पाकिस्तान की तुलना में बेहतर जीवन जी रहे हैं भारतीय मुसलमान



हसन जमालपुरी

जब कभी भारतीय मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक परिप्रेक्ष्य की बात की जाती है तो उसकी तुलना स्वाभाविक रूप से पाकिस्तानी मुसलमानों के साथ की जाती है। स्वाभाविक भी है। क्योंकि सांस्कृतिक और धार्मिक आजादी के नाम पर ही कुछ मुस्लिम नेताओं ने पाकिस्तान की मांग की और मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में वह तबका पाकिस्तान चला गया। चुनांचे पाकिस्तान में भारत से गए मुसलमानों को मोहाजिर कहा जाता है। समय बीता परिस्थितियां बदली और आज पाकिस्तान में बसने वाले ये मुहाजिर अपने आप को दुखी और ठगा महसूस कर रहे हैं। उनकी तुलना में भारतीय मुसलमान कहीं आगे हैं।


1947 में, जब पाकिस्तान को भारी रक्त पात के तहत भारत से अलग किया  गया था, सिंधियों ने पाकिस्तान को चुना, जबकि भारत से बड़ी संख्या में उर्दू बोलने वाले मुस्लिमों ने सिंध प्रांत में बसना पसंद किया। सिंधी हिंदुओं, जिनको भारत भागने के लिए मजबूर किया गया उनके द्वारा खाली की गई संपत्ति को प्रवासि भारतीय मुस्लिम के लिए आवंटित कर दिया गया। इन्हीं जिन्हें मुसलमानों को पाकिस्तान में मोहाजिर के नाम से जाना जाता था। दरअसल, मोहजिर शब्द का इस्तेमाल पाकिस्तानी सरकार की संस्था ने सभी प्रवासियों को समरूप पहचान के आधार पर मान्यता देने के लिए किया था।


तब से मोहाजिरों को असहनीय भेदभाव और अभाव का सामना करना पड़ा, और 1984 में अपने राजनीतिक अस्तित्व का दावा करने के लिए, उन्होंने मोहाजिर कौमी आंदोलन (एमक्यूएम) की स्थापना की। स्थिति यह है कि इस आन्दोलन के नेता अल्ताफ हुसैन को पाकिस्तान छोड़ कर भागना पड़। यह संगठन 1987 के बाद से हुए हर चुनाव में सक्रियता से हिस्सा लिया है और हर बार कराची में अपनी मजबूत स्थिति बनाए रखने में कामयाब रहा है।
सच पूछिए तो यही वह समुदाय है, जिसने पाकिस्तान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन इस समुदाय को जून 1992 में मोहजिरों को सैन्य व पुलिस ऑपरेशन का सामना करना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि हजारों महाजिरों को यातना दी गयी और काई की गैर कानूनी हत्या हुई। सिंधी सहित पूरे पाकिस्तान में मोहाजिर संघर्ष अभी भी जारी है। मोहाजिरों पर पाकिस्तानी पुलिस और सेना के द्वारा उत्पीड़न के आरोप लगातार लगते रहे हैं।

इसके विपरीत, जिन मुसलमानों ने 1947 के विभाजन के दौरान भारत में रहने का फैसला किया, उन्हें अपनी धार्मिक स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए कई संवैधानिक अल्पसंख्यक अधिकार दिए गए हैं। कई मुस्लिमों ने स्वतंत्रता के बाद भारत की तुलना में पाकिस्तान, एक धर्म पर आधारित देश का हिस्सा बनना स्वीकार किया क्युकी उन्होंने वहा सुरक्षित महसूस किया। हालांकि, प्रमुख धार्मिक समुदाय का हिस्सा होने के बावजूद, पाकिस्तान में मोहाजिर अभी भी सत्ता के संगठित शोषण के शिकार हो रहे हैं। वहां उन्हें दोयम दजे की नागरिकता प्राप्त है। विभाजन के 73 साल बाद भी, पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए यह समझ से बाहर है कि धार्मिक वर्चस्व पर स्थापित राज्य को चुनना सही फैसला था या भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश को अस्वीकार करना उनका सबसे बड़ा पाप था।

भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, फिर भी वे भारत में अन्य धर्मों के प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध सभी लाभों और अधिकारों का समान से उपयोग कर रहे हैं। सच पूछिए तो भारत के मुसलमान पाकिस्तान के मुसलमानों की तुलना में बेहतर जीवन जी रहे हैं। इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान, जिसका अर्थ है धार्मिक आधार पर बनाई गई पवित्र भूमि, लेकिन एक राज्य के रूप में स्वायत्तता प्राप्त करने के बाद उसने अपना रास्ता खो दिया है। मुहाजिर, बलूच, पोस्त या शिया संप्रदाय विशेष पर बंटे समुदाय को पाकिस्तान के निर्माण के बाद से भारी रक्त पात का सामना करना पड़ा है। शिया और अहमदिया मुस्लिम, 1948 से पाकिस्तानी सरकार द्वारा लगातार संगठित हिंसा व उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं। पाकिस्तान में लगभग 16 मिलियन शिया हैं, जो कुल मुसलमानों का 10-20 प्रतिशत हैं, जबकि शेष 80-90 प्रतिशत सुन्नी इस्लाम को मानने वाले हैं।

पाकिस्तान सरकार ने 1949 में प्रस्ताव पारित पाकिस्तान को एक इस्लामी स्टेट घोषित कर दिया। पाकिस्तान में सरिया कानून लागू है। इस कानून का गलत इस्तेमाल कर विभिन्न राजनीतिक दलों ने शियाओं और अहमदी संप्रदायों को निशाना बनाया है। इस बीच 1974 में, अहमदी-विरोधी इस्लामवादियों द्वारा दशकों के आंदोलन के बाद, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उन्हें संवैधानिक रूप से गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया और इसके साथ ही शिया मुसलमानों का उत्पीड़न शुरू हो गया। राज्य के इस्लामी करण ने पाकिस्तान में सुन्नियों और शियाओं के बीच एक सांप्रदायिक दरार पैदा कर दी है। जिया के शासन में शियाओं पर जबर्दस्त हमले हुए।

वर्ष 1983 में, पाकिस्तान ने करांची में शिया और सुन्नियों के बीच भारी खून-ख़राबा हुआ, जो बलूचिस्तान और पंजाब प्रांत में भी फैल गया और इस तरह की हिंसा हर मुहर्रम पर होती है। वर्ष 1988 में गिलगित में एक भयानक घटना हुई थी। ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में एक कट्टरपंथी सुन्नी ने शिया नागरिकों को गिलगित में शिया विद्रोह के लिए उकसाने के बाद शिया नागरिकों का नर संहार किया। जिया के शासन के बाद 1990 के दशक तक संप्रदाय आधारित उत्पीड़न जारी रहा। 2003 में क्वेटा में एक प्रमुख शिया मस्जिद पर हमला किया गया, जिसके परिणामस्वरूप 53 उपासकों की हत्या कर दी गई। 2 मार्च 2004 को, क्वेटा के लियाकत बाजार में सुन्नी चरमपंथियों ने शिया मुसलमानों के एक धार्मिक जुलूस पर हमला कर कम से कम 42 लोगों की हत्या कर दी। 
धार्मिक आधार पर निर्मित पाकिस्तान आज वहा रहने वाले सभी भाषाई और संप्रदायवादी अल्पसंख्यकों के लिए एक अभिशाप बन गया है। चाहे वह मुहाजिर, बलूच, अहमदी मुसलमानों या शिया, हर एक के लिए पाकिस्तान पाक के बदले जहन्नुम की आग बन गया है। पाकिस्तान सुन्नु कट्टरपंथियों के लिए ऐसगाह बन गया है लेकिन अब सुन्नी भी वहां सुरक्षित नहीं है। अब पाकिस्तान में बलोच, पोस्त, सिंधी और मोहाजिर पाकिस्तान में पंजाबी बर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। इस्लाम के पाक वसूलों पर चलने की प्रतिबद्धता को दुहराने वाला पाकिस्तान वर्तमान में कवीलाई संघर्ष का अखाड़ा बन कर रह गया है। यहां महज कुछ शक्तिशाली परिवार सत्ता का आनंद ले रहे हैं और आम जनता सत्ता प्रतिष्ठानों एवं सैन्य संगठनों के शोषण का शिकार हो रही है। 

चंद लोगों के हाथों में पाकिस्तान चला गया है। यहां भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को ही परेशानी नहीं हो रही है अपितु अब बहुसंख्यक सुन्नीओं को भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है लेकिन भारत में ऐसी कोई बात नहीं है। भारतीय संविधान भारत के मुसलमानों को समान अधिकार देता है। भारत की न्यायपालिका मुसलमानों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध दिखती है। यही कारण है कि कोट समय समय पर सरकार को भी आगाह करती रहती है और भारतीय संविधान का हवा देकर अल्पसंख्यक अधिकार की निरंतरता को बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाती रहती है। भारत के जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान को नकारा वे आज अपने बतन में सम्मान के साथ जी रहे हैं। उनका भविष्य सुरक्षित है और वे इस देश को उन्नति की ओर ले जाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।




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