बिहार में नई जमीन की तलाश में कन्हैया का वामपंथ


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गौतम चौधरी 

निःसंदेह डाॅ. कन्हैया कुमार ने भारतीय वामपंथ को नए सिरे से परिभाषित करने कीशीश की है। उसके काम करने की शैली भले ही वामपंथी की पारंपरिक शैली से मेल खाती हो लेकिन वह ऑपरेशन अपने तरीके से कर रहा है। यह काॅमरेड कन्हैया अभिनव प्रयोग है। बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव में कन्हैया का वामपंथी प्रयोग कितना असर डालेगा यह तो समय बताएगा लेकिन कन्हैया की सभाओं में जो भीड़ जुट रही है उससे यह लगने लगा है कि बिहार में निःसंदेह एक नया राजनीतिक ध्रुव खड़ा होगा जिसकी धुरी वामपंथ हो या न हो लेकिन कन्हैया और प्रषांत किषोर जरूर होंगे, जो बिहार की जातिवादी राजनीतिक जड़ता को उखाड़ फेंकने में कामयाब भी हो सकता है।

बिहार में चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक सुगबुगाहट शुरू हो गई है। प्रशांत किशोर संभवत कुछ युवाओं के जरिए और खासकर कन्हैया कुमार जैसे कुछ चेहरों को आगे कर एनडीए से मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। यही कारण है कि 18 फरवरी के पत्रकार वर्ता में उन्होंने युवाओं को साथ लेने का आह्वान किया है। तो दूसरी ओर कन्हैया कुमार वामपंथी ताकतों के साथ अपने और अपनी पार्टी की जमीन तैयार करने में लगे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत की गूंज दूसरे राज्यों तक भी सुनी जा रही है। राजनीतिक विश्लेषक इस जीत के कई मायने निकाल रहे हैं। दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में ऐसी भी खबरें जोर पकड़ने लगी हैं कि जेडीयू के पूर्व उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर अब आम आदमी पार्टी का दामन थाम सकते हैं। प्रशांत किशोर का आप जॉइन करना बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकता है। 

बिहार के राजनीतिक गलियारे में सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि प्रशांत किशोर ने युवाओं के जरिए और खासकर कन्हैया कुमार जैसे कुछ और युवा चेहरों को आगे कर एनडीए से मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि इस बात में सत्यता नहीं भी हो सकती है क्योंकि प्रषान किषोर वाले एंगल की पुष्टि न तो साम्यवादी नेताओं ने की है और न ही प्रषांत किषोर की ओर से कोई सकारात्मक बयान आया है। यह कुछ मीडिया हाउसों में चल रही खबर मात्र भी हो सकती है लेकिन कन्हैया कुमार को जिस प्रकार सोषल मीडिया और गैर पारंपरिक समाचार माध्यमों में जगह मिल रहा है उससे यह अंदाज लगाना कठिन नहीं है कि उसे किसी बड़ी पीआर एजेंसी का सहयोग मिल रहा है। इस दृष्टि से सामान्य विष्लेषकों का ध्यान किसी और पर नहीं अपितु प्रषांत किषोर पर ही जाकर टिकती है।

इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री एवं जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष नतीष कुमार की भूमिका को भी नजरअंदाजा नहीं किया जा सकता है। नीतीष अच्छी तरह समझते हैं कि भाजपा से वे अकेले पंगा नहीं ले सकते हैं। दूसरी बात उन्हें यह भी पता है कि भाजपा बड़ी चालाकी से अपने राजनीतिक सहयोगियों को राजनीतिक आत्महत्या करने पर मजबूत कर देती है। ऐसे में नीतीष अपनी राजनीतिक जमीन को यों ही भाजपा को नहीं सौंपना चाहते हैं। याद रहे भाजपा की वर्तमान लहलहाती हुई फसल की जमीन तैयार करने में समाजवादियों की भी बड़ी भूमिका है। नीतीष को पता है कि वे जिस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं उस समाज की रक्षा अंततोगत्वा भाजपा नहीं समाजवादी-साम्यवादी धारा में विष्वास करने वाले नेता ही कर सकते हैं। यही नहीं भाजपा से अगर कभी पंगा लेना हो तो सबसे मजबूत साथी उनका वामपंथ ही हो सकता है। कन्हैया खांटी वामपंथ की पैदाइस हैं। इसलिए नीतीष कन्हैया को कभी मरने नहीं देंगे। संभवतः प्रषांत किषोर को इस योजना से भी उन्होंने कन्हैया के साथ लगाया हो।

बिहार में वामपंथी की नीब मजबूत रही है। नब्बे के दशक के अंत तक बिहार में वामपंथी दलों की दमदार मौजूदगी सड़क से लेकर सदन तक दिखाई देती थी। उस दौर में बिहार विधानसभा में वामपंथी दलों के 30 से अधिक विधायक हुआ करते थे। छठी बिहार विधानसभा में 35 विधायकों के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) सदन में विपक्षी पार्टी बनी थी। आंकड़ों पर गौर करें तो साल 1972 के विधानसभा चुनाव में भाकपा 35 सदस्यों के साथ मुख्य विपक्षी दल बनी थी लेकिन साल 1977 में हुए चुनाव में वामपंथी दल के विधायकों की संख्या घटकर 25 हो गई। 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में भी वामपंथ ने अपनी मजबूत दावेदारी बरकरार रखी। भाकपा को 23, माकपा को छह और एसयूसीआई को एक सीट मिली थी। 1985 में भूमिगत तरीके से काम करने वाले संगठन ने इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) के नाम से एक मोर्चा बनाया और 85 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे। 

इस चुनाव में आईपीएफ कोई सीट नहीं जीत पायी। उसी साल भाकपा को 12 और माकपा को एक सीट हासिल हुई। यह साबित करता है कि भूमिगत वामपंथी दल ने साम्यवादी आन्दोलन को बहुत घाटा पहुंचाया। आइपीएफ को 1990 के विधानसभा चुनाव में सफलता मिली, जब उसके सात प्रत्याशी चुनाव जीते। इस चुनाव में भाकपा के 23 और माकपा के छह प्रत्याशी चुनाव जीते थे। साल 2000 के चुनाव के बाद से बिहार विधानसभा में वामपंथी विधायकों की संख्या में गिरावट शुरू हो गयी थी। 1995 तक जहां वामपंथी विधायकों की संख्या 38 होती थी, वह साल 2000 में सिमट कर नौ हो गई। अक्टूबर 2005 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों की सीटें नौ रहीं, जबकि 2010 के चुनाव में वाम दलों ने अपनी बची-खुची सीटें भी गंवा दी। बावजूद इसके संयुक्त वाम दलों के वोट प्रतिषत में कभी कमी नहीं आयी। प्रेक्षक मानते हैं कि अभी भी बिहार के कुल वोटरों में से दो प्रतिषत वोटर वामपंथ के साथ जुड़े हैं। ये वामपंथ के किसी न किसी धारा के कौडर हैं और ये सभी एक मंच पर आ जाएं तो वोट में इनकी हिस्सेदारी पांच प्रतिषत तक हो जती है।

कन्हैया कुमार ने बिहार के युवा पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को एक मंच पर लाने की कोषिष की है। उसकी कोषिष सफल भी हो रही है लेकिन बिहार की जातिवादी और भ्रष्ट राजनीति को इतनी जल्दी कमजोर करना आसान नहीं होगा। दूसरी ओर नीतीष कुमार जिस राजनीतिक सेटप को पकड़े हुए हैं उसकी भी अपनी ताकत है। लालू यादव भी बिहार में कमजोर नहीं हुए हैं। ऐसे में कन्हैया की रणनीति का क्या होगा और वामपंथ की पुरानी जमीन फिर से उन्हें मिल पाएगा या नहीं इसका आकलन फिलहाल कठिन है लेकिन जिस गति से कन्हैया आगे बढ़ रहे हैं और उनकी सभाओं में भीड़ जुट रही है, उससे तो यह साफ है कि बिहार में कन्हैया का वामपंथ अपनी खोई जमीन तो प्राप्त कर सकता है। और हां, इसमें प्रषांत किषोर की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

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