आम नहीं खास लोगों के लिए है भारत की लोकशाही


गौतम चौधरी
विगत दिनों सर्वोच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश ने एक याचिका के सुनवाई के दौरान अपनी तल्ख टिप्पणी में कहा था कि भारतीय न्यायालय व्यवस्था अमीरों के लिए है। इसका जीता जागता उदाहरण पिछले दिनों गुजरात में देखने को मिला। विगत 27 फरवरी 2010 को सीमा शुल्क चोरी के एक मामले में अदानी समूह के प्रबंध निदेशक राजेश अदानी को केन्द्रीय जांच आयोग की गोआ शाखा ने उनके अहमदाबाद स्थित आवास से गिरफ्तार किया लेकिन इस देश में पैसे की ताकत इतनी बढ गयी है कि सीबीआई की याचिका दाखिल करने से पहले ही अदानी के वकीलों ने राजेश को कानूनी पंजे से छुडा लिया और केन्द्रीय जांच आयोग हाथ मलती रह गयी।
वाकया पुराना है लगभग आठ साल पहले अदानी समूह की स्वामित्व वाली कंपनी ने गोआ के रास्ते केमिकल आयात के दौरान करोड़ों रूपये की सीमा शुल्क चोरी की। जब मामला प्रकाश में आया तो जांच सीबीआई को सौंप दी गयी। सीबीआई ने जांच के दौरान अदानी समूह के प्रबंध निदेशक राजेश अदानी को मामले में दोषी पाया। फिर सीबीआई अदानी को गिरफ्तार कर अपने अभिरक्षण में लेने के लिए ज्यों ही अदालत पहुंची अदानी समर्थकों ने कानून का गला घोट कर कानून के सिकंजे से राजेश अदानी को बचा लिया और राजेश अदानी सीबीआई का मुंह चिढ़ाते हुए पुन: अपने आवास पर ससम्मान चले गये। बेचारी सीबीआई एक बार फिर थैलीवालों के हाथों मात खा गयी।
हालांकि न्यायालय ने अपनी साख बचाने के लिए और जनता में विश्‍वास बनाए रखने के लिए अदानी प्रकरण में जिस पंजिकार ने गैर कानूनी काम किया उसे धमकाया और हल्की फुल्की कर्रवाई कर उसे छोड दिया। समाचार पत्रों की मानें तो माननीय न्यायमूर्ति ने उक्त पंजिकार को कानून क्या है उसका हवाला दिया तो पंजिकार न्यायालय के सामने अपनी गलती कबूल कर ली। लेकिन सवाल उठता है कि क्या न्यायालय के पंजिकार को न्याय प्रक्रिया में संशोधन का अधिकार है? अगर पंजिकार न्यायालय की मान्य प्रक्रिया के खिलाफ आचरण करते हैं तो यह न्यायालय की अवमानना नहीं है, और न्यायालय की अवमानना पर पंजिकार हैं, क्या इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए? एसे कई सवाल आज भारतीय न्याय क्षितिज पर मंडरा रहा ह, जिसका जवाब न्यायालय को देना चाहिए अन्यथा आम लोगों का विश्‍वास न्यायालय पर बनाए रखने में कठिनाई होगी। अदानी मामले में जो झोल है उसपर भी गंभीर मीमांसा की जरूरत है। हालांकि न्याय के जानकार और प्रतिष्ठित माननीय न्यायाधीश, राजेश अदानी नामक आरोपी को कानूनी प्रक्रिया के तहत ही जमानत दी होगी, लेकिन आम आदमी के मामले में न्यायालय की प्रक्रिया अकसरहां इतनी तेज नहीं देखी जाती है। शायद इसीलिए सवोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश ने कहा होगा कि इस देश की न्याय प्रक्रिया अमीर लोगों के लिए है।
एक साधारण आदमी जब कानून का उल्‍लंघन करते हुए पकडा जाता है तो उसे जवानत लेने के लिए न्यायालय खुलने का इंतजार करना पडता है लेकिन जब प्रभु वर्ग का कोई आदमी गिरफ्तार किया जाता है तो न्यायाधीश न्यायालय की कार्यावधि के बाद भी जमानत दे देते हैं। अदानी मामले में कुछ ऐसा ही हुआ। माना कि न्यायालय न्यायाधीश अपने आवास पर भी लगा सकते हैं लेकिन ऐसा आम आदमी के मामलों में कहां देखा जाता है? अगर ऐसे मामले सामने आते हैं तो यह ज्यादा दिनों तक संभव नहीं है। क्योंकि ऐसे कुछ मामलों को तील का तार बनाकर हमारे दुश्‍मन हमारे ही कुछ नौजवानों को गुमराह कर हमारे ही खिलाफ षड्यंत्र रचने में कामयाब हो जाते हैं। बिना न्यायालय की अनुमति के उक्त पंजिकार ने हाथों हाथ मामला न्यायालय के पटल पर रख दिया। अदानी मामले को न्यायालय के पटल पर रखने से पहले संबंधित न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अनुमति जरूरी है, जिसे नहीं लिया गया। सारी प्रक्रिया मौखिक ही संपन्न कराया गया। इसी बात से खिन्न होकर न्यायाधीश न्यामूर्ति दवे ने पंजिकार से प्रश्‍न पूछा था कि न्यायालय का काम लिखित होता है या मौखिक? इसपर उक्त पंजिकार झेंप गये और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि अब ऐसी गलती नहीं होगी। हालांकि यह मामला देखने में आसान सा लगता है। यह भी माना जा रहा है कि बडी हस्ती होने के कारण मीडिया ने इस मामले को ज्यादा तूल दी, परंतु इस देश में हत्या करने वाला आदमी बाइज्जत बडी हो जाता। इस देश में एक अपराधी तो ऐसा है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा सुना दी और फांसी का दिन भी तय कर दिया लेकिन आज तक उस अपराधी को फांसी नहीं दिया गया है। इस बात की जानकारी सबको है कि जिसके पास पैसा है उसके लिए भारत में सात खून माफ है। बिहार और उत्तर प्रदेश में माफिया और डॉनों की चलती है तो गुजरात में व्यापारी ही उसकी भूमिका निभा रहे हैं। कानून का गला सभी घोंट रहे हैं। गुजरात में दारू बंदी है। यहां कोई सराब की दुकान नहीं चला सकता है। लेकिन किसी को चाहिए तो माल तुरत हाजिर किया जा सकता है। गुजरात में सराब की खूब बिकरी होती है लेकिन सामने से नहीं पीछे से। उसे भारतीय कानूनी प्रक्रिया में ही बडी होने का रास्ता मिल जाता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि लोगों को न्यायालय के प्रति अविष्वास पैदा होगा। इस देश में जो आतंकवादी गतिविधियों में इतनी तेजी आ रही है उसके पीछे का कारण पुलिस तंत्र औरा प्रशासन से संत्रस्त लोगों को बंदूक उठाना एक महत्वपूर्ण कारक है। इस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया गया तो याद रेहे देश के दुष्मन हमें विदेषी हथियारों से नहीं खांटी देषी औजारों से ही हमें निवटा देंगे। अदानी का मामला तो एक उदाहरण है इस देश में हजारों ऐसे मामले हैं जिसमें लोग जेल में बंद है लेकिन उनके उपर कोई आरोप नहीं है। पैसे वाले कानून को अपने तहर से उपयोग कर रहे हैं।
अभी विगत दिनों एक मामला प्रकाश में आया कि टाटा समूह के स्वामित्व वाली चाय की कंपनी, असम में सक्रिय उल्पा के आतंकवादियों को आर्थिक सहयोग दिया करता थी। इसका खुलासा तब हुआ जब मुम्बई में उल्फा के सक्रिय सदस्य और सांस्कृतिक सचिव प्रणति डेका गिरफ्तार हुई। प्रणति को टाटा-टी की सामुदायिक कल्याण अधिकारी ब्रोजेन गोगोई ने इलाज के लिए कंपनी की ओर से 50 हजार रूपये दिये थे। किसी का इलाज कराना कोई गलत नहीं है। टाटा-टी ने उन्हें इलाज के लिए पैसा दिया इसमें बुराई क्या है, लेकिन यह जानते हुए कि जिसे टाटा-टी सहयोग कर रही है वह देश को तोडने वालों के लिए काम कर रहे हैं। फिर भी टाटा-टी ने उसे सहयोग किया वह भी बिना किसी सुरक्षा संगठनों को जानकारी दिये, इसे आप क्या कहोंगे? यहां टाटा-टी की देशभक्ति पर प्रष्न क्यों नहीं खडा किया जा सकता है? आंध्र प्रदेश में रीलायंस पेट्रोलियम के खिलाफ जोरदार आन्दोलन चलाया गया। कई प्रतिष्ठानों को आग के हवाले कर दिया गया। विवाद का मुख्य कारण बताया गया कि किसी वेबसाईट ने वहां के मुख्यमंत्री राजषेखर रेड्डी की मृत्यु के लिए रीलायंस समूह को देषी ठहराया है। बात गलत हो सकती है, लेकिन जांच तो नहीं हुई। रीलायंस और रीलायंस की लडाई में ही कई विवादास्पद बातें मीडिया में आ चुकी है। इसके बाद अब जब 2जी एस्पेकट्रम पर समाचार माध्यम और कॉपोरेट जगत के सांठगाठ का खुलासा हुआ तो यह भी स्पष्ट हो गया कि जो लोग अखबर में लिख रहे हैं और समाचार वाहिनियों पर बक रहे हैं वे भी किसी न किसी कंपनी के द्वारा प्रायोजित हैं। ऐसी परिस्थिति में जब देश का संपूर्ण प्रभुवर्ग किसी न किसी के पे-रॉल पर हो तब सवाल यह उठता है कि एक आम आदमी को क्या करना चाहिए? यह सवाल केवल विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका से नहीं, यह सवाल लोकतंत्र पर चौथा खूंटा ठोकने वाले समाचार माध्यमों के कलमघिस्‍सू और चैनलों के चमकिले चेहरों से भी पूछा जाना चाहिए।



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