ईरान से यूएस का एकतरफा परमाणु समझौता निरस्त करना, कितना असरदार कितना घातक


Gautam Chaudhary

ईरान के साथ हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते को दरकिनार करते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इससे अलग होने का फैसला कर लिया है। ट्रंप के इस फैसले की जहां ईरान समेत अमेरिका के दूसरे सहयोगी राष्ट्र आलोचना कर रहे हैं, वहीं उनके इस निर्णय का दुनिया पर बड़ा असर होने की संभावना है। 

भारत समेत दूसरे एशियाई देशों पर भी इसका व्यापक असर की उम्मीद जताई जा रही है। चूकि भारत ईरान के बेहद निकट संबंधों वाला देश है। यही नहीं इन दिनों संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भी भारत की निकटता बढ़ी है। नरेन्द्र मोदी की सरकार के समय तो अमेरिका के साथ रणनीतिक दोस्ती तक की बात पहुंच गयी है। ऐसे में इस समझौता विखंडन का भारत पर क्या असर होगा इसकी पड़ताल बेहद जरूरी है। 

तेल पैदा करने और निर्यात वाले देशों में ईरान तीसरे नंबर पर है। खासकर एशियाई देशों को ईरान बड़े पैमाने पर तेल सप्लाई करता है। भारत में सबसे ज्यादा तेल इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान से आता है। भारत इस आयात को और बढ़ाने वाला है।

हाल ही में जब ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी दिल्ली आए थे तो भारत ने उससे तेल आयात बढ़ाने का वादा किया। जिसके बाद ये समझा जा रहा है कि 2018-19 से ईरान और भारत के बीच तेल का कारोबार डबल हो जाएगा। 2017-18 की बात करें तो भारत ईरान से प्रतिदिन 2,05,000 बैरल तेल आयात करता है, जो 2018-19 में बढ़कर 3,96,000 बैरल प्रति दिन होने की संभावना है।

मौजूदा वक्त में तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है, जो कि पिछले चार सालों में सबसे ज्यादा है। ऐसे में ईरान पर अमेरिका के इस फैसले से तेल के दामों में बढ़ोतरी की पूरी संभावना है। इस संबंधी खबरें कई अखबारों में छप चुकी है। 

ईरान, भारत और अफगानिस्तान के बीच चाबहार बंदरगाह शुरू हो गया है। यह बंदरगाह विकसित करने के लिए तीनों देशों के बीच समझौता हुआ था। चाबहार दक्षिण पूर्व ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थित है। इसके जरिए भारत का मकसद पड़ोसी पाकिस्तान को बाइपास कर अफगानिस्तान तक आसान पहुंच बनाना है। भारत पहले ही इस बंदरगाह के लिए 85 मिलियन डॉलर निवेश कर चुका है और अभी उसकी योजना करीब 500 मिलियन डॉलर के निवेश की है।

भारत इस चाबहार बंदरगाह के जरिए पिछले साल 11 टन गेंहूं की पहली खेप अफगानिस्तान भेज चुका है। भारत के इस कदम पर उस वक्त अमेरिका ने नरमी दिखाई थी। जबकि अब हालात भिन्न हो गए हैं। अमेरिका ने ईरान के साथ लगभग सारे संबंध खत्म कर लिए हैं। ऐसे में अब इस मामले पर अमेरिका का रुख कैसा होता है यह देखना जरूरी होगा। अमेरिका के नए सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ईरान के प्रति काफी सख्त रुख रखने वालों में से जाने जाते हैं। इस बात की भी आशंका है कि ईरान पर अमेरिका के किसी भी सख्त कदम से भारत के लिए चाहबहार निवेश कहीं महंगा न साबित हो जाए। 

अंतराज्ष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारा भारत को ईरान के रास्ते रूस और यूरोप से जोडने की परियोजना है। जो कारोबार को आसान बनाएगा। इस गलियारे को 2002 में मंजूरी मिलने के बाद से ही भारत इसका हिस्सा है। 

2015 में समझौते के तहत जब ईरान से प्रतिबंध हटाए गए तो इस गलियारे की स्थापना को गति मिली। लेकिन एक बार फिर इस समझौते से अमेरिका के अलग होने के बाद इस परियोजना को झटका लग सकता है। इससे भारत के लिए समस्या खड़ी हो सकती है। अब इस समस्या का समाधान कैसे ढुढ़ा जाएगा यह भारत को ही तय करना होगा। 

शंघाई सहयोग संगठन में भारत को जगह मिल गई है, जिसकी आधिकारिक तौर पर शुरुआत पिछले महीने चीन में हुए एससीओ समित में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भागीदारी से हो गयी। पाकिस्तान को भी इसमें जगह मिली है। अब चीन, इस संगठन में ईरान को भी शामिल करने की योजना बना रहा है। 

अगर ईरान भी एससीओ में साथ आ जाता है तो चीन और रूस के नेतृत्व वाला यह संगठन एक तरीके से अमेरिका विरोध ताकतों का समूह बन जाएगा और इसमें भारत भी शामिल रहेगा। ऐसे में एक तरफ जहां पीएम मोदी अमेरिका और इजरायल के साथ मिलकर पश्चिमी देशों से संबंध मजबूत कर रहे हैं, वहीं एससीओ के मंच से अमेरिका विरोधी खेमे में शामिल होने के नुकसान भी भारत को उठाना पड़ सकता है। 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत हमेशा से नियम आधारित संबंधों का समर्थक रहा है लेकिन अमेरिका का ईरान से समझौता तोडना एक तरीके की वादाखिलाफी के रूप में देखा जा रहा है। इसका असर भारत-अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों के अलावा बहुपक्षीय समझौतों पर भी पड़ सकता है। खासकर, यूएन क्लाइमेट चेंज समझौता और ट्रांस पैसिफिक समझौते से डोनाल्ड ट्रंप के कदम खींचने के बाद ऐसी चिंताएं और बढ़ गई हैं।

बता दें कि जुलाई 2015 में बराक ओबामा के दौर में एक समझौता हुआ था, जिसके तहत ईरान पर हथियार खरीदने पर 5 साल तक प्रतिबंध लगाया गया था। इसके अलावा मिसाइल प्रतिबंधों की समयसीमा 8 साल तय की गई थी। इस समझौते के बदले ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम का बड़ा हिस्सा बंद कर दिया था और बचे हिस्सों पर निगरानी के लिए सहमत हो गया था।

अब चूकि अमेरिका ने अपनी ओर से ईरान को फ्री कर दिया है लेकिन अमेरिका के पश्चिमी सहयोगी देशों में से बहुत सारे देशों ने अमेरिका की इस नीति का विरोध किया है और अमेरिका को साफ-साफ कह दिया है कि ईरान के साथ उनके समझौते यथावत रहेंगे। अब भारत ने भी ईरान के साथ संबंधों को बनाए रखने की घोषणा कर दी है। इस मामले में अमेरिका अभी तक चुप है लेकिन वह ज्यादा दिनों तक चुप नहीं रहेगा। आने वाले समय में वह इस दिशा में कुछ न कुछ करेगा। ऐसे में भारत को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अभी से प्रयास में जुट जाना चाहिए। 

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