कहीं भाजपा की आंतरिक गुटबाजी का शिकार तो नहीं हो गए बाबूलाल


गौतम चौधरी 

बाबूलाल मरांडी, भारतीय जनता पार्टी में आ तो गए लेकिन भाजपा में आने के बाद उनका राजनीतिक करियर दाव पर लग गया है। डील के अनुसार बाबूलाल को नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी मिलनी थी। पार्टी में लौटने के तुरंत बाद भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को अपने विधायक दल का नेता भी चुन लिया लेकिन कई महीने बीतने के बाद भी उन्हें प्रतिपक्षी नेता की कुर्सी नसीब नहीं हो पायी है। इस मामले में जहां एक ओर सत्ता पक्ष के लोग संवैधानिक और कानूनी अहर्ताओं की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मुख्य विपक्षी भाजपा, हेमंत सरकार के खिलाफ महज चंद बयानों तक ही सिमट कर रह गयी है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी कार्यालय में बाबूलाल को लेकर छुटभैये नेताओं के बीच चर्चाएं तो होती है लेकिन प्रदेश नेतृत्व इस मामले में बेहद सुरक्षात्मक रवैया अपनाए हुए है। 


बाबूलाल मरंडी के मामले में प्रदेश से लेकर केन्द्रीय नेतृत्व तक जिस प्रकार का रवैया अपना रही है उससे तो यही लगता है कि पार्टी के अंदर अलग  खिचड़ी पक रही है। अब तो इस आशंका को भी बल मिलने लगा है कि प्रदेश नेतृत्व बाबूलाल को लाकर उनकी राजनीतिक हत्या करने की पूरी योजना बना रखी है। हालांकि इन दिनों मीडिया में इस बात के भी शोर हैं कि बाबूलाल को उपचुनाव में दुमका की सीट से लड़ाकर भाजपा प्रतिपक्ष के नेता की कुर्सी पर दावा ठोकेगी। इस शोर की सत्यता पर फिलहाल संदेह के बादल छाए हैं लेकिन इसे पूरे तौर पर नकारा भी नहीं जा सकता है। यहां यह बता देना जरूरी है कि डाॅ. लुइस मरांडी के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठन समय-समय पर मोर्चा खालते रहे हैं। 2019 के संपन्न विधानसभा चुनाव में भी संघ के स्वयंसेवक से लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् तक के कार्यकर्ताओं ने डाॅ. मरांडी का विरोध किया। यही नहीं विश्व हिन्दू परिषद् और हिन्दू जागरण मंच के पदाधिकारियों ने मरांडी के खिलाफ मोर्चा भी खाला लेकिन तत्कालीन प्रदेश नेतृत्व ने मरांडी पर दुबारा विश्वास व्यक्त कर उसे टिकट थमा दिया। जानकारों की मानें तो डाॅ. मरांडी की हार के लिए भाजपा के सहयोगी संगठनों की भूमिका अहम है। इसलिए यदि अनुमान लगाने वाले उपचुनाव में बाबूलाल को दुमका से उम्मीदवार बनाने की बात कह रहे हैं तो यह पूरे तौर पर गलत भी नहीं कहा जा सकता है।


इधर बाबूलाल के नेता प्रतिपक्ष बनने में अड़ंगा लगाने वाले नेताओं की भी कमी नहीं है। जिन्हें यह लग रहा है कि बाबूलाल के नेता प्रतिपक्ष बनने से उनका कद एकाएक बढ़ जाएगा और मरांडी आने वाले दिनों में मुख्यमंत्री के दावेदार हो सकते हैं, वे इस बात से असहज हैं। वे नहीं चाहते बाबूलाल किसी कीमत पर नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में आएं। उधर सत्ता पक्ष के शीर्ष नेता प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी संथाल परगना में कोई दूसरा संथाली नेता खड़ा हो, यह नहीं चाहते हैं। ऐसे में इन दिनों बाबूलाल मरांडी को लेकर सत्ता पक्ष और प्रतिपक्षी भाजपा के कुछ नेताओं के बीच एक खास प्रकार का समीकरण बना है। यह समीकरण धीरे-धीरे और गहरा होता जाएगा और बाबूलाल के रास्ते में कांटे बोएगा। 


यदि बाबूलाल, हेमंत के बिछाए जाल को काट पाए और अपनी पार्टी के नेताओं के द्वारा खड़ी की गयी ब्यूह रचना को तोड़ने में कामयाब रहे तो आने वाले समय में झारखंड के सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में उभरकर सामने आएंगे। इस मामले में यदि वे पिछड़ गए तो नेपथ्य में उनके लिए भी मार्गदर्शक मंडल की एक कुर्सी आरक्षित कर दी जाएगी। फिलहाल रस्साकशी के इस दौर में बाबूलाल अपने जीवन की संभवतः सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि जब बाबूलाल मरांडी भाजपा में शामिल हो रहे थे तो एक महत्वपूर्ण नेता ने व्यक्तिगत बातचीत में कहा था कि बाबूलाल जी अब पार्टी में आकर अपने वृद्धावस्था को सुरक्षित करना चाहते हैं। उन्हें पद प्रतिष्ठा नहीं केवल सम्मान चाहिए लेकिन पार्टी में आते बाबूलाल की सक्रियता से ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा है। हालांकि मीडिया और अपने प्रभाव के कारण मरांडी लगातार अपनी अहमियत बनाए हुए हैं लेकिन सांगठनिक तौर पर कहीं न कहीं भाजपा का वर्तमान नेतृत्व उनके प्रति बहुत आशान्वित नहीं दिख रहा है। यदि ऐसा होता तो बाबूलाल कब के नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर बैठ गए होते। सच पूछिए तो बाबूलाल को सत्ता पक्ष ने नहीं खुद की पार्टी के अंतर की गुटबाजी ने प्रतिपक्ष की कुर्सी तक की पहुंच को बेहद कठिन बना दिया है। बाबूलाल दुमका से लड़े या फिर रघुबर दास बेरमो से दोनों ने अपनी-अपनी रणनीति बना रखी है। 


इधर भाजपा की राजनीति का तीसरा खिलाड़ी केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा भी स्थितियों पर नजर बनाए हुए हैं। मुंडा का भी पूरे प्रदेश में अपना प्रभाव है। वो भी बाजी हाथ से जाने नहीं देंगे। कुल मिलाकर भाजपा के अंदर की गुटबाजी अब सतह पर आने लगी है। इस गुटबाजी से भाजपा को बहुत नुक्शान होगा। फिलहाल तो सबसे बड़ा नुक्शान सारी संवैधानिक अहर्ताओं की पूर्ति के बाद भी प्रतिपक्ष की कुर्सी का नहीं मिलना है। इससे पार्टी विधानसभा में कमजोर पड़ती नजर आ रही है। दूसरी ओर गुटबाजी के कारण भाजपा के कार्यकर्ता अपने आप को कमजोर महसूस कर रहे हैं। उनमें आत्मबल का अभाव दिख रहा है और सत्ता पक्ष के खिलाफ जिस प्रकार से मोर्चा खोलना चाहिए उसमें भाजपा पिछड़ती नजर आ रही है। सच पूछिए तो इसे जल्द ठीक किया जाना चाहिए नहीं तो पार्टी को बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। 


Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत