अन्य धर्मों के तरह इस्लाम भी देता है पैगाम-ए-अमन

कलीमुल्ला खान 

इस्लामी किताबों में बड़े पैमाने पर अमन की बातें की गयी है लेकिन विरोधी केवल उसका दुश्प्रचार करते हैं। इस्लाम की यदि सकारात्मक व्याख्या करें तो मानवता के लिए बड़ी बात होगी। गोया इस्लम के अनुसार बुनियादी तौर पर हर इंसान अमन पसंद है। 

पैदाइषी तौर पर उसके नेचर में ही अमन की ख्वाइष मौजूद है क्योंकि इंसान की तरक्की, उसकी जरूरतों की तकमील और किसी भी समाज का इस्तेहकाम, अमन के माहौल में ही संभव है। इसलिए ऐसा नहीं है कि मुस्तकिल तौर पर कोई षख्स अमन पसंद हो और कोई बदअमनी चाहता हो। इस बात का तालुक किसी खास मजहब से ही नहीं मगर फिर भी हर जमाने में और हर समाज में हमेषा वह लोग रहे हैं जो बदअमनी का जरिया बनते हैं। 

वह हकीकत में अपने असली प्रकृति को बिगाड़ चुके होते हैं। उन पर खुदगर्जी, अहम और गलत किस्म का एहसास-ए-बरतरी पैदा हो जाता है। खुदगर्जी का रास्ता दुसरों का हक गसब करने से लेकर गलत तरीके से ताकत हासिल करके उनके जान व माल के लिए खतरा बन जाने तक जाता है। अहम और एहसास-ए-बरतरी का नतीजा यह होता है कि ऐसे लोग अपने से कमजोर लोगों को फकीर समझते हैं और वह यह कोषिष करते हैं कि जिंदगी की दौर में कोई उनकी बराबरी न करे। वह लोग वक्ती तौर पर कामयाब भी हो जाते हैं। 

इस्लाम का तरीका यह है कि वह इंसानों के बुनियादी षउर को जगाता है तथा उसकी पारदर्षी फितरत को अपील करता है ताकि यह एहसास पैदा हो के अमन को तहस-नहस करने के बुरे नतीजों से वह खुद भी नहीं बच सकता। इस सिलसिले की कुछ अहम तालिमात इस तरह के हैं के उन तमाम बुनियादी बातों से अलग-अलग उन उसबाब की निषानदी करता है, जो बदअमनी का बड़ा सबब बनते हैं। मसलन कुरान के तीसरे पारे के षुरू में ही कुरान की आयत में यह आम उसूल बता दिया कि मजहबी मामलात में किसी भी किस्म की जोर-जबरदस्ती जायज नहीं आयत है। ला इकराहा, फिददीन, यह बात कितने साफ तौर पर कह दी गयी है कि कोई भी मुसलमान अगर वह सचमुच कुरान पर इमान रखता है तो दीन के मामलात में ना वह खुद जबरदस्ती करेगा न उन लोगों को बढ़ावा दे सकता है।

जो किसी भी मजहबी मामले में अपनी राय से इख्तिलाफ करने वालों को जबरदस्ती अपनी बात मनवाने के लिए सताते हैं और अगर उनके हाथ में ताकत आ जाए तो वह कत्लेआम से भी नहीं बचते। इस तरह के वाकयातों की खतरनाक और अफसोसनाक मिसालों से खुद आलम-ए-इस्लाम गुजर रहा है और सौ करोड़ से ज्यादा तादात में होते हुए भी दुनिया के मुसलमान और इस्लामी हुकूमत बेबसी के साथ सिर्फ तमाषा देखती रहती है। हम अपने जालिमों को जुल्म से रोकने की ताकत खो चुके और उसका फायदा दूसरी कौमें ना उठाएं ऐसा नहीं होता। 

बदअमनी की आखरी षक्ल है, किसी बेकसूर का कत्ल। इस सिलसिले में भी साफ-साफ आयत है कि जिसने एक इंसान का कत्ल किया उनसे गोया तमाम इंसान का कत्ल किया और जिसने एक इंसान की जान बचाई उसने तमाम इंसान की जान बचाई ओर हदीस षरीफ है कि जब कोई किसी बेगुनाह का कत्ल करता है तो उस वक्त वह मोमिन नहीं होता गोया के इस्लाम में कातिल जाति को मुसलमान मानने से इंकार कर दिया। जबतक के वह सच्ची तौबा ना करे। इस्लाम के दूसरे इंसानों का एहतराम करने में किसी भी मजहब, कौम, नस्ल व रंग को रुकावट नहीं बनने दिया। 

मोहम्मद साहब मषहूर वाकया है कि एक जनाजे को देखकर उसके एहतराम में खड़े हो गए तो साथियों में से किसी ने कहा के अल्ला के रसूल वह यहूदी का जनाजा है तो आपने फरमाया के क्या वह इंसान नहीं है और दूसरी तमाम तामिमात इंसान की वह है जो इंसान होने की हैसियत से मुहब्बत, हमदर्दी और मदद करने की तलकीन करती है। जब आपने यह फरमाया के खुदा की कसम वह मुसलमान नहीं हो सकता जो खुद खाए और उसका पड़ोसी भूखा रहे। तो आपने इस बात को किसी भी मजहब से नहीं जोड़ा। 

मुषतराका समाज में कभी-कभी गलफहमियां पैदा हो जाती है और वह दुष्मनी को जन्म देती हैं। तो ऐसे मौके के लिए कुरान में हमेषा के लिए और हर जगह के लिए यह असूल बता दिया, इदफा विललती हिया अहसान, यानी किसी बुराई को अच्छाई के साथ दूर करो। तब यह होगा कि जो तुम्हारा दुष्मन है वह करीबी दोस्त बन जाएगा। 

यह चंद आयतें सिर्फ मिसाल के तौर पर जिक्र की गयी हैं। इनसे कुरान के मानने वाले को जिंदगी की एक ऐसी गाइड लाइन मिलती है कि जिसपर चलने वाले को सही तौर पर अमन का नुमाइंदा कहा जा सकता है। और उसके अंदर वह ताकत पैदा हो जाती है जिससे वह हर कड़वाहट को मिठास में तब्दील कर सकता है। जब हुजूर साहब ने यह फरमाया के तुम जमीन वालों पर रहम करो आसमान वाला तुम पर रहम करेगा। तो इस बात के लिए भी किसी मजहब की षर्त नहीं रखी। मगर एक कड़वी सच्चाई यह है कि हम यह सब बातें दूसरों को इसलिए सुनते हैं कि दूसरों पर इस्लामी तालिमात की बरतरी साबित करें। 

इनको अपने दिल व दिमाग में उतार कर इन बातों के हिसाब से अपनी सोंच और दिमाग में ढाल लें और अपने लोगों में इसकी मुहिम चलाना असल काम है। हम आपस में भी एक-दूसरे के साथ बरताव करने में कुरान की इन तालिमात को एक तरफ रख देते हैं और उनपर संजीदगी से गौर करने की तरफ भी कभी ध्यान नहीं जाता। अल्ला फरमाता है कि मेरी रहमत मेरे गजब पर गालिब है। उसके सबसे बड़ी सिफत रहमान व रहीम है। कुरान किताब-ए-रहमत है। 

हुजूर रहमत उललील आलीमीन है। यानी सारे जहां के लिए रहमत है। अब हमें यह सोचना है कि मुखतलिफ किस्म की जहमतों को खत्म करने के लिए रहमतों वाली तालिम का सहारा लेते हैं या उन तरीकों से काम लेते हैं जो नफरतों को ढकने के बजाए और ज्यादा बढ़ाने का सबब बनते हैं। 

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