आखिर कहां खड़े हैं पंजाब के दलित?

गौतम चौधरी :
पंजाब विधानसभा चुनाव का बिगुल बज गया। हालांकि चुनावी समर में अपनी-अपनी जीत पक्की करने के लिए हर पार्टियों ने अपने विसात विछाने प्रारंभ कर दिए हैं लेकिन चुनाव में चर्चा इस बात पर भी होने वाली है कि आखिर किस पार्टी का आधार-वोट क्या है? अखिल भारतीय कांग्रेस, बादल गुट वाले शिरोमणि अकाली दल, भारतीय जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लेफ्ट फ्रंट, शिरोमणि अकाली दल-अमृतसर आदि कई पार्टियां चुनाव मैदान में हैं। इन तमाम पार्टियों के अपने-अपने आधार हैं और अपने-अपने दावे। 
क्षेत्र की दृष्टि से देखें तो पंजाब तीन भागों में विभाजित है और जाति के आधार पर देखें तो कई आधार उभरकर सामने आते हैं। कुल मिलाकर पंजाब में सबसे मजबूत और प्रभावशाली जातीय समूह जट्ट सिखों का है। इसके बाद दलित आते हैं। हालांकि संयुक्त दलितों की संख्या ज्यादा है लेकिन राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से जट्टों के मुकाबले वे कमजोर पड़ते हैं। एक तबका हिन्दू उच्च वर्ग का भी है जो ज्यादातर शहरों में निवास करते हैं और इस बार के चुनाव में उनकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है। आज हमारे विमर्श का विषय पंजाब के दलित हैं। ये मतदाता आखिर कहां खड़े हैं? इसपर गंभीर विमर्श की जबरदस्त गुंजाइस है। 
प्रेक्षकों की नजर में पंजाब के अंदर दलितों की संख्या कुल मतों का 32 प्रतिशत है। इसमें बाजीगर, रविदसिया, वाल्मीकी, चर्मकार आदि कई जातियां शामिल है। संभवतः इन्हीं मतों को केन्द्रित करने के लिए भाजपा ने पंजाब प्रदेश की कमान दलित नेता के हाथ में सौंपी है। हालांकि इस रणनीति का भाजपा को कितना फायदा होगा यह तो समय बताएगा लेकिन भाजपा की राजनीति पर नजर रखने वालों का यही कहना है कि भाजपा पंजाब में अपना आधार बढ़ाने के लिए ही दलित चेहरे को आगे किया है। 
मोटे तौर पर देखें तो पंजाब के राजनीतिक इतिहास में दलित मतदाता पहले साम्यवादियों के साथ हुआ करते थे। जानकार बताते हैं कि पंजाब का नक्सल आन्दोलन दलितों के बदौलत ही आगे बढा। इसके बाद पंजाब के दलितों पर जबरदस्त प्रभाव बहुजन समाज पार्टी ने जमा लिया। इसका कारण भी था। बहुजन समाज पार्टी के प्रमुख मान्यवर कांशीराम जी पंजाब स्थित पिर्थीपुर बंुगा के रहने वाले थे। साम्यवादियों के द्वारा छोड़ी गयी जमीन पर उन्होंने अपनी पकड़ मजबूत करने की पूरी कोशिश की। यही कारण था कि उत्तर प्रदेश के बाद बहुजन समाज पार्टी का सबसे ज्यादा प्रभाव पंजाब में देखा जाने लगा। बहुजन समाज पार्टी सन् 1992 के विधानसभा चुनाव में 16.37 प्रतिशत मत प्रप्त की। पार्टी ने 2002 में 09 सीटों पर अपनी जीत भी दर्ज कराई लेकिन इसके बाद पार्टी का मत प्रतिशत घटने लगा। धीरे-धीरे पार्टी कमजोर होने लगी। इसका कारण क्या रहा, खोज का विषय है लेकिन इतना तय है कि पार्टी का कोई मजबूत नेता पंजाब में फिर से खड़ा नहीं हो पाया। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 117 विधानसभा में से 111 पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन वोट केवल 4.29 प्रतिशत ही प्रप्त हो सका। विगत विधानसभा चुनाव को देखकर कुछ लोग यह समझ सकते हैं कि पंजाब में यह दलित राजनीति का अवसान है लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। पहले साम्यवाद, फिर बहुजनवाद के माध्यम से पंजाब के दलित अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास कराते रहे। तो बहुजन समाज पार्टी के कमजोर होते ही दलित अपने रास्ते अन्य राजनीति दलों में भी लताशने लगे। जो लोग यह मानते हैं कि बहुजन समाज पार्ट के कमजोर होने से पंजाब का दलित आन्दोलन ही कमजोर पड़ गया यह गलत अवधारणा है। अब दलित कई पार्टियों में प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं। सबसे ज्यादा मजबूत पकड़ भाजपा में उन्होंने बताया है। कुछ लोग ऐसा मान सकते हैं कि दलित आन्दोलन कमजोर पड़ गया लेकिन पार्टियों के कमजोर होने से उसके जनाधार को कमजोर समझ लेना उचित नहीं होगा। जानकारों की मानें तो पंजाब का दलित आन्दोलन आज भी जिंदा है और कई रूपों में वह लोगों के सामने है। 
इन दिनों पंजाब के दलितों में कांग्रेस, बादल गुट वाले शिरोमणि अकाली दल और भाजपा की भी पैठ है। क्योंकि विगत दो चुनावों से पहले दोआबा-जो दलित मतदाताओं का मजबूत आधार वाला क्षेत्र बताया जाता है, वहां से कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिलती थी लेकिन 2007 और 2012 में सत्तारूढ गठबंधन को यहां से ज्यादा सीटें मिली। इससे यह साबित होता है कि पंजाब के दलितों ने बाद के दिनों में राजनीतिक पकड़ मजबूत बनाने के लिए सभी पार्टियों में प्रवेश की रणनीति बनाई। यह परिवर्तन साफ दिखता है। 
अब इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी दोआबा और मालवा दोनों में मजबूत दिख रही है। दोनों क्षेत्र दलित राजनीति का गढ माना जाता है। इसलिए पंजाब का दलित आन्दोलन अब जहां एक ओर सभी पार्टियों के माध्यम से अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही है वहीं दूसरी ओर संभवतः आम आदमी पार्टी के माध्यम से अपने आन्दोलन को और प्रभावशाली बनाने की कोशिश में भी लगी है। इससे यह साफ हो जाता है कि पंजाब के दलित पारंपरिक राजनीति से अपना पल्ला झारने लगे हैं। इसे एक नए प्रकार का प्रयोग कहें या खास प्रकार के दलित हिमायती राजनीतिक दलों के प्रति उदासीनता, लेकिन इससे यह साबित होता है कि पंजाब का दलित आन्दोलन एक नए मोकाम की तलाश में है। यदि यह तलाश लक्ष्य तक पहुंचा तो पंजाब देश के लिए एक आदर्श दलित राजनीति का केन्द्र बनकर उभरेगा। यदि न भी सफल रहा तो दलित की राजनीतिक दस्त बेहद प्रभावशाली मानी जाएगी। कुल मिलाकर पंजाब के दलित संघर्ष आज भी जारी है। राजनीतिक पकड़ के लिए अन्य राज्यों की तुलना में दलित यहां ज्यादा संघर्षशील हैं। हालांकि इनती संख्या यहां अन्य किसी प्रन्तों की तुलना में प्रतिशत ज्यादा है लेकिन राजनीतिक प्रभाव कमजोर है। आने वाला समय बताएगा कि आखिर दलित राजनीति पंजाब में अपना कितना रंग जमा पाता है। 

Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत