर अपनी अच्छी पकड़ रखने वाले पत्रकार हमीर सिंह का कहना है कि जब सन् 67 में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी उस समय वामपंथी और जनसंघी, अकालियों के साथ मिलकर सरकार बनाए थे। उन दिनों वामपंथियों की पंजाब में जबरदस्त धमक थी। उन्होंने बताया कि पंजाब में पांच प्रतिषत मतों पर वामपंथियों का अधिकार था लेकिन आपसी फूट और सांगठनिक चूक के कारण अब संयुक्त वाम मोर्चा के पास केवल दो प्रतिषत वोट रह गया है। हालांकि भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता का कहना है कि आज भी संगठित और गैर संगठित मजदूर संगठनों में वामपंथी बेहद मजबूत हैं जो पंजाब की सियासत को प्रभावित करते हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर वामपंथी कमजोर दिख रहे हैं। उन्होंने बताया कि सरकारी क्षेत्र के कर्मचारी संगठनों के सहयोग से ही कोई पार्टी पंजाब में सत्ता प्राप्त करती है। पिछली बार मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल ने कर्मचारियों में फूट डाल दी और कर्मचारियों के बड़े धरों को अपने पक्ष में कर लिया। दूसरी ओर कांग्रेस के साथ वाम दलों का गठबंधन सिरे नहीं चढ पाया। इसलिए बादल फिर से सत्ता प्रप्त करने में कामयाब रहे लेकिन इस बार कर्मचारी बेहद नाराज हैं और किसी कीमत पर बादल के झांसे में आने वाले नहीं हैं। इसलिए संभावना बादल के खिलाफ ही दिख रही है। कुल मिलाकर देखें तो पंजाब में वामपंथी दलों के पास जो ताकत है उसे भी नकारा नहीं जा सकता है। अब देखना यह है कि वे किस पार्टी का समर्थन करते हैं और किसका विरोध या खुद मोर्चा बनाकर मैदान में उतरते हैं।
वर्तमान परिस्थति में पंजाब वाम दलों के सुर एक जैसे नहीं हैं। जहां एक ओर भारतीय कैम्यूनिस्ट पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन की दिषा में बढ रही है तो दूसरी ओर अन्य वामपंथी दल अपनी-अपनी डफली बजा रहे हैं। माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के प्रदेष सचिव चरण सिंह बिरदी ने तो कांग्रेस के साथ गठबंधन से साफ मना कर दिया और कहा कि हम वाम लोकतांत्रिक मोर्चा के बैनर तले चुनाव लड़ेंगे। हालांकि भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है लेकिन इनके सुर बदले-बदले से हैं। संभावना ऐसी जताई जा रही है कि वे कम्फाॅर्ट जोन की तलाष में हैं। पंजाब माक्र्सवादी कैम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हुए पासला गुट वाले वामपंथियों ने तो बिना किसी वामपंथी दलों से पूछे पंजाब विधानसभा के कई सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा भी कर दी है। हालांकि भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी, माक्र्सवादी-लेनिनवादी, लिब्रेषन ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन जब अन्य वामदल अपनी-अपनी डफली बजा रहे हैं तो फिर उन्हें भी अपना राग अलग ही अलापना होगा। इधर वाम एकता की एक उम्मीद पुराने वामपंथी और वर्तमान पटियाला लोकसभा के सांसद डाॅ. धर्मवीर गांधी ने जगाई है। विगत दिनों उन्होंने एक अखबार को बताया कि वे प्रो. मंजीत सिंह की स्वराज पार्टी के साथ मिलकर जिस लोक पंजाब मोर्चा का गठन किया है वह वाम दलों को भी अपने साथ लाने की कोषिष में है। यदि वार्ता सफल रही तो वाम दल और लोक पंजाब मोर्चा एक नए मोर्चे के साथ पंजाब विधानसभा चुनाव में उतरेगा। लेकिन इसकी सत्यता पर वाम दल के नेता ही प्रष्न खड़ा करने लगे हैं। माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के पंजाब सचिव बिरदी, गांधी के इस बयान को हल्के में लेते हैं और कहते हैं कि गांधी फ्यूडल लोगों के साथ हैं इसलिए उनके मोर्चो के साथ वाम गठबंधन संभव नहीं है।
ऐसे में पंजाब के वामपंथी किसी ओर जाएंगे यह प्रष्न बना हुआ है। पिछले विधानसभा चुनाव में वाम गठबंधन 27 सीटों पर चुनाव लड़ा। वाम गठबंधन को दो प्रतिषत के करीब मत प्रप्त हुआ। कई स्थानों पर वाम उम्मीदवारों ने अपने प्रतिपक्षियों को बढिया टक्कर भी दिया। इस बार उनकी रणनीति अभी तक साफ नहीं हुई है। लेकिन उम्मीद यही है कि ये आपस में एक होकर चुनाव नहीं लड़ेंगे। इससे घाटा किसको होगा और फायदा कौन उठाएगा अभी इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है लेकिन कुल मिलाकर वाम एकता को धक्का जरूर लगेगा जिसका फायदा सत्तारूढ दल को मिलने की पूरी संभावना है। चाहिए यह था कि सत्तारूढ गठबंधन के खिलाफ वामपंथी संगठित होकर आम आदमी पार्टी या कांग्रेस के साथ हो लेते। इससे सत्तारूढ गठबंधन कमजोर होता और आने वाले समय में वामपंथियों की ताकत भी बनी रहती लेकिन जो संभवना दिख रही है उसमें वामपंथी खुद का अहित करने में लगे हैं।

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