नेपाली लोकतंत्र का गला घोटनें की फिराक में है माओवादी - गौतम चौधरी


भारत का पारंपरिक पडोशी नेपाल एक बार फिर गृहयुद्घ की ओर बढ रहा है। नेपाल में सक्रिय ईसाई मिलीशिया, माओवादी आतंकियों ने सरकार से बगावत कर पुन: पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी में नए गुरिल्लों की भर्ती की घोषणा की है। इस घोषणा के बाद माओवादियों और नेपाली सेना में युद्घ की सम्भावना बढ गयी है। इधर नेपाली सेना ने भी नए जवानों की बहाली प्ररारंभ की है। दोनों ओर तनातनी से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि नेपाली माओवादी नेतृत्व और सेना के बीच भारी गतिरोध है। इस द्वन्द्व की परिणति पर मिमांशा करने से जो बातें ध्यान में आती है वह नेपाल के लिए तो बुरी है ही भारतीय कूटनीति के लिए भी अच्छा संदेश नहीं है। इस प्रकार का द्वन्द्व या गतिरोध केवल माओवादियों और सेना के बीच में ही नहीं है अपितु नेपाल में सरकार चला रहे गठबंधन में भी है। हालांकि नेपाली प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ने अपने बायान और भौतिक प्रयास से नेतृत्व के गतिरोधों को समाप्त करने का प्रयास तो किया है, लेकिन जिस प्रकार चरमपंथी नेता तथा नेपाल के गृहमंत्री बाबूराम भट्टराई और प्रतिरक्षा मंत्री राम बहादूर थापा ने बयान दिये और फिर उसके तुरन्त बाद विदेश मंत्री तथा मधेशी जनाधिकार फोरम के नेता उपेन्दा्र प्रसाद यादय ने माओवादियों पर पलटवार किया उससे स्पष्ट हो गया है कि सरकार में शामिल पार्टियों को नेपाल की चिन्ता नहीं अपितु उनें अपने हितों की चिन्ता है। वर्तमान गतिरोध से सरकार में शामिल सबसे बडी पार्टी नेपाल की काम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) की मन्शा का एक बार फिर से खुलासा हो गया है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि नेपाली माओवादी लोकतंत्र की बात भले कर लें लेकिन उन्हें किसी कीमत पर लोकतंत्र पसंद नहीं है। नेपाली माओवादी नेता अभी भी उसी प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं जिस प्रकार का व्यवहार वे भूमिगत रहने के समय किया करते थे। तमाम बिन्दुओं पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी एक बार फिर लडाई की पृष्टभूमि तैयार करने लगे हैं। माओवादियों को १४ हजार भोले भाले नेपालियों की हत्या से मन नहीं भरा है। वे कुछ और लोगों की हत्या करना चाहते हैं। माओवादियों के बीच बहस चल रही है कि यह सत्ता आधी अधूरी है। इससे माओवाद की मूल अवधारना को नहीं पया जा सकता है इसलिए कुछ और लोगों की हत्या कर सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण किया जाये। माओवादी सोच के कारण सेना में भारी आक्रोश है। सेना पारंपरिक संस्कृति को बनाए रखना चाहती है। सेना लोकतंत्र का भी समर्थन कर रही है, लेकिन माओवादी यह प्रचार करने में लगे हैं कि सेना जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार को अस्थिर करना चाहती है। जानकारों का मानना है कि माओवादी अब तीसरे चरण की लडाई के फिराक में हैं। माओवादियों को भूमिगत अभियान के समय चीन, ईसाई मिशनरी और पाकिस्तान से सहायता मिली था। अब माओवादियों को ये तीनों शक्तियां अपने अपने एजेंडों को नेपाल में लागू करने के लिए दबाव डाल रही है। इधर राष्ट्रवादी सोच ने सेना को एहसास करा दिया है कि वर्तमान गतिरोध में अगर उसने माओवादियों के सामने घुटने टेक दिया तो चीन और रूस की तरह सेना को अपने वास्तविक स्वरूप में परिवर्तन करना होगा। फिर नेपाल का भी वास्तविक ढांचा समाप्त हो जाएगा और पता नहीं नेपाल कहां पहुंच जाएगा। इन तमाम बिन्दुओं पर विचार करने से नेपाल का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। इन्ही सोच ने नेपाली सेना को माओवादियों से सतर्क रहने की शक्ति प्रदान कर दी है। सेना के तेवर से यही जान पडता है कि सेना माओवादियों के सामने घुटने नहीं टेकेगी और माओवादी गतिरोध बढा तो सेना अपने हिसाब से गतिविधि भी चला सकती है। फिलवक्त तत्कालीन गतिरोध के पीछे का कारण माओवादियों के द्वारा फिर से ङ्क्षहसक होने की घोषणा है। लोकतंत्रात्मक गतिविधि के बाद एक बार ऐसा लगा था कि नेपाली माओवादी अब अपने तमाम एजेंडों को छोड नेपाल के विकास के लिए काम करेंगे, लेकिन नेपाली माओवादियों को तो चीन और ही ईसाई मिशनरी इस काम में लगने देगा। माओवादी रणनीति के जानकारों का मानना है कि अब माओवादी दो सिद्घांतों पर काम करने की योजना बना रहा है। पहला किसी तरह सेना पर नियंत्रण करना और दूसरा नेपाली प्रबुद्घ-जन को इतना डरा देना कि वह किसी प्रकार का नया लोकतंत्रात्मक आन्दोलन खडा नहीं कर पाये। माओवादियों की इसी रणनीति के कारण नेपाल मीडिया सडक पर गयी। फिर माओवादियों ने विश्व प्रसिद्घ पशुपतिनाथ जी के मंदिर पर आक्रमण कर दिया। इन दोनों कृत्यों ने माओवादियों की सोंच को जाहिर कर दिया है। नेपाल में हो रहे नित नवीन घटनाक्रमों से एसा प्रतीत होता है कि नेपाल का माओवाद पूर्णरूपेण प्रयोजित है। नेपाली आवाम लोकतंत्र में विश्वास करता है। माओवादियों के साथ चंद लोग हैं और सत्ता में आने के बाद माओवादी जनता की उस कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं जिसका उन्होंने वादा किया था। इस परिस्थिति में माओवादियों को अब सत्ता पर पूर्ण अधिकार चाहिए जिससे वे मनमानी कर सकें। नेपाल का हिन्दुत्व और नेपाली सेना इस दिशा में माओवादियों के सामने लगातार चुनौती खडी कर रहे है। माओवादी इन चुनौतियों से काफी परेशान है। यही कारण है कि माओवादी अब अनरगल कृत्य पर उतारू हो गये हैं। साम्यवादियों की यह कोई पहली पहल नहीं है। इससे पहले दुनिया के सामने कई उदाहरण हैं जो साम्यवाद के लाल चोंगा को खुंखार बना देता है। २०वीं शताब्दी में रूस में कथित रक्तहीन क्रांति हुई थी। दुनिया उसे बोलसेविक क्रांति के नाम से जानती है। उसके नेता ब्लादमीर एलिच लेनिन थे। उन्हें भी लोकतंत्र पसंद नहीं था और इसीलिए कैरंसकी को सत्ता से हटाकर लेनिन ने रूस पर अपना कब्जा जमा लिया। स्ट्रालीन उससे भी खतरनाक निकला और स्ट्रॉलीन ने ट्रॉस्की जैसे जनोन्मुख विचार रखने वाले साम्यवादी की हत्या तक करवा डाली। चीन में भी यही हुआ जो आज नेपाल में हो रहा है। वामपंथ में लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं होता। वहां साम्यवादी नेता के सामने किसी की नहीं चलती है और यही कारण है कि माओ के युग के बाद चीन अमेरिका परस्त डेंगवादी हो गया। नेपाल के जनतंत्र को हडपने के लिए ताना-बाना बूना जा रहा है। हालांकि नेपाली सेना ने संयम का परिचय दिया है। नेपाली सेना अपने काम में लगी है। उसे इस बात का अंदाज है कि समय रहते सतर्कता नहीं बरती गयी तो नेपाल का सांस्कृतिक स्वरूप समाप्त हो जाएगा। नेपाल का जनमानस भी अब माओवादियों की भावना को समझने लगा है। पूर्व में मीडिया और प्रगतिशील कहे जाने वालों ने माओवाद का समर्थन तो किया लेकिन जब माओवादियों की मन्शा पर से पर्दा उठने लगा तो लोग किनारे कटने लगे हैं। माओवादी अपने ही जाल में फसने लगा है। माओवादी विचारक, नेता और कार्यकर्ता समय रहते नहीं चेते तो नेपाल की जनता उन्हें दरकिनार कर सकती है। फिर माओवादियों को इतना तो विचार करना ही चाहिए कि आज की परिस्थिति और लेनिन, माओ के समय की परिस्थिति में फर्क हैं। यही नहीं रूस और चीन से नेपाल का कुछ भी मेल नहीं खाता। इसलिए नेपाल की क्रांति को रूस और चीन की क्रांति से तुलना करना ठीक नहीं होगा। माओवादियों को अपने धरातल का अगर ज्ञान है तो उन्हें विचार करना चाहिए कि नेपाल का निमार्ण किस प्रकार किया जाये। नेपाली माओवादियों को इस विषय पर भी विचार करना चाहिए कि अब वे लोग भूमिगत गुरिल्ले नहीं रहे, वे सरकार चला रहे हैं। साथ ही यह भी विचार होना चाहिए कि उस सरकार में केवल माओवादी ही नहीं हैं उनके साथ कई विचारधारा के लोग सरकार में शमिल हैं। फिर यह विचार होना चाहिए कि जिस प्रकार नेपाल का राजा, नेपाल की जनता, सेना, मीडिया, न्यायालय और प्रशासन जनतंत्र का सम्मान कर रहा है उसी प्रकार माओवादियों को भी जनतंत्र का सम्मान करना चाहिए। नेपाल में माओवादियों को विशेष दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। इससे नेपाल का स्वरूप बिगर जाएगा और नेपाल का सांस्कृतिक भूगोल भी विदा्रुप हो जाएगा। नेपाल की परिस्थिति से भारत पर भी प्रभाव पडना स्वाभाविक है। नेपाल में संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन दोनों का हित टकरा रहा है। नेपाल में चीन मजबूत होता है तो अमेरिका की कूटनीतिक हार होगी और अमेरिका मजबूत होता है तो वह चीन के लिए खतरनाक होगा। नेपाल दोनों महाशक्तियों का अखाडा बनता जा रहा है। इस अखाडे से अन्ततोगत्वा भारत को ही घाटा होगा। भारत को इस दिशा में पहल करनी चाहिए और नेपाल में हो रहे नित नवीन परिवर्तन को सकारात्मक बनाने की योजना बनायी जानी चाहिए। भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मुद्दे को उठाना चाहिए कि महाशक्तियों के द्वारा नेपाल में हो रहे हस्तक्षेप बंद हों। ऐसा नहीं करने से नेपाल तो मरेगा ही भारत के लिए एक और समस्या खडी हो जाएगी। जिस प्रकार चीन, पाकिस्तान, म्यामा, बांग्लादेश और श्रीलंगा से भारत को चुनौती मिल रही है उसी प्रकार नेपाल से भी चुनौती मिलने लगेगी। इस परिस्थिति में नेपाल के लिए भारतीय हस्तक्षेप जरूरी है।

Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत