भाजपा के लिए 2019 का आम चुनाव उतना आसान नहीं होगा


गौतम चौधरी 

हाल के उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगदी दलों की करारी हार यह साबित करने के लिए काफी है कि भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है। दूसरी ओर महागठबंधन की सुगबुगाहट भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजाने लगी है। इस मामले में भाजपा समर्थकों का दावा है कि उपचुनाव और आम चुनाव में फर्क होता है इसलिए उपचुनावों की तुलना आम चुनाव से नहीं की जानी चाहिए। लिहाजा भाजपा समर्थक यह भी दावा करते हैं कि इधर के दिनों में जिस किसी राज्यों में विधानसभा का चुनाव हुआ है वहां भाजपा की जीत हुई है और यह साबित करता है कि भाजपा व नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बरकरार है। लेकिन जो आंकड़े आ रहे हैं वह भाजपा के अनुकूल नहीं हैं। ये आंकड़ें बता रहे हैं कि अगर भाजपा अपनी रणनीति नहीं बदली और तत्काल कुछ लोककल्याणकारी कार्यों को अंजाम नहीं दिया तो आने वाले लोकसभा आम चुनाव में शर्तीया तौर पर भाजपा को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। 

यही नहीं इन दिनों लगातार कांग्रेस इस योजना में लगी हुई है कि भाजपा के खिलाफ देश के तमाम प्रतिपक्षियों को एक मंच पर लाया जाए। हालांकि उसमें अभी मतभेद बांकी है लेकिन कांग्रेस अपनी चाल में थोड़ा ही सही लेकिन कामयाब होती दिख रही है। कांग्रेस की रणनीति है कि या तो प्रतिपक्षियों को अपने साथ जोड़ लिया जाए और आम चुनाव को लेकर पूरे देश में एक महागठबंधन बनाया जाए। कांग्रेस का दूसरा प्लान यह है कि अगर यह महागठबंधन नहीं बन पाया तो तीसरे फ्रंट का गठन करवा दिया जाए और चुनाव के बाद समझौते से सरकार बना लें। यानी कांग्रेस किसी प्रकार भाजपा व नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बेदखल करना चाहती है। इस योजना में कांग्रेस सफल होती दिख रही है। दूसरी ओर कांग्रेस को नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के गिरते ग्राफ का भी फायदा हो रहा है। अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ने लगी है। राहुल एक परिपक्व नेता के रूप में स्थापित होते जा रहे हैं जबकि नरेन्द्र मोदी की बातों को अब लोग गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इस जमीनी हकीकत से शायद भाजपा वाकफ न हो लेकिन भाजपा के कुछ जमीनी कार्यकत्र्ता इस बात को समझने लगे हैं।  

मसलन कतिपय तथ्य नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं जो भाजपा की लोकप्रियता को चिंहित और आसन्न भाजपा विरोधी गठबंधन को जमीन प्रदान कर रहा है। कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस के पोस्ट पोल अलायंस के बाद सीएम के तौर पर एचडी कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी एकजुटता दिखी। इसे दिखाने के लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने अखिलेश, मायावती, ममता बनर्जी, एन चंद्रबाबू नायडू, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी समेत अन्य के साथ मंच साझा किया। ऐसा संभवतः 2019 में भाजपा और पीएम मोदी के खिलाफ एक मजबूत फ्रंट का संदेश देने के लिए भी किया गया। हालिया कैराना उपचुनाव में आरएलडी उम्मीदवार के रूप में विपक्ष के साझे उम्मीदवार की जीत ने इस आइडिया को और आगे ही बढ़ाया है। 15 सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी केवल पालघर लोकसभा सीट और थराली विधानसभा सीट बचा पाई। इसमें पालघर में बहुकोणीय लड़ाई देखने को मिली। यहां यह भी बता देना उचित होगा कि इस बार के कर्नाटक चुनाव में भाजपा को 36 प्रतिशत मत मिले हैं जबकि कांग्रेस को दो प्रतिशत ज्यादा 38 प्रतिशत मत प्रप्त हुआ है। गुजरात में भी कांग्रेस को फायदा हुआ है। वहां भी कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा है। हालांकि वहां भाजपा का भी मत प्रतिशत बढ़ा है लेकिन भाजपा की तुलना में कांग्रेस की लोकप्रियता और स्वीकार्यता गुजरात में बढ़ती दिख रही है। 

लोकसभा सीटों के हिसाब से टॉप 10 बड़े राज्यों में से कम से कम 08 राज्यों में भाजपा विरोधी मंच की संभावना बनती दिख रही है।  की अगर हम पड़ताल करते हैं तो हमें साफ-साफ भाजपा के गिरते हुए ग्राफ का एहसास होता दिख रहा है। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ और गुजरात को शामिल कर लें तो स्थिति और भयावह दिखती है। इन तीनों राज्यों में भी इस बार की स्थिति भिन्न होगी। गुजरात विधानसभा चुनाव में भले भाजपा जीत गयी लेकिन अब गुजरात में भाजपा को कांग्रेस की ओर से जबरदस्त चुनौती मिलने लगी है। इस बार के आम चुनाव में गुजरात में भी कांग्रेस की अच्छी स्थिति की संभावना व्यक्त की जा रही है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसायटीज के डायरेक्टर संजय कुमार का कहना है कि बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय गठबंधन कागज पर अच्छा और बेहतर दिखता है लेकिन अपने देश की विविधता और पार्टियों की बहुतायत की वजह से ऐसे गठबंधन केवल राज्य स्तर पर ही काम कर सकते हैं। लेकिन इस बार जो कांग्रेस की रणनीति है वह इसी समझ के आधार पर केवल राज्य स्तर पर ही है। कांग्रेस सचमुच का संघीय गठबंधन बनाने की योजना में है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का संघीय गठबंधन का कनसेप्ट इस बार साकार होगा और देश के क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में एक मंच पर आएंगे या फिर खुद का मंच बनाकर आम चुनाव में हिस्सा लेंगे। दोनों की परिस्थिति में कांग्रेस को लाभ होता दिख रहा है। 

उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं। परंपरागत प्रतिद्वंद्वी मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक साथ आकर बीजेपी को पहले गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में हराया। इसके बाद इसी को कैराना के उपचुनाव में दोहराया गया। अगर एसपी-बीएसपी (प्लस कांग्रेस-आरएलडी) की यह दोस्ती 2019 तक जारी रही तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाएगी। एक दूसरा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या इन दोनों पार्टियों के कोर वोटर्स (एसपी के लिए पिछड़े और मुस्लिम, बीएसपी के लिए दलित) एक दूसरे के कैंडिडेट्स को सपॉर्ट करेंगे? इस मामले में बिहार में भी इसी प्रकार के प्रश्न खड़े किए जा रहे थे। जब आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस का महागठबंधन बन रहा था तो भाजपा वहां यही प्रचार कर रही थी कि आरजेडी और जेडीयू अपना-अपना वोट एक दूसरे को नहीं दिलवा पाएंगे लेकिन बिहार में हुआ इसका ठीक उलटा। दोनों दलों ने एक दूसरी पार्टियों को अपना वोट सिफ्ट करवाया अपितु तीसरे दल कांग्रेस को भी वोट दिलवाने में ये दोनों दल सफल रहे।

इधर महाराष्ट्र में भी भाजपा-शिवसेना के बीच भयंकर अंतरविरोध उत्पन्न हो गया है। दोनों दल आपस में निर्णायक लड़ाई के मूड में दिख रहे हैं। ऐसे में आम चुनाव तक दोनों का एक साथ रहना संभव नहीं दिख रहा है। सूबे में बीजेपी के साथ सरकार चलाने वाली और केंद्र में एनडीए का हिस्सा शिवसेना ने खुद यहां विपक्षी एकजुटता की वकालत की है। हालांकि शिवसेना ने यह भी कहा है कि वह 2019 का आम चुनाव और विधानसभा चुनाव अकेले लड़ सकती है। यहां कांग्रेस और एनसीपी फिर एक बार एक साथ आ सकती हैं। ऐसे में शिवसेना पर भी दबाव पड़ सकता है कि वह इस गठबंधन में शामिल हो। एक जटिल तस्वीर यह बन सकती है कि विधानसभा चुनाव अगर आम चुनावो के साथ न हों तो बाद में हों। शिवसेना विधानसभा चुनाव अकेले भी लड़ सकती है। 

पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी भी कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में मौजूद थीं। यह शायद इस बात का भी संकेत था कि वह कांग्रेस के नेतृत्व वाले ऐंटी बीजेपी फ्रंट का हिस्सा हो सकती हैं। हालांकि तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने तेलंगाना सीएम के चंद्रशेखर राव के थर्ड फ्रंट की मांग को भी समर्थन दिया है। कांग्रेस पश्चिम बंगाल में टीएमसी के साथ जाएगी या लेफ्ट के, अगर इस प्रश्न को हटा दें तो भी यहां की लड़ाई बीजेपी त्रिकोणीय बनाएगी, जो 2016 के विधानसभा चुनावों में अपना 2014 का प्रदर्शन दोहरा नहीं पाई थी।

नीतीश कुमार ने जुलाई 2017 में आरजेडी और कांग्रेस के साथ अपना महागठबंधन तोड़ लिया था। एनडीए का हिस्सा बनी जेडीयू को जोकीहाट विधानसभा चुनाव में आरजेडी से हार का सामना करना पड़ा है। ऐसे में सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या नीतीश अपने फैसले पर पुनर्विचार करेंगे? क्योंकि ऐंटी बीजेपी फ्रंट में शामिल होने का सीधा मतलब उस टीम का हिस्सा बनना होगा जिसमें आरजेडी शामिल रहेगी। लेकिन बिहार में जो तथ्य उभरकर सामने आएं हैं। वह एनडीए या भाजपा के लिए उपयुक्त नहीं दिख रहा है। संयुकत रूप से भी बिहार में भाजपा और जेडीयू की स्थिति इस बार खराब होने की पूरी संभावना है। यही करण है कि नीतीश कुमार कई अन्य रणनीतियों पर भी काम कर रहे हैं। जैसे मुसलमानों के मतों को तोड़ने के लिए अलग से मुस्लिम पार्टी को खड़ा करना और उसके आधार पर बिहार के 15 प्रतिशत मुसलमानों को आरजेडी गठबंधन से अलग करना। लेकिन इसका भी प्रभाव कम दिखता है। इस बार बिहार में मुसलमान आरजेडी गठबंधन को वोट देने के मूड में दिख रहा है। यदि ऐसा हो गया तो भाजपा के लिए ही नहीं नीतीश कुमार के लिए भी यह खतरे की घंटी है।

दिसंबर 2016 में जयललिता की मौत के बाद से ही तमिलनाडु की राजनीति डंवाडोल दिख रही है। बीजेपी यहां कोई मेजर प्लेयर नहीं है। उसके पास यहां लोकसभा का एक सांसद है। ऐसा माना जा रहा है कि बीजेपी को यहां सत्ता पर काबिज एआईएडीएमके का समर्थन है। बीजेपी को यहां एआईएडीएमके और रजनीकांत के अलावा अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन की उम्मीद है। वहीं कांग्रेस को उम्मीद है कि ओल्ड पार्टनर डीएमके का साथ मिलेगा। बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति का यहां कोई खास प्रभाव न होने के साथ ही साथ यहां कोई बड़ा नेता भी नहीं है। जिसका खामियाजा भाजपा को यहां उठाना पड़ेगा। 

कर्नाटक में सरकार बनाने के बाद अब कांग्रेस और जेडीएस ने 2019 के चुनावों के लिए भी गठबंधन का ऐलान कर दिया है। लेकिन अगले कुछ महीनों में इस गठबंधन के भविष्य का पता चल जाएगा कि इसमें स्थायित्व है भी या नहीं। जेडीएस पहले भी गठबंधनों को बीच में छोड़ आगे बढ़ चुकी है। ऐसे में कांग्रेस निश्चिंत नहीं हो सकती कि कुमारस्वामी भरोसेमंद सहयोगी बने रहेंगे लेकिन इस बार कुमारस्वामी के साथ कई अपवाद जुड़ रहे हैं। इसलिए वे कांग्रेस के साथ बने रह सकते हैं। उनके लिए फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में कर्नाटक भाजपा के लिए कठिन तो है ही। 

आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देने के सवाल पर चंद्रबाबू नायडू ने टीडीपी को एनडीए से अलग कर लिया है। बीजेपी आंध्र में नायडू के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी वाईएस जगनमोहन रेड्डी पर हमला करने से बच रही है। इससे ऐसा लगता है कि 2019 में बीजेपी जगन की पार्टी के साथ गठबंधन कर सकती है लेकिन अब थोड़ा कठिन हो गया है। विशेष राज्य के दर्जे के नाम पर जो राजनीति प्रदेश में हुई है वह राजनीति जगन के लिए भी कठिन हो गया है। अब भजपा वहां जगन के साथ तो जाना चाहती है लेकिन जगन को भाजपा के साथ जाने में खतरा दिखने लगा है। इसलिए आंध्र भी भाजपा के लिए आसान नहीं है।

उड़िसा में अभी भी बीजू जनता दल (बीजेडी) की स्थिति अच्छी है। प्रतिपक्ष के रूमें निःसंदेह भाजपा ने यहां अपना स्थान बनाया है और यहां भाजपा को थोड़ा फायदा होगा लेकिन ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक अक्सर अपने भाषणों में मोदी पर सॉफ्ट दिखते हैं। पीएम मोदी और अमित शाह भी रिटर्न में कुछ ऐसा ही प्रदर्शित करते हैं। समदृष्टी के संपादक सुधीर पटनायक कहते हैं कि अगर जरूरत पड़ी तो बीजेडी बीजेपी के साथ आएगी। ऐसे में अगर बीजेडी सभी 21 सीटें जीत भी लेती है तो भी यह बीजेपी के लिए हार नहीं होगी। चूकि उड़िसा में बीजेडी कांग्रेस को बड़ा खतरा मनता है। इसलिए वह चुनाव बाद या चुनाव पहले भाजपा के साथ जा सकता है। इसलिए उड़िसा में भाजपा को फायदा होगा। ऐसा दिख रहा है। 

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