बांग्लादेशी अल्पसंख्यक हिन्दुओं के प्रति हमारा भी कुछ दायित्व बनता है!

कलीमुल्ला खान
विगत दिनों बांग्लादेश में लगभल 20 मंदिरों को तोड़ दिया गया। 100 हिन्दुओं के घरों पर आक्रमण किया गया। यह आक्रमण 30 अक्टूबर 2016 से प्रारंभ हो गया था और कई दिनों तक चलता रहा। निःसंदेह इस घटना को कट्टरपंथियों ने अंजाम दिया। क्या भारतीय मुस्लमानों को इस कुकृत्य के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए? हमें यह सोचना होगा कि आखिर इस प्रकार की घटनाओं का कही न कही कोई न कोई तो असर होता ही है। यदि हम यह सोचे तो इसपर व्यापक बहस की गुंजाइस है। बांग्लादेश में हमारे मुस्लमान भाई हिन्दुओं पर आक्रमण कर रहे हैं और म्यामार में बौद्ध, बांग्लादेशियों को मारने में लगे हैं। इसका अंत तो होना चाहिए। कुल मिलाकर देखें तो हम सभी एक ही भूमि के संतान हैं। यदि बांग्लादेश में हिन्दुओं पर आक्रमण होता रहा तो फिर हिन्दुओं का गुस्सा भारत में बढ़ेगा और उसका खामियाजा भारतीय मुस्लमानों को स्वाभाविक रूप से उठाना पड़ेगा।  
सन् 1970 में बांग्लादेश में कुल हिन्दुओं की संख्या बांग्लादेश की पूरी जनसंख्या का 13.5 प्रतिशत था। आज के आंकडे़ डरावने हैं और यह संख्या घटकर मात्र 8.5 प्रतिशत रह गयी है। ढाका विश्वविद्यालय के द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में बताया गया है कि सन् 1964 के बाद से अबतक करीब एक करोड़ हिन्दुओं ने बांग्लादेश छोड़ दिया है। एक जानकारी में बताया गया है कि बांग्लादेश में अल्पांख्यक हिन्दुओं के खिलाफ नृशंस हमलों से वे बहुत डरे हुए हैं। सरकार के द्वारा सुरक्षा के लिए किए गए प्रयास से भी उनके अंदर का डर समाप्त नहीं हो पा रहा है। हालांकि बांग्लादेश सरकार ने इन दिनों इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ कई उपाए किए हैं लेकिन हिन्दुओं में अभी भी डर बना हुआ है। इन दिनों बांग्लादेश में जबरदस्त तरीके से कट्टरता के खिलाफ माहौल बन रहा है। यदि यों कहें कि अब एक नए बांग्लादेश का निर्माण हो रहा है तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बांग्लादेश मानवाधिकार आयोग ने हिन्दुओं के उपर हुए अत्याचार के खिलाफ जांच के आदेश दिए और कई मानवाधिकारवादी कार्यकर्त्ता हिन्दुओं के हितों के लिए उठ खड़े हुए हैं। इन तमाम गतिविधियों के बीच बांग्लादेश कम्यूस्टि पार्टी के महासचिव सैयद अबु जफर अहमद ने कई कदम आगे बढकर सरकार पर आरोप लगाया कि सरकार हिन्दुओं के पूजा स्थलों को सुरक्षा प्रदान करने में नाकाम रही है। 
इस तरह के हमलों को किसी भी प्रकार सही नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि कट्टरपंथियों के द्वारा जो तर्क दिया जाता है उसके खिलाफ एक माहौल बनाया जाए और उन्हें अलग-थलग किया जाए। इससे यह फायदा होगा कि आतंकवाद का समर्थन करने वाले हतोत्साहित होंगे और समाज में कट्टरता कम होती चली जाएगी। इस बहसी कृत्य को करने वालों ने अपने ढंग का एक तर्क भी गढा और हिन्दुओं के उपर आरोप लगाया कि कुछ लोग सोशल मीडिया पर काबा के अंदर एक देवी की प्रतिमा दिखाने का प्रयास किया था जिसके कारण उन्हें मजबूतर होकर हिन्दुओं के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। कट्टरपंथी अपने तर्क से हिन्दुओं के खिलाफ आक्रमण को यही कहकर जायज ठहरा रहे हैं लेकिन क्या यह सही है? 
इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है कि मक्का मुस्लमानों के लिए अति पवित्र स्थल है और उसका सम्मान होना ही चाहिए। मक्का में विश्व के कोने-कोने से इस्लाम को मानने वाले आते रहते हैं। दुनिया के एक मात्र जगह पर हज का रस्म पूरा किया जाता है और वह पवित्र स्थल मक्का है। वैसे तो मोटे तौर पर नज्द, तैफ व जेद्दा जैसे इतिहासिक शहरों के समूह को मक्का के नाम से पुकारा जाता है किन्तु जब हम मक्का शब्द का उच्चारण करते हैं तो आमतौर पर हमारा तात्पर्य काबा या किबला से होता है-यानि वह दिशा जिस ओर हर मुसलमान खड़ा होकर अपनी पांच वक्त की नमाज अदा करता है। इस धार्मिक महत्ता व पवित्रता को देखते हुए इस्लाम के सबसे पवित्र स्थान की अवमानना कतई बर्दास्त करने योज्ञ नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह है कि किसी दूसरे धर्म के मानने वालों के खिलाफ हिंसा पर उतारू हो जाएं? यह कतई धर्म के हित में नहीं है। 
यह अफसोसजनक है कि भारत के मुस्लिम नेताओं व राजनेताओं ने न तो बांग्लादेश में हिन्दुओं के खिलाफ हुए हमलों को लेकर इसकी निंदा की और ना ही इसके विरोध में कोई रोष-प्रदर्शन किया। भारतीय धार्मिक व राजनैतिक नेताओं की चुप्पी उनके अपने हिन्दू भाइयों के प्रति उदासीनता का ही परिचायक है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि भारत में ज्यादातर हिन्दू यहां रह रहे मुसलमान अल्पसंख्यकों के साथ हर उस वक्त खड़े हो जाते हैं जब उन्हें लगता है कि वह किसी ज्यादाती का शिकार हो रहा है। फिर चाहे वह गाय के पक्षधरों द्वारा अखलाक अहमद को पीट-पीटकर मारने की घटना हो या जेएनयू के नजीब अहमद के एकाएक गायब हो जाने की बात हो। भारत में धर्मनिर्पेक्ष व उदार हिन्दुओं द्वारा हमेशा मुसलमानों के हो रहे कथित अत्याचार के विरोध में अपार समर्थन व्यक्त किया जाता रहा है। 
किन्तु ठीक इसी प्रकार जब मुस्लिम देशों में धर्मिक अल्पसंख्यको के खिलाफ हो रहे हमलों की बात सामने आती हे तो बड़ी हैरानी होती है कि हम मुसलमान इन घटनओं के शिकार बने लोगों के प्रति कोई आवाज नहीं उठाते और न ही इस तरह के धार्मिक रूढिवादियों का पुरजोर विरोध करते हैं। हम मुसलमानों में इस तरह की परिस्थितियों में आत्मनिर्णय की स्थिति आमतोर पर अनुपस्थित ही होती है। अब समय आ गया है कि हम अपने अंदर साहस बटोरें ताकि मुसमानों की दुनिया में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही ज्यादतियों के विरोध में अपनी आवाज बुलंद कर सके। 
होना तो यह चाहिए था कि बांग्लादेश में हो रहे हिन्दू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों के प्रति हम लोग पुरजोर आवाज में विरोध करते किन्तु यह देखकर दुःख होता है कि पाकिस्तान में ईसाइयों व शियाओं पर तथा बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हो रहे हमलों को लेकर भारतीय मुसलमान किसी प्रकार का विरोध नहीं कर पाता है। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि कुछेक उदारवादी मुस्लिम कार्यकर्त्ताओं, छात्रों व युवाओं द्वारा रोष-मार्च निकाले गए जिनकी अगुवाई करने के लिए कोई भी नामचीन मुस्लिम नेता या संगठन आगे नहीं आया। 
इन सबके बावजूद हमारे पड़ोसी मुस्लिम देशों में जो कुछ भी हो रहा है वह बहुत ही दुःखदायी है। कुछ समय पहले पाकिस्तानी-पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की उन्हीं के अंगरक्षक मलिक मुमताज ने सिर्फ यह सोचकर हत्या कर दी थी कि वे पाकिस्तान के ईशनिंदा-कानून में सुधार करना चाहते थे। उनके इस अंगरक्षक का यह मानना था कि तासीर ने यह कृत्य कर खुद ईशनिंदा का जुर्म किया और उसके लिए इस्लम में एक मात्र सजा है मौत। 
इस सारे घनाक्रम में एक बात संतोषजनक है कि बांग्लादेश के एक बहुत बड़े उदार मुस्लिम संगठन अहल-ए-सुन्नत जमात ने हिन्दू पीडि़तों के समर्थन में ढाका में एक आतंकवाद-विरोधी रैली का आयोजन किया और उनके हक में अपनी आवाज बुलंद की। उनकी इस कार्रवाई से बांग्लादेश के हिन्दुओं को कुछ तो राहत मिली होगी। किन्तु सिर्फ इतना कर देने से नहीं होगा। जबतक बांग्लादेश में जड़ जमा चुके मजहबी आतंकवाद को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जाएगा तबतक वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं के उपर हमले की घटना होती रहेगी। इधर हमें भी अपने देश में माहौल बनाना होगा। यदि किसी मुस्लिम देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ घटना घटती है तो हमें भी सजगता के साथ वहां के अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़ा होना होगा। 

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