क्या सचमुच बिहार में प्रेस की स्वतंत्रता बाधित है ?

यह पढकर बडा आष्चर्य हुआ की बिहार में मीडिया स्वतंत्र नहीं है। सम्मननीय मार्कंडेय काटजू साहब ने फिर से पुरानी बहस को जीवंत कर दिया है। सम्माननीय काटजू साहब विद्वान होंगे संभवतः कानून एवं भारतीय संविधान के मर्मज्ञ भी हो सकते हैं लेकिन एक निवेदन यह है कि क्या काटजू साहब यह साबित कर सकते हैं कि इस देष में कहां की मीडिया स्वतंत्र है? उन्होंने यह तो कह दिया कि बिहार सरकार के खिलाफ लिखने वालों पर दबाव बनाया जाता है। अखबारों के मालिक से कहकर उनका स्थानांतरण कराया जाता है। अखबार या समाचार वाहिनियों का विज्ञापन रोकने की धमकी दी जाती है लेकिन काटजू साहब ने यह क्यों नहीं कहा कि अखबर का मतलब अखबर का मालिक नहीं होता। साहब वर्तमान दौर में हमें तय करना होगा कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब समाचार माध्यम मालिकों की या फिर समाचार प्रबंधकों की स्वतंत्रता मात्र से है या कुछ और से। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि उत्तराखंड की सरकार के दबाव के करण दैनिक जागरण के ब्यूरो चीफ अतुल भरतरिया का स्थानांतरण देहरादून से मेरठ कर दिया गया। सम्मननीय काटजू साहब को षायद इसकी जानकारी नहीं होगी। बडे पत्रकार हो या छोटे, विज्ञापन का दबाव सबको झेलना पड रहा है साहब। यहा केवल सरकार का ही दबाव नहीं होता मैंने खुद अनुभव किया है यह दबाव प्रभावषाली कॉरपोरेट घरानों का भी होता है। मेरी दृष्टि में नितिष कुमार मुस्लिम परस्त भले हों लेकिन प्रेस की आजादी पर कुठाराघत करने की हिम्मत वे नहीं कर सकते हैं। मुझे तो बडा आष्चर्य हुआ जब काटजू साहब ने कहा कि प्रेस की नजर में नितिष सरकार से कही बढिया लालू की सरकार थी। मैं काटजू साहब से असहमत नहीं हूं क्योंकि सामर्थ की अपनी परिभाशा होती है। काटजू साहब सामर्थषाली हैं वे जो कहेंगे सत्य को उस आधार पर ढलना पडेगा। आज यही तो हो रहा है। हर व्यक्ति का अपना नजरिया होता है। हर व्यक्ति के लिए सत्य की परिभाशा भी अलग अलग होती है। हर कोई धर्म को भी अपने ही ढंग से परिभाशित करता है। मेरी दृश्टि में यह बयान एक सामंती और जातीय पूर्वाग्रह का प्रतिफल है। बिहार के विकास से न केवल देष के कुछ लोग परेषान है अपितु कुछ बिहारियों को भी यह पच नहीं रहा है। वर्तमान दुर्घटना के पीछे की मानसिकता इससे प्रभावित हो सकती है। 

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